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अतार्किक विकल्प: भारत से क्यों गईं विदेशी वित्तीय कंपनियां?

करीब 30 वर्ष बाद मार्च 2023 में उसी सिटी बैंक ने अपना खुदरा कारोबार ऐक्सिस बैंक को बेच दिया और वह भारत के खुदरा बैंकिंग कारोबार से बाहर निकल गया।

Last Updated- May 08, 2024 | 9:48 PM IST
Two days before the deadline, one-third companies file financial statements.

सन 1992 के प्रतिभूति घोटाले के बाद कई विदेशी बैंकों ने जो अहंकार से भरी चुटकियां लीं और उत्तर दिए उनमें से एक यह भी था, ‘अगर आप घर का मुख्य द्वार खुला रखेंगे तो आपके घर में चोरी होने की आशंका है।’

यह टिप्पणी सिटी बैंक के एक काउबॉय बैंकर ने की थी। वह विदेशी बैंकों द्वारा एक अपारदर्शी सरकारी प्रतिभूति बाजार में सरकारी बैंकों को धोखा देकर मोटा मुनाफा कमाने को उचित ठहरा रहे थे।

भारतीय ऋण बाजार की छोटी सी दुनिया के बाहर उनका ट्रेजरी संचालन एक प्रकार से गुमनाम था लेकिन सिटी बैंक 1990 के दशक के आरंभ में भी एक प्रमुख खुदरा वित्तीय सेवा ब्रांड था जिसने क्रेडिट कार्ड से लेकर उपभोक्ता ऋण तक खुदरा वित्त की गति निर्धारित की।

आईसीआईसीआई बैंक उस समय तक एक डेवलपमेंट-फाइनैंस संस्थान था, कोटक महिंद्रा बैंक और ऐक्सिस बैंक तब अस्तित्व में ही नहीं थे और सन 1994 में स्थापित हुए एचडीएफसी बैंक का संचालन भी सिटी बैंक से निकले एक व्यक्ति के हाथों में था।

करीब 30 वर्ष बाद मार्च 2023 में उसी सिटी बैंक ने अपना खुदरा कारोबार ऐक्सिस बैंक को बेच दिया और वह भारत के खुदरा बैंकिंग कारोबार से बाहर निकल गया। यह अपनी तरह का इकलौता मामला नहीं था। वर्षों के दौरान भारत में विदेशी बैंकों की मौजूदगी लगभग न के बराबर रह गई है।

देश का सबसे बड़ा विदेशी बैंक स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक है जिसकी 42 शहरों में केवल 100 शाखाएं हैं। एचएसबीसी की केवल 26 शाखाएं हैं। 38 अन्य विदेशी बैंकों की मौजूदगी नगण्य है। अकेले एचडीएफसी बैंक की 8,000 से अधिक शाखाएं हैं। सबसे बड़े वैश्विक बैंक मसलन जेपी मॉर्गन चेज, बैंक ऑफ अमेरिका, मित्सुबिशी यूएफजे और बीएनपी पारिबा आदि या तो भारत में हैं ही नहीं या फिर उनकी उपस्थिति बहुत मामूली है।

भारत के शीर्ष बैंक हैं भारतीय स्टेट बैंक, ऐक्सिस बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, एचडीएफसी बैंक और कोटक महिंद्रा बैंक। म्युचुअल फंड की कहानी भी ऐसी ही है। शीर्ष 20 म्युचुअल फंड में से बहुत कम में विदेशी संयुक्त साझेदार हैं और उनकी भी भूमिका बहुत सीमित है।

अधिकांश फंड पूरी तरह भारतीय स्वामित्व वाले हैं। शीर्ष 10 में इकलौती विदेशी परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी निप्पॉन इंडिया है। सबसे बड़े अमेरिकी म्युचुअल फंड भारत में नहीं हैं। मॉर्गन स्टैनली और फिडेलिटी ने भारत से कारोबार समेट लिया और टेंपलटन वृद्धि के लिए संघर्ष कर रही है।

बीमा क्षेत्र का मामला थोड़ा अलग है जहां कई विदेशी कंपनियां संयुक्त उपक्रम में साझेदार हैं क्योंकि यह कारोबार थोड़ा अलग प्रकृति का है। परंतु इन पर भी भारतीय प्रबंधन का नियंत्रण है। भारतीय जीवन बीमा निगम जो कि भारत सरकार की कंपनी है, वह अभी भी जीवन बीमा कारोबार पर पूरा दबदबा रखती है।

यह सब 1990 के दशक के शुरुआती दिनों से एकदम अलग है जब भारतीय नीति निर्माता सतर्क थे और एक तरफ घरेलू हितों और दूसरी ओर अमेरिकी व्यापारिक प्रतिनिधियों के राजनयिक दबाव के बीच संतुलन साधने का प्रयास कर रहे थे। ऐसा इसलिए ताकि अमेरिकी वित्तीय कंपनियों का भारत में सहज प्रवेश सुनिश्चित किया जा सके।

