उच्चतम न्यायालय ने आज कहा कि यदि बैंक किसी कर्जदार के खाते को धोखाधड़ी की श्रेणी में डालना चाहता है तो पहले कर्जदार को अपना पक्ष रखने का अवसर देना होगा। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली के पीठ ने इस मामले में तेलंगाना उच्च न्यायालय के एक खंडपीठ का 10 दिसंबर, 2020 का एक फैसला बरकरार रखा।
न्यायालय ने कहा, ‘दोनों पक्षों की सुनवाई को धोखाधड़ी पर भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य निर्देश (मास्टर डायरेक्शन ऑन फ्रॉड) के तहत खारिज नहीं माना जा सकता। धोखाधड़ी पर आरबीआई के इन निर्देशों के तहत दी गई समय सीमा और अपनाई गई प्रक्रिया की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए ऋणदाता बैंकों को कर्जदार का खाता धोखाधड़ी की श्रेणी में डालने से पहले उसे अपना पक्ष रखने का मौका देना चाहिए।’
इन निर्देशों में धोखाधड़ी के प्रयास, चेक से संबंधित धोखाधड़ी, ऋण धोखाधड़ी और चोरी, सेंधमारी, डकैती तथा बैंक डकैती के संबंध में नियामकीय व्यवस्था दी गई है।
अलबत्ता अदालत ने स्पष्ट किया है कि प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज करने से पहले सुनवाई की मौका देने की कोई जरूरत नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में गुजरात उच्च न्यायालय का फैसला खारिज कर दिया।
शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी खाते को धोखाधड़ी की श्रेणी में डालने से जांच एजेंसियों को अपराध की सूचना मिलती है और कर्जदार को फौजदारी तथा दीवानी कार्रवाई भी झेलनी पड़ती है। न्यायालय ने कहा कि प्रावधान 8.12.1 के अंतर्गत प्रतिबंध लगाना कर्जदारों को भरोसे के नाकाबिल मानकर काली सूची में डालने के बराबर है।
न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति पर रोक लगाने से पहले उसे अपनी बात कहने का अवसर जरूर दिया जाना चाहिए। प्रावधान 8.12.1 के तहत प्रवर्तक और कंपनी के निदेशक सहित कर्जदार को वित्तीय और ऋण बाजारों से कर्ज लेने से 5 साल के लिए रोक दिया जाता है। रोक इससे ज्यादा समय के लिए भी हो सकती है।
इस बीच आरबीआई और अन्य ऋणदाताओं ने कहा कि ऐसी पाबंदी को जनहित के नजरिये से देखा जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि यह सही है कि फर्जीवाड़े पर प्रमुख दिशानिर्देश जनहित में और बैंकिंग क्षेत्र को बचाने के लिए हैं। मगर कर्जदारों के लिए इनके गंभीर परिणामों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती।
खेतान ऐंड कंपनी में पार्टनर मानवेंद्र मिश्रा ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय से तस्वीर पूरी तरह साफ हो चुकी है। उन्होंने कहा कि चूकने वाली से होने वाला बरताव भी बदलेगा।
मिश्रा ने कहा, ‘इससे कर्जदार को फॉरेंसिक ऑडिट में आए तथ्यों पर अपनी बात रखने का मौका मिलता है। इससे पहले फॉरेंसिक ऑडिट को ही शिकायत और एफआईआर बना दिया जाता था। इसलिए स्थिति साफ करने और पक्ष रखने का मौका दिए जाने से बहुत बदलाव आएगा।’
न्यायालय ने कहा कि कर्ज देने वाले बैंकों को ग्राहकों को एक अवसर देना चाहिए। न्यायालय के अनुसार बैंकों को ऑडिट रिपोर्ट की एक प्रति कर्जदार को सौंपनी चाहिए ताकि उसे अपना पक्ष रखने का वाजिब मौका मिल सके। इसके बाद ही खाते को फर्जीवाड़े की श्रेणी में डालना चाहिए।