एक दिन पहले छूट के बाद फार्मा क्षेत्र को झटका लगा है। इसकी वजह अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का वह बयान है जिसमें उन्होंने ऐसे टैरिफ लगाने की बात कही है जो पहले कभी नहीं लगे। भारी शुल्क के जोखिम ने निफ्टी फार्मा इंडेक्स को 4 फीसदी गिरा दिया। निफ्टी सेक्टोरल इंडेक्स में दूसरा सबसे बड़ा नुकसान उठाने वाला यही क्षेत्र रहा। निफ्टी फार्मा के चार शेयरों में से लॉरस लैबोरेटरीज, इप्का लैब्स, अरबिंदो फार्मा और ग्रैन्यूल्स इंडिया में शुक्रवार को 6 से 7 फीसदी तक की गिरावट आई।
बाजार पूंजीकरण के हिसाब से सबसे बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों में सन फार्मास्युटिकल इंडस्ट्रीज, अरबिंदो फार्मा, जायडस लाइफसाइंसेज, डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज और ल्यूपिन की अमेरिकी बाजार में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी है जो 30 से 50 फीसदी के बीच है। ब्रोकरेज का मानना है कि अगर 26 फीसदी टैरिफ लगाया जाता है तो फॉर्मूलेशन क्षेत्र में अरबिंदो फार्मा और बायोसिमिलर क्षेत्र में बायोकॉन के परिचालन लाभ पर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। उनके परिचालन लाभ में करीब 45-50 फीसदी हिस्सेदारी अमेरिका की है।
एचडीएफसी सिक्योरिटीज के मेहुल शेठ और दिव्याक्षा अग्निहोत्री का मानना है कि अगर भारतीय दवा कंपनियां 26 प्रतिशत टैरिफ का बोझ उठाती हैं तो वित्त वर्ष 27 में उनके परिचालन लाभ पर इसका असर 3 से 45 फीसदी तक होगा। अगर दवा कंपनियां आधे असर को वहन करती हैं और बाकी का बोझ वितरकों/बाजार पर डालती हैं तो इसका असर 2 से 22 फीसदी रहने का अनुमान है। अगर कुल लागत का एक तिहाई हिस्सा कंपनियां उठाती हैं तो इसका असर कम यानी 1 से 16 फीसदी होगा।
अगर भारतीय कंपनियां उपभोक्ता पर लागत का बोझ डालती हैं तो इससे उस बाजार में दवाओं की कीमत बढ़ सकती है और भारतीय कंपनियों को अपनी दवा बास्केट को तर्कसंगत बनाने और कम मार्जिन वाली दवाओं को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। अगर टैरिफ वैश्विक प्रकृति के हैं तो भारतीय कंपनियां प्रतिस्पर्धी बनी रहेंगी।
सन फार्मा जैसी कंपनियां (जिनके पास एक महत्वपूर्ण स्पेशियलिटी पोर्टफोलियो है) अमेरिकी बाजार में भारतीय प्रतिस्पर्धियों की तुलना में कम प्रभावित हो सकती हैं क्योंकि विशिष्ट क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा कम है। सन फार्मा को अमेरिका में करीब 55 से 57 फीसदी राजस्व स्पेशियलिटी दवाओं से मिलता है। इसके अलावा भारत और अन्य बाजारों से मिलने वाले ज्यादा मुनाफे से कंपनी पर सीमित असर होगा।
कोटक रिसर्च के अलंकार गरुड़ की अगुआई में विश्लेषकों का मानना है कि अगर टैरिफ वापस नहीं लिए गए तो फार्मा कंपनियों को अपने अमेरिकी पोर्टफोलियो को कम करने (कुछ मामलों में पूरी तरह से बाहर निकलने) के लिए मजबूर होना पड़ेगाष ऐसा तब हो सकता है जब ज्यादा लागत का बोझ डालने जैसे तरीकों से भी बात नहीं बनेगी। को आजमा चुकी हैं। हालांकि उन्हें लगता है कि फार्मा वितरकों और उपभोक्ताओं को भी टैरिफ का बोझ उठाना पड़ेगा।
लागत को वितरकों और उपभोक्ताओं पर डालने के अलावा फार्मा कंपनियां घरेलू बाज़ार के साथ-साथ दुनिया के बाकी हिस्सों पर भी ध्यान दे सकती हैं। लेकिन अन्य वैश्विक बाजारों और भारत में आक्रामकता दिखाने पर कीमतों की लड़ाई छिड़ सकती है जिससे उनके मार्जिन पर और अधिक बोझ आ सकता है।
टैरिफ प्रभाव कम करने के लिए अन्य उपाय मसलन अमेरिका में विनिर्माण आधार स्थापित करना होगा। अभी पीरामल फार्मा, सिप्ला, सन फार्मा, ल्यूपिन और अरबिंदो फार्मा के अमेरिका में दो या अधिक संयंत्र हैं। हालांकि कुल बिक्री में उनका योगदान मध्यम से निम्न एकल अंक में है। ब्रोकरेज का मानना है कि नया संयंत्र बनाने की लागत, निर्माण अवधि और नियामकीय अनुपालनों को देखते हुए उस पर उतना फायदा नहीं मिलेगा।
नोमूरा रिसर्च के सायन मुखर्जी की अगुआई में विश्लेषकों का मानना है कि ज्यादा टैरिफ की स्थिति में भी कंपनियों के अपनी अमेरिकी क्षमताओं में महत्वपूर्ण निवेश करने की संभावना नहीं है। इसकी वजह कम आर्थिक व्यवहार्यता और लंबी अवधि में टैरिफ नीति पर अनिश्चितता है। अमेरिका में नया संयंत्र लगाने और नियामक की मंजूरी लेने में कम से कम तीन साल लगते हैं। ब्रोकरेज का कहना है कि लंबी समयसीमा कंपनियों को अमेरिका में निवेश करने से रोक सकती है।
अमेरिकी बाजार से जुड़ी अनिश्चितता को देखते हुए ब्रोकरेज फर्मों का सुझाव है कि निवेशक घरेलू केंद्रित कंपनियों जैसे टॉरेंट फार्मास्युटिकल्स, मैनकाइंड फार्मा, एरिस लाइफसाइंसेज और जेबी केमिकल्स ऐंड फार्मास्युटिकल्स में ही निवेश करें।