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वायदा बाजार के तोते को मार दिया जाए या…

Last Updated- December 06, 2022 | 12:01 AM IST

वायदा बाजार को लेकर हाय-तौबा इन दिनों जोरों पर है। मानों यह मुआ वायदा बाजार नाम का ही तोता है, जिसमें देश में इन दिनों उत्पात मचा रही महंगाई नाम की राक्षसी की जान है।


एक बड़ा तबका ऐसे लोगों का भी है, जो कह रहा है कि वायदा बाजार की जान लेने की कोशिश नाहक ही की जा रही है। दोनों खेमों की यही धींगा-मुश्ती अभिजीत सेन कमेटी में भी देखने को मिल रही है, जिसको सरकार ने यह जिम्मेदारी सौंपी थी कि पता लगाए कि वायदा बाजार का दामन इस आरोप से दागदार है या उजला। 


बहरहाल, रिपोर्ट कुछ भी कहे लेकिन वाकई यह लाख टके का सवाल है कि महंगाई नाम की इस राक्षसी की जान आखिर किस तोते में है? जिसे मारने के बाद ही न सिर्फ सरकारी फौज बल्कि आम आदमी और व्यापारी वर्ग भी चैन की सांस ले सके। एक बड़ा तबका, जिसमें राजनीतिक दलों की एक बड़ी तादाद है, एक ही सुर में बस यही राग अलापे जा रहा है कि वायदा बाजार की आड़ में व्यापारी वर्ग ही गंदा खेल कर रहा है।


ताकि इन वस्तुओं की कीमतें बढ़ती जाएं और उसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हो सके। दूसरी ओर, एक जमात चिल्ला-चिल्ला कर बार-बार बस यही सवाल उठा रही है कि खुले बाजार की नीति में इस तरह की पाबंदियों का आखिर तुक क्या है?


मिसाल के तौर पर अगर दूध की कीमतों में आग लगी है तो सरकार बजाय इसका उत्पादन बढ़ाने के पुख्ता इंतजाम करने के इसके निर्यात पर या इस पर किसी और तरह की पाबंदी आयद कर दे तो कहां की अक्लमंदी है? इसके निर्यात पर पाबंदी लगने के बाद जब कीमतें गिरने लगेंगी तो नुकसान की भरपाई और घरेलू बाजार की मांग पूरी हो जाने की स्थिति में बचा हुआ दूध बेचने दूध उत्पादक कहां जाएंगे? कुल मिलाकर ठीकरा तो दूध उत्पादकों और व्यापारियों के सिर पर ही तो फूटेगा।


इस तरह की दलीलें देने वाली यही जमात वायदा बाजार को लेकर भी कमोबेश यही बात कह रही है। इसका कहना है कि वायदा बाजार से महंगाई बढ़ रही है या नहीं, यह सवाल तो दीगर है पर सरकार तस्वीर का दूसरा रुख दरकिनार रही है। यह वायदा बाजार ही है, जो किसानों की उपज को कीमतों के उतार-चढ़ाव के भारी जोखिम से बचाता है।


अब अगर ये आरोप लगाया जाए कि किसानों की इस बेहतरी की आड़ में व्यापारी तबका खुद मलाई काटने के लिए वायदा बाजार के जरिए कीमतें बढ़ा रहा है तो फिर आलू-प्याज-टमाटर के दामों में इतनी तेजी क्यों आई? इनका कारोबार तो वायदा बाजार में नहीं होता? और इसके बावजूद अगर सरकार या किसी और को उन पर इतनी ही शंका है तो बजाय इस बाजार को नेस्तनाबूद करने के, किसी स्वतंत्र संस्था को इस बाजार की चौकस निगहबानी के लिए क्यों नही लगा दिया जाता?


वैसे उनकी इस दलील में कुछ दम तो नजर आता है। क्योंकि तकरीबन एक साल पहले जब महंगाई दर उस वक्त के दो साल के सर्वोच्च स्तर यानी 6.1 फीसदी पर थी तो सरकार की कोपदृष्टि सबसे पहले वायदा बाजार पर ही पड़ी थी। उस वक्त तूर, उड़द, चावल और गेहूं के वायदा कारोबार पर पाबंदी लगा दी गई थी। इतना अरसा बीतने अब कोई भलामानुष सरकार से यह तो पूछे कि इनकी कीमतों में आग कौन लगा रहा है।


जवाब के लिए इस बात पर माथा-पच्ची करने की फुर्सत सरकार के पास कहां है कि आखिर क्या कारण है कि चाहे वह वायदा बाजार में कारोबार की जा रही वस्तुएं हों या फिर इससे बाहर की, कमोबेश हर किसी का उत्पादन या तो स्थिर है या फिर घटता ही जा रहा है जबकि आबादी कहां से कहां पहुंच चुकी है।


बहरहाल, जवाब ढूंढने की इस कवायद में मूल विषय से भटकने की बजाय इतना तो साफ है कि वायदा बाजार तो कम से कम उपरोक्त चार वस्तुओं की कीमतें बढ़ने का दोषी नहीं है। इसी तरह बाकी वस्तुओं की जड़ में भी कुछ ऐसे ही कारक हो सकते हैं।


यही वजहें हैं, जिसके चलते व्यापार गोष्ठी का मंच देकर बिज़नेस स्टैंडर्ड ने इस बार वायदा बाजार को लेकर चल रही धींगामुश्ती को गंभीर विचार-विमर्श में बदलने की कोशिश की। उम्मीद के मुताबिक, देशभर के हमारे पाठकों ने इसमें बढ़-चढ़कर शिरकत की।


चाहे वह व्यापारी हों, बुध्दिजीवी या फिर आम शख्स, हर किसी ने इस ज्वलंत सवाल को लेकर अपनी-अपनी दलीलें दीं। इनके साथ-साथ दो विशेषज्ञों को भी हमने इस बहस में आमंत्रित किया। इस सारी कवायद के बाद दूध का दूध और पानी का पानी करने की हमारी कोशिश कितनी रंग लाई, इसका फैसला तो आप को ही करना है।

First Published - April 28, 2008 | 12:19 PM IST

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