रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और पूर्व वित्त सचिव दुवुरी सुब्बाराव के संस्मरणों की पुस्तक ‘जस्ट अ मर्सिनरी? नोट्स फ्रॉम माइ लाइफ ऐंड करियर’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। बिज़नेस स्टैंडर्ड के पत्रकारों के साथ बातचीत में उन्होंने राजकोषीय चिंताओं, मुफ्त उपहारों, कृषि ऋण माफी, 2जी घोटाले और मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने समेत तमाम विषयों पर बात की। मुख्य अंश:
आपकी पुस्तक में उल्लेख है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2021-22 के बजट में राजकोषीय विस्तार की नीतियां अपनाईं। आपने कहा कि ऐसी नीतियां विकसित देशों में मंदी के दौरान कारगर हो सकती हैं लेकिन भारत जैसे उभरते बाजार में नहीं। आप ऐसा क्यों सोचते हैं?
मैंने यह बात यूरो क्षेत्र के सॉवरिन ऋण संकट के संदर्भ में कही थी जो वैश्विक वित्तीय संकट के तुरंत बाद आया था। शुरुआत में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने राजकोषीय मितव्ययिता अपनाई। तमाम अन्य जगहों की तरह उन्होंने पूर्वी एशिया पर जो थोपा, वही बात यूरोप में कही और फिर पाया कि अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव, सकारात्मक से अधिक है।
उन्होंने पाया कि राजकोषीय गुणक अनुमान से अधिक थे। आईएमएफ ने कम से कम उस समय माना कि उससे गलती हुई है। इसलिए शायद मितव्ययिता की सलाह उचित नहीं। नोबेल विजेता जोसेफ स्टिगलिट्ज भी लंबे समय से ऐसा कह रहे हैं। हमारे तत्कालीन वित्त मंत्री ने पाया कि राजकोषीय संकुचन सही नहीं होगा। जहां तक मौजूदा वित्त मंत्री की बात है तो उन्होंने शिथिल राजकोषीय समेकन अपनाया और 2025-26 तक 4.5 फीसदी के राजकोषीय घाटे की लंबी अवधि तय की। यह अनुमान से अधिक शिथिलता थी लेकिन वह कामयाब रहीं और इसका श्रेय उन्हें जाता है।
क्या कर्ज का ऊंचा स्तर आपको चिंतित करता है?
यकीनन। मुझे लगता है कि केंद्र और राज्य सरकारों के कर्ज को मिलाकर देखें तो अभी उसका स्तर ऊंचा है। कोविड के दौरान वह 90 फीसदी तक पहुंचा था और अब कुछ कम है। परंतु राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समिति का कहना है कि भारत में कर-जीडीपी अनुपात 60 फीसदी तक होना चाहिए। केंद्र के लिए 40 फीसदी और राज्यों के लिए 20 फीसदी। हम इससे बहुत दूर हैं। कुछ लोग कहेंगे कि हमें 60 फीसदी पर अड़ना नहीं चाहिए। मैं उनसे सहमत हूं।
आपने कहा कि भारत जैसे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को रेटिंग एजेंसियों की ग्रेड्स को लेकर उदासीन नहीं होना चाहिए। बहरहाल, वित्त मंत्री ने हाल ही में एक रिपोर्ट का हवाला दिया कि उभरते बाजारों की रेटिंग का इन एजेंसियों का तरीका खामी भरा है।
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क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को हमेशा चुनौती दी जा सकती है। आप उनसे कह सकते हैं कि वे निष्पक्ष आंकड़ों के आधार पर आकलन की समीक्षा करें। अमेरिका और चीन समेत दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जो कहे कि हमें इन एजेंसियों की रेटिंग से फर्क नहीं पड़ता। रेटिंग मायने रखती हैं, खासतौर पर उभरते बाजार वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए।
मौजूदा समय की बात करें तो क्या आपको लगता है कि रिजर्व बैंक अधोसंरचना परियोजनाओं के लिए 5 फीसदी प्रोविजनिंग की बात करते हुए कुछ ज्यादा ही सतर्क है? बाजारों को यह सुझाव रास नहीं आया है।
यह संभव है कि संस्थान इसे लेकर उत्तेजित हों क्योंकि उन्हें अपना मुनाफा देखना है, अपनी बैलेंस शीट देखनी है। परंतु रिजर्व बैंक व्यापक अर्थव्यवस्था को देख रहा है। वह शायद बड़ी तस्वीर देख रहा है कि भविष्य की दिक्कतों से बचने के लिए यह कीमत चुकाई जा सकती है। हम एक दशक तक फंसे हुए कर्ज की समस्या से जूझते रहे। वह भी अनुचित मानकों की वजह से पैदा हुई थी।
सब जानते हैं कि राजग सरकार के आगमन में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की अहम भूमिका थी। आपने अपनी पुस्तक में 2जी लाइसेंसिंग नीतियों के औचित्य को समझाने के लिए एक उदाहरण का हवाला दिया है।
क्या आपको लगता है कि प्रमुख मंत्रालयों के वरिष्ठ अफसरशाह वाकई इस बात से चिंतित रहते हैं कि अगर उनके किसी निर्णय से राजस्व हानि हुई तो बाद में सीबीआई या ईडी उन पर मामला चला सकती है?
