वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार को कहा कि भारत में निजी क्षेत्र का निवेश, बढ़ते सार्वजनिक व्यय के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया है। उन्होंने कहा कि बैलेंस शीट बेहतर होने के बावजूद कॉरपोरेट सेक्टर अपनी क्षमता बढ़ाने पर निवेश करने के बजाय निष्क्रिय है। सीतारमण ने जोर देकर कहा कि वृद्धि सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। उन्होंने कहा कि चीन के साथ अधिक पहुंच से अर्थव्यवस्था को मदद मिल सकती है, लेकिन इस मामले में सावधानी बरतने की जरूरत भी है।
वित्त मंत्री जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अमिता बत्रा और जाने माने पत्रकार एके भट्टाचार्य द्वारा सह-संपादित पुस्तक ‘ए वर्ल्ड इन फ्लक्स: इंडियाज इकनॉमिक प्रायोरिटीज’ के विमोचन के मौके पर बोल रही थीं। यह पुस्तक अर्थशास्त्री शंकर आचार्य के सम्मान में प्रकाशित की गई है, जो 1993 से 2001 तक भारत सरकार के सबसे लंबे समय तक मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे।
भट्टाचार्य के साथ बातचीत में सीतारमण ने कहा कि प्रेस नोट 3 ने चीन के निवेशों पर प्रतिबंध लगा दिया है और विशेष रूप से नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाएं तकनीकी विशेषज्ञों तक पहुंच की कमी के कारण रुकी हुई हैं। प्रेस नोट-3 भारत की विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) नीति का हिस्सा है, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा मसलों पर कुछ पड़ोसी देशों से निवेश प्रतिबंधित किया गया है।
निर्मला सीतारमण ने कहा, ‘अमेरिका और चीन के बीच शुल्क युद्ध के दौरान एक ठहराव था। अब हमें अधिक पहुंच और बातचीत करने की जरूरत है। साथ ही कुछ रास्ते खोलने की आवश्यकता है, और यह केवल हमारी ओर से नहीं है।’
भारत ने पिछले सप्ताह 5 साल के लंबे अंतराल के बाद चीन के नागरिकों को पर्यटक वीजा जारी करना फिर शुरू करने की घोषणा की। विदेश मंत्री एस जयशंकर हाल ही में शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की विदेश मंत्रियों की बैठक में भाग लेने चीन गए थे और अपनी दो दिवसीय यात्रा के दौरान उन्होंने चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से भी मुलाकात की थी। सीतारमण ने कहा कहा कि सरकार ने पूंजीगत व्यय बनाए रखा है, जो सतत आर्थिक वृद्धि के प्राथमिक चालकों में से एक है।
उन्होंने कहा कि अधिक निवेश आकर्षित करने के लिए सरकार एफडीआई नीति को और आकर्षक और मित्रवत बना सकती है।
लेखा महानियंत्रक के आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2026 में अप्रैल-मई के दौरान पूंजीगत व्यय में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 54 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। पिछले साल आम चुनावों के कारण पूंजीगत व्यय कम था।
अपनी शीर्ष प्राथमिकताओं के बारे में बात करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि भारत को नेतृत्व की स्थिति में रहने और वैश्विक संस्थाओं की दिशा तय करने के मामले में सशक्त स्थिति में रहने की जरूरत है, जिससे अगले 100 साल तक दुनिया संचालित होने वाली है।
उन्होंने कहा, ‘हमें ग्लोबल साउथ की आवाज को फिर से परिभाषित करना होगा, और खुद को भी इसके अनुकूल करना होगा, साथ ही अगले 100 वर्षों की रूपरेखा निर्धारित करने के लिए मुख्य भूमिका में रहने में सक्षम होना होगा।’
जी-20 का जिक्र करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि भारत की अध्यक्षता के दौरान बहुपक्षीय विकास संस्थानों में सुधार पर विशेषज्ञ समिति का कार्य क्षेत्र व्यापक किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि घरेलू आकांक्षाओं को राजकोषीय विवेक के साथ संतुलित करते हुए वैश्विक बदलावों के अनुकूल भारत को गतिशील रूप से ढालने की जरूरत है।