मीडिया में इस बारे में खूब लिखा गया कि कैसे आकांक्षी भारतीय मध्य वर्ग (उस समय करीब 20 करोड़) जो आर्थिक उदारीकरण से लाभान्वित हो रहा था, उसे खुदरा ऋण, बीमा और म्युचुअल फंड जैसे निवेश उत्पादों की जरूरत पड़ने वाली थी।

भारतीयों को इन्हें बेचने के लिए अमेरिकी कंपनियों से बेहतर कौन होगा जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके उत्पाद बेहतरीन हैं और निवेश में उनकी विशेषज्ञता है। विश्व व्यापार संगठन में कई दौर की वार्ताएं इस विषय पर केंद्रित रहीं कि उभरते बाजारों को विकसित देशों की सेवाओं (पढ़ें वॉल स्ट्रीट) के लिए खोला जाए। वाम रुझान वाले राजनेता और अकादमिक जगत के लोगों ने नवउपनिवेशवाद का डर दिखाया। परंतु हुआ एकदम उलटा।

सन 1993-94 में जब छह निजी म्युचुअल फंड को लाइसेंस दिया गया था तब उनमें से कई में विदेशी साझेदार थे। बाद में और विदेशी म्युचुअल फंड भारत में आए लेकिन उनमें से शायद ही कोई अपने मूल स्वरूप में नजर आया।

पायनियर, ब्लैकरॉक, अलायंस कैपिटल, सन एफऐंडसी, मॉर्गन स्टैनली, जार्डाइन फ्लेमिंग, जेपी मॉर्गन और गोल्डमैन सैक्स आदि ऐसे फंड हैं जो यहां से चले गए। इसके विपरीत भारतीय फंड कुछ ऐसे विदेशी साझेदारों के साथ बने रहे जो सक्रिय नहीं हैं। जेएम फाइनैंशियल, डीएसपी, आदित्य बिड़ला, श्रीराम आदि इसके उदाहरण हैं।

लाखों भारतीय इस रुझान को भारतीय उद्यमियों की महानता के प्रमाण के रूप में देखेंगे। यह सही है कि भारतीय उद्यमियों और प्रबंधकों ने बहुत अधिक प्रतिभा और क्रियान्वयन कौशल दिखाया है लेकिन विदेशी वित्तीय कंपनियों की भारत छोड़ने की नीति की वजह अलग है।

साफ कहें तो सन 1990 के दशक के मध्य में भारतीय मध्य वर्ग को लेकर जो भी अनुमान लगाए गए थे वे गलत साबित हुए। मध्य वर्ग की समृद्धि इस गति से नहीं बढ़ी कि विदेशी कारोबार उसका लाभ ले सकें। ऐसा भारतीय अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन की वजह से हुआ।

उत्पादकता कमजोर बनी रही, भ्रष्टाचार और कर दरें ऊंची बनी रहीं और सांठगांठ वाले पूंजीवाद ने 2000 के दशक के मध्य में बुनियादी वृद्धि को नुकसान पहुंचाया। परिणामस्वरूप सरकारी बैंकों का फंसा हुआ कर्ज 20 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया।

2005 से 2008 के बीच समृद्धि में सुधार विशुद्ध रूप से तमाम भूभागों में वैश्विक तेजी की बदौलत हुआ। इससे कई परिसंपत्तियों की कीमतें बढ़ीं और वित्तीय सेवाओं में अल्पकालिक तेजी आई। परंतु वैश्विक वित्तीय संकट ने 2008 में भारत पर भी असर डाला और हम एक बार फिर दशक भर के संघर्ष में उलझ गए।

विदेशी कंपनियां वैश्विक वित्तीय संकट से बुरी तरह कमजोर पड़ चुकी थीं और उन्होंने बाहर निकलना शुरू कर दिया। भारतीय कंपनियों के पास ऐसा विकल्प नहीं था। उन्होंने समय बिताया और धीरे-धीरे बाजार हिस्सेदारी हासिल की। इसलिए जब ग्राहकों को डिजिटल बनाने जैसे उथलपुथल मचाने वाले अवसर आए तो घरेलू बैंकों की तैयारी बेहतर थी।

इसी प्रकार जब कोविड के बाद शेयर बाजार ने गति पकड़ी तो घरेलू म्युचुअल फंड और ब्रोकरेज फर्म तेजी से विकसित हुए। वित्तीय क्षेत्र में भारतीय कंपनियां स्पष्ट विजेता बनकर उभरीं जबकि विदेशी कंपनियां पिछड़ गईं। ध्यान रहे अन्य क्षेत्रों में ऐसा नहीं हुआ। उदाहरण के लिए विदेशी कंपनियों के व्यक्तिगत उत्पाद बने रहे। उनकी मजबूत उपस्थिति बरकरार है।

(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)

First Published - May 8, 2024 | 9:45 PM IST

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