जगुआर और लैंड रोवर के अधिग्रहण पर टाटा की पीठ तो ठोंकी ही जा रही है, भारतीय कॉर्पोरेट ताकत के गुण भी गाए जा रहे हैं। तकरीबन 9,200 करोड़ रुपये के इस सौदे की चर्चा भी लाजिमी है।
लेकिन अगर ऐसे एक-दो सौदों को छोड़ दें, तो विदेशों में विलय-अधिग्रहण की भारतीय गाड़ी इस बार रफ्तार नहीं भर पाई है।इस साल अभी तक भारतीय कंपनियों ने कुल 19,600 करोड़ रुपये के विलय और अधिग्रहण सौदे किए हैं। इसमें तकरीबन आधा हिस्सा तो जगुआर-लैंड रोवर सौदे का ही है। पिछले साल के शुरुआती ढाई महीने की बात करें, तो यह आंकड़ा बेहद कम है। पिछले साल इसी अवधि में भारतीय कंपनियों ने तकरीबन 31,200 करोड़ रुपये के सौदे कर लिए थे।
थॉमसन फाइनैंशियल के आंकड़ों के मुताबिक दोतरफा सौदों में तो हालत और भी खराब रही है। विदेशों में भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण सौदे और विदेशी कंपनियों के हाथों यहां की कंपनियों के अधिग्रहण में लगभग 34,360 करोड़ रुपये के सौदे हुए हैं। पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले यह आंकड़ा तकरीबन 70.2 फीसदी कम है। पिछली बार यह आंकड़ा 117,200 करोड़ रुपये के करीब था।
इसके पीछे शेयर बाजार की उठापटक भी बड़ी वजह रही है। अमेरिकी सब प्राइम संकट ने भी अहम भूमिका निभाई है। इसी वजह से कई भारतीय कंपनियों की पूंजी कम हो गई और उनके सौदों पर भी फर्क पड़ा। कई विदेशी कंपनियां भी इसी वजह से भारत में अधिग्रहण या विलय करने से हिचकिचा गईं।
जगुआर और टाटा मोटर्स का सौदा बेशक इस साल का सबसे बड़ा अधिग्रहण सौदा रहा। देशी कंपनियों के सौदों की बात करें, तो यह चौथे नंबर पर आता है। टाटा समूह की दूसरी कंपनी टाटा केमिकल्स लिमिटेड इस मामले में 2008 में दूसरे नंबर पर रही है। यह कंपनी अमेरिकी सोडा एश निर्माता कंपनी जनरल केमिकल इंडस्ट्रियल में स्टेक खरीद रही है। इस सौदे में तकरीबन 4,000 करोड़ रुपये खर्च?किए जा रहे हैं।
भारतीय कंपनियों ने विदेशी कंपनियों े साथ इस साल जो 4 अन्य प्रमुख सौदे किए हैं, उनमें नॉर्वे की जेबी उगलैंड शिपिंग एएस का अधिग्रहण शामिल है। उसका अधिग्रहण शिवा वेंचर्स ने 1,209 करोड़ रुपये में किया है। इंडियाबुल्स रियल एस्टेट, सोना कोयो और इंडिया वैल्यू फंड का भी नाम इस फेहरिस्त में शामिल है। लेकिन उनको छोड़ दिया जाए, तो भारतीय कंपनियां विलय-अधिग्रहण से परहेज कर रही हैं।