पुस्तक के विषय ‘फ्लक्स’ पर अपने विचार साझा करते हुए सीतारमण ने कहा कि जिन संस्थानों, खासकर बहुपक्षीय संस्थानों को कभी स्थिर और प्रभावी माना जाता था, अब वे अनिश्चितता की स्थिति में दिखाई देते हैं। उन्होंने कहा, ‘न केवल वित्तीय संस्थान, बल्कि रणनीतिक संस्थान की भी यही स्थिति है।’ सीतारमण ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि भारत को सभी वर्गों की आकांक्षाओं पर ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि न केवल पैसे देकर, बल्कि एक समग्र पारिस्थितिकी तंत्र बनाकर ऐसा करने की जरूरत है, जिससे वे खुद बढ़ने की आकांक्षा कर सकें।
वित्त मंत्री ने कहा, ‘घरेलू आकांक्षाओं को संसाधनों की उपलब्धता के साथ तालमेल बिठाने और उसके मुताबिक आर्थिक प्राथमिकताएं तय करने की चुनौती है।
बाद में पुस्तक पर हुई पैनल चर्चा में देश की भू-राजनीतिक स्थिति, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी प्राथमिकताओं और व्यापार तथा आर्थिक वृद्धि से जुड़ी चुनौतियों से निपटने पर जोर दिया गया।
पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने कहा कि भारत जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से अधिकांश वैश्विक प्रकृति की हैं और बहुलतावाद अब मौजूद नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि इस बात को लेकर दुविधा है कि क्या नए बहुपक्षीय संस्थानों को तैयार करने की आवश्यकता है या नहीं या फिर अनुभव से लैस मौजूदा संरचनाओं को ही वर्तमान की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार होना चाहिए।
सरन ने कहा, ‘संस्थानों से छुटकारा पाना आसान है, लेकिन नए संस्थानों को स्थापित करना बहुत मुश्किल है।’ उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत को एक राष्ट्र के तौर पर देश की मांगों को मानवता की व्यापक भावना के साथ संतुलित करने में मददगार साबित होने वाला नैतिक संबंध अब खो गया है।
योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए कहा कि भारत का शून्य-उत्सर्जन का लक्ष्य कठिन जरूर है लेकिन इसे हासिल किया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘हमें यह दृष्टिकोण बनाए रखना चाहिए कि ऊर्जा माध्यमों में बदलाव होना ही है। हमें लक्ष्य पर नहीं, बल्कि उस तक कैसे पहुंचें, इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।’
उन्होंने कहा कि 2013 में बाजार में अस्थिरता के दौरान भारत का अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से सहायता लेने के लिए संपर्क न करना वास्तव में अर्थव्यवस्था की ताकत का संकेत था।
जेएनयू में इंटरनैशनल स्टडीज विभाग की प्रोफेसर अमिता बत्रा ने कहा कि हाल में हुआ भारत-ब्रिटेन व्यापक व्यापार समझौता वास्तव में भारत के इरादे का मजबूत संकेत है।
उन्होंने कहा कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को इतनी आसानी से नहीं छोड़ना चाहिए और इसके बजाय देशों को मौजूदा दुनिया की मांगों के अनुरूप डब्ल्यूटीओ को बनाने के बारे में नए सिरे से सोचना शुरू करना चाहिए। बत्रा ने कहा कि अमेरिका द्वारा रोजाना आधार पर किए जा रहे द्विपक्षीय करार में टैरिफ और ट्रांसशिपमेंट के बारे में कोई ब्योरा नहीं दिया जा रहा है। बत्रा ने कहा, ‘हर देश स्थिरता की तलाश में है। सहयोगी बदल रहे हैं। नए भागीदार उभर रहे हैं, लेकिन इनमें से किसी में भी स्थायीपन की भावना नहीं है। इस समय जरूरत ऐसे भागीदारों की तलाश करना है जो मौजूदा दबाव वाली अर्थव्यवस्था से परे हों।’
जेपी मॉर्गन के प्रबंध निदेशक और मुख्य अर्थशास्त्री (भारत) साजिद चिनॉय ने कहा कि भारत में उच्च वृद्धि दर को लेकर काफी व्यग्रता है ताकि 6.5 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि को स्थायी आधार पर उच्च स्तर तक ले जाया जा सके। उन्होंने कहा कि भारत जिस रफ्तार से जनसांख्यिकीय बदलाव के दौर से गुजर रहा है, उसकी सराहना करने की आवश्यकता है क्योंकि एक बार जब देश की कामकाजी आयु की आबादी कम हो जाएगी तब अर्थव्यवस्था के लिए उच्च वृद्धि दर हासिल करना चुनौतीपूर्ण होगा।
उन्होंने कहा कि व्यापार सभी उभरते बाजारों की जीवनधारा रहा है और भारत का केवल घरेलू बाजारों पर जोर देना गलती होगी। चिनॉय ने कहा, ‘वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने की काफी गुंजाइश है।’