मैं वर्तमान अफसरशाही की चिंताओं को लेकर टिप्पणी नहीं कर सकता हूं लेकिन मैं उन्हें समझ सकता हूं। मैं 35 वर्षों तक आईएएस अधिकारी रहा। अफसरशाहों की यह चिंता बढ़ी है कि उनके मुताबिक जनहित में लिए जाने वाले निर्णय बाद में उन पर भारी पड़ सकते हैं।
दूसरी ओर कुछ भी नकारात्मक नहीं करने पर कोई दंड नहीं है। ऐसे में बच-बचकर चलना केवल आईएएस अधिकारियों की नहीं बल्कि सहज मानवीय प्रवृत्ति है। परंतु यह देश के हित में नहीं है।
आपने उस अनुमानित नुकसान के बारे में लिखा है जिसकी गणना नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने 2जी स्पेक्ट्रम को लेकर की। क्या आपको लगता है कि अगर सीएजी अनुमानित नुकसान पर नहीं अड़ता तो राजनीतिक इतिहास कुछ अलग होता?
वास्तविक जीवन में प्रतितथ्यात्मक बातें यानी क्या हो सकता था, ऐसी बातें हमेशा कठिन होती हैं। पहले राष्ट्रमंडल घोटाले का मामला उठा, उसके बाद कोयला घोटाला और फिर सर्वोच्च न्यायालय ने गोवा में खनन रोका। ऐसे में मैं तो यही अनुमान लगाऊंगा कि राजनीतिक घटनाक्रम अलग हो सकता था।
आपने मुफ्त उपहारों तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘रेवड़ी संस्कृति’ वाली टिप्पणी की बात की। मुफ्त उपहारों और समाज कल्याण के उपायों के बीच बहुत कम अंतर है। आप इन्हें कैसे बांटेंगे। मसलन केंद्र की मुफ्त खाद्यान्न योजना और दिल्ली सरकार के ‘मोहल्ला क्लिनिक’ या फिर सरकारी स्कूलों में सुधार को दोनों में से किस श्रेणी में रखेंगे?
मुझे लगा था कि ‘रेवड़ी’ संस्कृति पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी स्वागतयोग्य है। परंतु मुझे इस बात से निराशा हुई कि प्रधानमंत्री ने उस पर अमल नहीं किया। भाजपा समेत सभी राजनीतिक दल इसके दोषी हैं। कुछ दूसरों से अधिक दोषी हैं। भाजपा ने 2017 में उत्तर प्रदेश में कृषि ऋण माफी की। अब मोदी की गारंटियां, कांग्रेस की ‘न्याय’ योजना सामने है। मेरे गृह राज्य आंध्र प्रदेश में साथ सत्ता पक्ष और विपक्ष में मुफ्त उपहारों की होड़ लगी है। कोई नहीं पूछ रहा है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा? मैं इसे लेकर असहज हूं। यह सब टिकाऊ नहीं है और इसे लेकर जागरूकता का सख्त अभाव है।
आपने अपनी किताब में कृषि ऋण माफी के नुकसान की बात की है। परंतु आपने नाबार्ड के एक अध्ययन का भी जिक्र किया है जो कहता है कि सन 1987 में हरियाणा में देवीलाल की सरकार की घोषणा के बाद से अब तक कृषि ऋण माफी की घोषणा करने वाले केवल चार राजनीतिक दल चुनाव हारे हैं। ऐसे में कोई राजनीतिक दल इससे क्यों बचेगा?
आपने मैनकर ओल्सॉन की पुस्तक ‘लॉजिक ऑफ कलेक्टिव एक्शन: पब्लिक गुड्स ऐंड द थियरी ऑफ ग्रुप्स’ अवश्य पढ़ी होगी। हम हमेशा सोचते हैं कि कृषि माफी सरकार और किसानों के बीच का मामला है और यह हमें नहीं प्रभावित करता। परंतु यह हम पर असर डालता है। भले ही मैं सुदूर आंध्र प्रदेश या केरल में रहूं, या पूर्वोत्तर के मणिपुर में लेकिन उत्तर भारत में होने वाली कृषि ऋण माफी मुझे प्रभावित करती है। किसानों का एक हित समूह है और वह एकजुट हो सकते हैं। परंतु इससे प्रभावित होने वाली व्यापक आबादी के बारे में कोई बात नहीं करता। व्यापक आबादी को संगठित करना बड़ा काम है। यह कभी नहीं होता।
मुद्रास्फीति को लक्षित करने पर आपका क्या विचार है। खासतौर पर दो बातों को लेकर- क्या इससे संचार आसान होता है और क्या सरकार पर से दबाव कम होता है?
मुद्रास्फीति को लक्षित करने को लेकर मेरी कुछ शंकाएं थीं लेकिन अब कई वजहों से वे दूर हो चुकी हैं। मुद्रास्फीति को लक्षित करने को लेकर मेरी सबसे बड़ी आशंका यह थी कि मुद्रास्फीति आपूर्ति के झटकों से उत्पन्न होती है। उस स्थिति में मौद्रिक नीति सही उपाय नहीं है। अगर मुद्रास्फीति का लक्ष्य हो फिर भी शायद केंद्रीय बैंक उसे मौद्रिक नीति की मदद से कम नहीं कर पाए। यह बात केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता पर असर डालेगी। परंतु समय के साथ हमने पाया कि मुद्रास्फीति आपूर्ति के झटकों की प्रतिरोधी है और इसलिए मौद्रिक नीति इसमें कारगर होगी।
अगर सरकार राजकोषीय समेकन के लक्ष्य पर न टिके तो मौद्रिक नीति का संचालन कितना मुश्किल होता है?
यह मुश्किल होता है क्योंकि सार्वजनिक नीति में विश्वसनीयता अहम है। खासतौर पर केंद्रीय बैंक के मुद्रास्फीति प्रबंधन के मामले में। अगर राजकोषीय शिथिलता मुद्रास्फीति को प्रभावित कर रही हो तो यह मौद्रिक नीति के लिए दिक्कत की बात है।