देश भर में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत काम की मांग इस साल अगस्त में काफी कम रही। आंकड़ों से पता चलता है कि अगस्त में लगभग 1.60 करोड़ लोगों ने इस योजना के तहत काम मांगा, जो अक्टूबर 2022 के बाद से मासिक आधार पर सबसे कम है। हालांकि यह कोविड महामारी से पहले के मासिक औसत से अधिक है। इससे संकेत मिलता है कि ग्रामीण रोजगार बाजार में सुधार हुआ है।
मॉनसून की अच्छी बारिश और खरीफ बोआई गतिविधियां बढ़ने के कारण भी स्थानीय स्तर पर काम की मांग में गिरावट दर्ज की गई है, क्योंकि सक्रिय मॉनूसन के कारण लोगों को कृषि संबंधी कार्यों में रोजगार मिलने की अधिक संभावना रहती है।
कई विशेषज्ञ मनरेगा को संकटकालीन रोजगार योजना भी कहते हैं, क्योंकि जब कहीं भी काम नहीं मिलता तो व्यक्ति की अकेली आस मनरेगा से लगी होती है, जहां उसे आसानी से रोजगार मिल जाता है। इसलिए इस योजना के तहत काम की मांग में गिरावट इस बात का संकेत है कि लोगों को अन्य व्यवसायों में काम मिल रहा है और वे कम पारिश्रमिक वाले अस्थायी रोजगार पर अधिक निर्भर नहीं हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि पूरे वित्त वर्ष 2024 में मनरेगा के तहत काम मांगने वालों की संख्या हर महीने घटती गई है।
दूसरी ओर, सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं और जमीनी स्तर पर काम करने वाले लोगों का मानना है कि काम की मांग में यह कमी कृत्रिम है, क्योंकि इस योजना के लिए फंड की भारी किल्लत हो गई है। इसका मतलब यह है कि जब मजदूरी मिलने में देर हो या फंड वास्तविक लाभार्थियों तक समय पर नहीं पहुंच पाता हो तो ऐसे कार्यक्रमों के प्रति लोगों का मोह भंग होने लगता है और वे विकल्प तलाश लेते हैं।
यह भी आरोप लगते रहे हैं कि पंचायत स्तर पर वास्तविक मांग के अनुसार काम नहीं दिया जा रहा, क्योंकि संबंधित अधिकारी नहीं चाहते हैं कि खर्च बजटीय प्रावधान से अधिक हो। आधार आधारित हाजिरी, भुगतान के लिए बैंक खाते का आधार से जोड़ना अनिवार्य कर देना, कार्यस्थल की जीपीएस से निगरानी जैसी व्यवस्था किए जाने के कारण भी कामगार इस योजना से मुंह मोड़ रहे हैं।
लिब टेक इंडिया के शोध से पता चला है कि वित्त वर्ष 2021 में जब कोविड महामारी चरम पर थी तो उस समय मनरेगा के तहत काम की मांग बहुत अधिक थी, क्योंकि उस समय बड़ी संख्या में मजदूर वर्ग शहरों से अपने गांव लौटा था, जिसे फौरी तौर पर काम की जरूरत थी।
वित्त वर्ष 2023 में बड़ी संख्या में श्रमिकों को मनरेगा से हटाया गया, क्योंकि ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा के तहत काम का भुगतान करने के लिए आधार अनिवार्य कर दिया था और धिकारियों को आधार-जॉब कार्ड जोड़ने का लक्ष्य हासिल करना था। लिबटेक के अनुसार उस समय कुल पंजीकृत कामगारों में से लगभग 19फीसदी को हटाया गया और 4.55 फीसदी नए श्रमिक जोड़े गए।
मनरेगा के तहत काम की मांग में गिरावट का एक बड़ा कारण यह भी है कि पश्चिम बंगाल से एक से डेढ़ करोड़ नियमित कामगारों की गणना नहीं की गई। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले दो वर्षों में काम की मांग में बंगाल के श्रमिकों की संख्या शामिल नहीं है, क्योंकि राज्य ने कोई धनराशि जारी नहीं की है।
संसद में जुलाई 2022 में एक सवाल के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कहा था कि मनरेगा की धारा 27 के अनुसार जारी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करने के कारण पश्चिम बंगाल के लिए इस योजना के तहत धनराशि जारी नहीं की गई है। उस समय मनरेगा मजदूरी के तहत लंबित देनदारी लगभग 2,605 करोड़ रुपये थी।
पश्चिम बंगाल में मनरेगा कामगारों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली पश्चिम बंगा खेत मजदूर समिति ने कहा कि मजदूरी नहीं देना एक से डेढ़ करोड़ श्रमिकों के साथ आपराधिक कृत्य है। यदि बंगाल के श्रमिकों को भी सूची में शामिल किया जाए तो मनरेगा के तहत काम की मांग की वास्तविक तस्वीर सामने आएगी।
कुछ महीने पहले संसद पटल पर रखी गई आर्थिक समीक्षा 2024की रिपोर्ट मनरेगा के तहत काम की मांग और ग्रामीण संकट की स्थिति को उजागर करती है। यह रिपोर्ट इस बात पर सवाल उठाती है कि गरीबी और अधिक बेरोजगारी दर वाले राज्य मनरेगा के फंड का अधिक इस्तेमाल करते हैं और व्यक्ति-दिवस रोजगार भी अधिक पैदा करते हैं।
वित्त वर्ष 2024 का हवाला देते हुए सर्वे में कहा गया है कि तमिलनाडु में देश की 1 प्रतिशत से भी कम आबादी गरीब है, लेकिन उसने मनरेगा निधि का लगभग 15 प्रतिशत इस्तेमाल किया। इसी प्रकार केरल में 0.1 प्रतिशत ही गरीब लोग हैं, जबकि उसने मनरेगा निधि का लगभग 4 प्रतिशत खर्च किया।
इसके उलट बिहार और उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत (क्रमश: 20% और 25%) गरीब आबादी है। इन दोनों राज्यों ने मनरेगा निधि का केवल 17 प्रतिशत (क्रमश: 6% और 11%) का ही इस्तेमाल किया।
इसके अतिरिक्त समीक्षा में इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि जब राज्य वार बहुआयामी गरीबी सूचकांक और सृजित व्यक्ति-दिवस रोजगार में संबंध को देखते हैं तो मनरेगा निधि का उपयोग और रोजगार पैदा होने की स्थिति गरीबी के स्तर से मेल नहीं खाती।
लिब टेक इंडिया में वरिष्ठ शोधकर्ता चक्रधर बुद्ध ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि मनरेगा के तहत काम की मांग में कमी आने के कई कारण हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि केंद्र सरकार इस योजना के तहत काम की राशनिंग करना चाहती है। उन्होंने कहा कि ऐसा अनुमान लगाया गया था कि घरेलू कर्ज बढ़ने के साथ मनरेगा के तहत काम की मांग में वृद्धि होगी, लेकिन आंकड़े इसके उलट कहानी कहते हैं।