भारत अपने सार्वजनिक क्षेत्र पर अमेरिका के मुकाबले काफी कम खर्च करता है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका सार्वजनिक क्षेत्र में कर्मचारियों की छंटनी कर रहा है ताकि लागत में कटौती की जा सके।
भारत सार्वजनिक क्षेत्र के लिए वेतन मद में अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.5 फीसदी खर्च करता है, जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 9.5 फीसदी और वैश्विक स्तर पर 9.8 फीसदी है। विश्व बैंक के विश्वव्यापी अफसरशाही संकेतकों से संकलित आंकड़ों से यह खुलासा होता है।
अमेरिका में ईलॉन मस्क के नेतृत्व में सरकारी दक्षता विभाग (डोज) सरकारी कर्मचारियों की तादाद कम करने की कोशिश कर रहा है। इसी क्रम में नैशनल एरोनॉटिक्स ऐंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) में काम करने वाले कर्मचारियों से लेकर मौसम का पूर्वानुमान जारी करने वाले सैकड़ों कर्मचारियों की छंटनी की जा सकती है। मगर भारत अभी भी ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और रूस जैसे अन्य उभरते बाजारों के मुकाबले सरकारी कर्मचारियों के वेतन मद में कम खर्च करता है।
इन संकेतकों को उन तमाम लोगों को दायरे में लेने के लिहाज से डिजाइन किया गया है जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार द्वारा नियुक्त हैं। इनमें सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों से लेकर सरकार के प्रशासनिक कामकाज करने वाले कर्मचारी और सरकारी शिक्षा अथवा स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले लोग शामिल हैं। सरकार के कुल सार्वजनिक व्यय के मुकाबले वेतन मद का खर्च भी भारत में दुनिया के मुकाबले कम है।
भारत के औपचारिक रोजगार में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान करीब 45 फीसदी है। मगर यह भारत में औपचारिक नौकरियों की कमी और उसकी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के आकार को भी दर्शाता है जहां लोग पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा के बिना काम करते हैं। भारत के कुल रोजगार में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान महज 8 फीसदी है, जबकि रूस में यह आंकड़ा 45 फीसदी है।
सार्वजनिक क्षेत्र के वेतनभोगी रोजगार में स्वास्थ्य क्षेत्र की हिस्सेदारी 7 फीसदी पर सबसे है। शिक्षा क्षेत्र में यह आंकड़ा 30 फीसदी है। भारत में मौजूद नौकरियों में लोक प्रशासन की हिस्सेदारी एक चौथाई से भी कम है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा 34 फीसदी है।
जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर देवेश कपूर के 2020 के एक पत्र ‘क्यों भारतीय राज्य विफल और सफल दोनों होता है?’ में कहा गया है, ‘यह दावा कमजोर आधार पर टिका हुआ है कि भारत का राज्य आकार में फूला हुआ और संरक्षण में डूबा हुआ है।’ उसमें बताया गया है कि भारत आम तौर पर सूक्ष्म आर्थिक नतीजों के बजाय वृहद आर्थिक परिणामों पर बेहतर प्रदर्शन किया है। कमजोर नतीजों की मुख्य वजहें सामाजिक विभाजन और स्थानीय सरकार के पास कम संसाधन हैं।
सूक्ष्म स्तर पर सुधार के विपरीत भारत की वृहद नीतिगत क्षमताएं चिंता पैदा कर रही हैं। आजादी के बाद से ही भारत की अफसरशाही में निहित क्षमताओं के अलावा उसकी नीति निर्माण की क्षमता सराहनीय रही है। साथ ही कार्यक्रमों को लागू करने में अगली पंक्ति के अधिकारियों की गंभीर कमजोरियों पर चिंता जताई जारी रही है। मगर यह पैटर्न अब बिल्कुल बदल चुका है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के आर्थिक विज्ञान विभाग की प्रोफेसर सोहिनी साहू ने कहा, ‘वास्तव में जो बात मायने रखती है वह है शासन की गुणवत्ता। वह संस्थाओं की प्रकृति से जुड़ी हुई है।’ उन्होंने कहा कि सरकार की प्रभावकारिता निर्धारित करने में कर्मचारियों की संख्या एवं खर्च जैसे व्यापक संकेतकों के मुकाबले संस्थान एक प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं।