असिफमा के इक्विटी प्रमुख लिंडन चाओ ने ऐश्ली कुटिन्हो के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि बाजार को टी+1 क्रियान्वयन के लिए निपटान प्रक्रियाओं के संदर्भ में महत्वपूर्ण, समन्वित, और महंगे ढांचागत बदलावों की जरूरत होगी। उनका कहना है कि चीन का इक्विटी सेटलमेंट मॉडल ऐसा नहीं है जिस पर भारत को अनुकरण करना चाहिए। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश:
भारतीय नियामक वर्ष 2020 में टी+1 निपटान चक्र पर अमल करने को उत्साहित दिख रहा है। क्या यह उचित है?
टी+1 प्रक्रिया अपनाने के लिए बाजार को निपटान प्रक्रियाओं में बड़े बदलाव लाने की जरूरत होगी, जिनमें तकनीकी उन्नयन और रियल-टाइम/नियर रियल-टाइम ट्रेड प्रोसेसिंग मुख्य रूप से शामिल हैं। इस सबसे सेटलमेंट चक्र को संक्षिप्त बनाने के लाभ में विलंब होगा। यह उम्मीद करना अवास्तविक है कि वैश्विक निवेशक 2022 की सेबी की समय-सीमा पूरी करने में आसानी हो सकती है।
इसकी वजह से विदेशी निवेशकों को किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है?
वैश्विक निवेशक विभिन्न समय वाले क्षेत्रों से हो सकते हैं। स्थानीय कस्टोडियन को निवेशकों की ओर से निपटान निर्देश जारी करने से पहले वैश्विक कस्टोडियन से अधिकार हासिल करने की जरूरत होती है, जो अपने ब्रोकरों से व्यापार की पुष्टि के बाद फंड प्रबंधकों से पुष्टिï का इंतजार करते हैं। मौजूदा टी+2 निपटान चक्र के तहत भी, विभिन्न पक्षों और सभी टाइम जोन के बीच तालमेल बनाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, खासकर तब, जब व्यापार असमानता हो। टी+1 भी काफी चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया होगी। टी+1 के लिए निपटान चक्र में बदलाव लाने की दिशा में यह जरूरी होगा कि कारोबार की तारीख पर सौदे की पुष्टिï के लिए स्थानीय कस्टोडियन के लिए टी डे या टी-1 पर एफएक्स बुक करने की जरूरत होगी।
भारत की तरह, अमेरिका भी टी+1 निपटान चक्र की ओर बढ़ रहा है। वह इससे संबंधित बदलाव की तैयारी कैसे कर रहा है? अमेरिका के मुकाबले इस संबंध में भारत की स्थिति कितनी अलग है?
कई वैश्विक निवेशक अमेरिका में रहते हैं और अमेरिकी एक्सचेंजों पर अमेरिकी टाइम जोन में कारोबार करते हैं। बहुत कम निवेशक ऐसे हैं जिन्हें अमेरिकी समय और भौगोलिक स्थिति की जटिलताओं का प्रबंधन करने की जरूरत होती है। अमेरिकी बाजार ओमनीबस लेवल पर परिचालन करता है, जिससे ब्रोकरों को निपटान संबंधित विफलताओं के प्रभाव कम करने के लिए वैकल्पिक आधार पर सभी ग्राहकों के पोजीशन प्रबंधित करने की स्वायत्तता मिलती है। फिर भी, उद्योग टी+1 के संबंध में रूपरेखा तैयार करने के लिए बाजार केंद्रित चर्चाओं पर जोर दे रहा है। शुरुआती अनुमानों से संकेत मिलता है कि यह सालों भर चलने वाली कोशिश होगी जिसे बेहद सावधानीपूर्वक प्रबंधित करने की जरूरत होगी, जिससे कि अनपेक्षित परिणामों को कम किया जा सके। दूसरी तरफ, वैश्विक निवेशकों का भारत के बाजार पूंजीकरण में 20 प्रतिशत से ज्यादा योगदान है, लेकिन इनमें से ज्यादातर अमेरिका और यूरोप में स्थित हैं, जो भारतीय समय के दायरे से अलग हैं। यदि एफपीआई को भारत में टी+1 निपटान चक्र के संदर्भ में जरूरी प्रणालियों और परिचालन संबंधित बदलावों के प्रति ढलने में चुनौती का सामना करना पड़ता है तो वे अपना निवेश बेहतर प्रदर्शन वाले अन्य बाजारों में ले जाने का विकल्प चुन सकते हैं।