दिल्ली मेट्रो अधिनियम का अन्य राज्यों में विस्तार कर ऐसी परियोजनाओं को धन मुहैया कराने (निधिकरण) के लिए शहरी विकास मंत्रालय के प्रस्ताव पर सरकार के विभिन्न विभागों में असहमति है।
सरकारी सूत्रों के अनुसार इस प्रस्ताव पर कैबिनेट सचिवालय में कुछेक बार बातचीत हो हुई है और आम सहमति नहीं बन पाने के कारण अब यह मसला सचिवों की एक समिति विचारार्थ भेजा गया है।
इस प्रस्ताव में कहा गया है कि कई मामलों में निजी क्षेत्रों के लिए मेट्रो का निर्माण और वित्तपोषण लाभदायक प्रस्ताव नहीं हो सकता है, बेहतर तरीका यह हो सकता है कि भारत के अन्य शहरों में मेट्रो के लिए निधि जुटाने के लिए दिल्ली मेट्रो का पैटर्न अमल में लाया जाए जहां राज्य और केंद्र सरकार की हिस्सेदारी बराबरी की है और ऋण भी जुटाए गए हैं। दिल्ली मेट्रो के मामले में जापान बैंक ऑफ इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन से ऋण लिया गया था।
इस पैटर्न को बंगलोर मेट्रो के लिए पहले ही अपना जा चुका है। इस तरीके का समर्थन शहरी विकास सचिव एम रामचन्द्रन और दिल्ली मेट्रों के प्रमुख ई श्रीधरन द्वारा किया जा रहा है। रामचन्द्रन के अनुसार कुछ शहरों में निजी क्षेत्र की संपूर्ण प्रतिभागिता पूरी तरह व्यवहार्य या स्वीकार्य नहीं हो सकती है। उन्होंने मुंबई मेट्रो का उदाहरण दिया जहां कॉरीडोर के प्रथम चरण में कार्य धीमा चल रहा है।
आगे भी अगर इस परियोजना में विलंब होता है तो लागत बढ़ जाएगी और तब किराये को उचित स्तर पर रखना मुश्किल हो सकता है। उनके अनुसार, अगले चरण की परियोजनाओं के लिए राज्य सरकार दिल्ली मेट्रो का पैटर्न अपनाने को उत्सुक है। यह बताते हुए कि 1984 में कोलकाता मेट्रो की शुरुआत के बाद और 1999 में दिल्ली मेट्रो आने तक कोई मेट्रो परियोजना नहीं आई।
उन्होंने पूछा, ‘अगर यह परियोजनाएं निजी क्षेत्रों के लिए व्यवहार्य और मुनाफे वाली होती तो क्या इस अवधि के दौरान अन्य प्रस्ताव नहीं आए होते?’ हालांकि, योजना आयोग जिसका नेतृत्व डिप्टी चेयरमैन मोन्टेक सिंह अहलूवालिया कर रहे हैं, के अधिकारियों और उनके एक सलाहकार ने निधिकरण की इस योजना का गंभीर रुप से विरोध किया है और सुझाव दिया है कि मेट्रो का निधिकरण सार्वजनिक-निजी प्रतिभागिता (पीपीपी) के माध्यम से होना चाहिए।
संपर्क करने पर हल्दिया ने कहा, ‘एनडीसी ने 11वीं योजना को मंजूरी दे दी है लेकिन राज्य के मेट्रो के लिए धन उपलब्ध नहीं कराया गया है। अगर राज्यों के पास ऐसे संसाधन उपलब्ध हैं तो सार्वजनिक-निधिकरण वाली मेट्रो परियोजनाओं का वे स्वागत करते हैं लेकिन अधिकांश मामलों में यह (निधि) कुछ अन्य तरजीही क्षेत्रों से लिए जाएंगे।’
योजना आयोग के नजरिये को वित्त मंत्रालय का समर्थन भी प्राप्त है। यह माना गया है कि दिल्ली मेट्रो का पैटर्न -जो इस मामले में सफल साबित हुआ है- लंबे समय तक चलने वाला नहीं है औ लंबी अवधि में यह काफी खर्चीला साबित हो सकता है। इसके अतिरिक्त, दिल्ली मेट्रो रियल एस्टेट बेच कर और प्रोपर्टी डेवलपमेंट के जरिये परिचालन लागत और अन्य खर्चों पर छूट देती है।
इसके अलावा उनका नजरिया है कि निजी क्षेत्र इन सुविधाओं को सरकारी एंटरप्राइजेज की अपेक्षा ज्यादा बेहतर तरीके से चला सकता है। एक अधिकारी ने कहा, ‘आपके पास कितने श्रीधरन हैं?’ उन्होंने तर्क दिया कि श्रीधरन जैसे क्षमता वाले अधिकारियों की तलाश करना कठिन साबित होगा जो सरकारी सुविधाओं को चला रहे हैं।
इसके अतिरिक्त दिल्ली मेट्रो का मालिकाना पैटर्न (केन्द्र सरकार द्वारा 50 प्रतिशत और राज्य सरकार द्वारा 50 प्रतिशत) यह सुनिश्चित करता है कि सीधे तौर पर यह किसी के तहत नहीं आता है। हालांकि, कैबिनेट सचिव के एम चन्द्रशेखर, जो आमतौर पर पीपीपी मार्ग का समर्थन करते हैं, का विश्वास है, ‘सभी सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए पीपीपी सफल नहीं हो सकता है’ और कुछ मामलों में सरकार द्वारा कोष उपलब्ध कराया जाना जरुरी हो सकता है।
प्रस्तावित मेट्रो परियोजनाएं
शहर – प्रस्तावित लंबाई (कि.मी. में) – अनुमानित लागत
कोच्चि – 25.0 – 3,000 करोड़ रुपये
कोलकाता – 13.8 – 4,700 करोड़ रुपये
मुंबई – 62.8 – 18,600 करोड़ रुपये
हैदराबाद – 71.0 – 10,000 करोड़ रुपये
बेंगलुरु – 33.0 – 6,000 करोड़ रुपये
चेन्नई – 50.0 – 9,000 करोड़ रुपये