महंगाई ने भी इस पूरे साल कई रंग दिखाए। फरवरी-मार्च से ही महंगाई का मीटर ऊपर जाने लगा था और दूध, फल, सब्जी, खाद्य तेल जैसी आम जरुरत की चीजों की कीमतें बढ़ने लगी थीं।
एक वक्त महंगाई ने पिछले 13 साल के रिकॉर्ड को ही तोड़ दिया। एक वक्त पर महंगाई बढ़कर 13 फीसदी तक का आंकड़ा छू चुकी थी। महंगाई ने जहां आम आदमी का बजट बिगाड़ दिया वहीं सरकार को भी इसने कम परेशान नहीं किया। सरकार इससे निपटने के तमाम उपाय खोजती रही।
सरकार ने महंगाई की आग को बुझाने के लिए कड़े कदम उठाने से भी परहेज नहीं किया। केंद्रीय बैंक ने महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए कड़ी मौद्रिक नीति अपनाई। जिसके चलते रेपो और रिवर्स रेपो रेट को तीन बार बढ़ाया गया जिसका नतीजा यह निकला कि लोगों के लिए कर्ज लेना दूभर हो गया।
खैर, साल के अंत में महंगाई ने भी कुछ कृपा दिखाई और यह घटकर नीचे आई। अब महंगाई दर साढ़े छह फीसदी तक आ गई है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कड़ी मौद्रिक नीति के अलावा मांग में कमी से भी महंगाई में कमी आई है।
अगर मांग में यही कमी जारी रहती है तो मार्च में महंगाई दर घटकर 2 फीसदी तक पहुंच सकती है और अगस्त में यह शून्य फीसदी के स्तर पर पहुंच सकती है। इस साल 2 अगस्त को महंगाई दर 12.98 के उच्चतम स्तर पर थी जबकि 5 जनवरी को महंगाई दर 4.26 के न्यूनतम स्तर पर थी।
मंदी से प्रभावित आयात-निर्यात
निर्यात के लिहाज से यह साल काफी खराब रहा। साल की शुरुआत में जहां रुपये में तेजी के चलते निर्यातकों को अपने निर्यात का सही दाम नहीं मिल पा रहा था। वहीं साल के आखिर में विदेशों में कम मांग के चलते उन्हें ऑर्डर नहीं मिल रहे हैं।
अक्टूबर में देश से हुए निर्यात में पिछले साल के मुकाबले 12.1 फीसदी की कमी आई। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चालू वित्त वर्ष में निर्यात में 20 फीसदी की कमी आ सकती है। जबकि इस साल निर्यात में 25 फीसदी की बढ़ोतरी करने का लक्ष्य रखा गया था।
नैशनल इंस्टीटयूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस से जुड़े एक अर्थशास्त्री कहते हैं कि विदेशों में मांग कम होने और देश में नकदी मिलने में आ रही मुश्किल से इस तरह के हालात बने हैं।
उनका कहना है कि आर्थिक मंदी की वजह से दुनिया के कई विकसित देशों में अर्थव्यवस्था में इतनी गिरावट आई है कि उनकी विकास दर नकारात्मक हो गई है।
ऐसे में इन बाजारों में मांग की बेहद कमी हो गई। ऐसे में अगर मांग की कमी है तो चाहे निर्यातक कितनी ही कम कीमत पर अपना माल बेचें, उन्हें खरीदार मिलने में मुशिकल आएगी। इस साल निर्यात में कमी के चलते कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग, आई टी जैसे सेक्टर बुरी तरह प्रभावित रहे हैं।
इस मामले में सरकार को आगे आकर इन क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया करानी होगी। जहां तक आयात की बात है तो जब कच्चे तेल की कीमतों में जबर्दस्त तेजी चल रही थी तब आयात बिल बढ़ता जा रहा था। अक्टूबर में आयात घटकर 10.6 फीसदी रह गया। जबकि इससे पहले यह 43.3 फीसदी थी।
देश में होने वाले आयात के बारे में क्रिसिल के प्रमुख अर्थशास्त्री धर्मकीर्ति जोशी कहते हैं, ‘घरेलू मांग भी आयात को काफी प्रभावित कर रही है।’ उनकी बात काफी सही लगती भी है क्योंकि इस दौरान कच्चे माल के आयात में भी काफी कमी आई भी है।
लुढ़कता डॉलर संभला तो रुपया हुआ कमजोर
प्लेटफार्म से उतर चुकी अपनी गाड़ी को वापस प्लेटफार्र्म पर लाने के लिए डॉलर को इस साल काफी पसीना बहाना पड़ा है। सब प्राइम संकट की मार झेल रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में कमजोर डॉलर पर निवेश करने के लिए साल के शुरुआती महीने काफी अच्छे रहे।
साल के पहले दिन डॉलर की कीमत 39.42 रुपये थी और शुरुआती दो महीने में इसकी कीमतों में दशमलव फेरबदल ही हुआ। इस बीच 15 जनवरी को डॉलर 39.97 की अपनी निम्नतम सीमा पर रहा। काफी मशक्कत के बाद फरवरी के अंतिम दिन डॉलर ने 40.02 रुपये के आंकड़े को पार किया।
लेकिन 40 के आंकड़े पर डॉलर का स्थायित्व 23 अप्रैल (40.06 रुपये) के बाद ही आ सका। मई और जून के महीने में कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी होने के साथ डॉलर का बाजार भी खिलना शुरु हो गया। वैश्विक तौर पर डॉलर की मांग बढ़ने के साथ ही कीमतें 28 नवंबर को 50.11 के आकड़े को पार कर गई।