सितंबर में दिल्ली में आयोजित जी20 शिखर बैठक में हुई कई घोषणाओं में से जिस एक घोषणा ने व्यापक जिज्ञासा उत्पन्न की वह है आईएमईई कॉरिडोर। आइए जानते हैं इससे जुड़े 10 प्रश्न और उनके उत्तर।
आईएमईई कॉरिडोर क्या है?
इसका पूरा नाम है इंडिया-मिडल ईस्ट-यूरोप कॉरिडोर। यह एक परिवहन लिंक है जो मुंबई से आरंभ होगा जहां से पोत के माध्यम से सामान दुबई बंदरगाह भेजा जाएगा। वहां से उसे रेल से जॉर्डन के रास्ते इजरायल के हाइफा बंदरगाह ले जाया जाएगा। वहां से उसे एक और पोत से ग्रीस के पिराएस बंदरगाह पहुंचाया जाएगा। वहां से वह सड़क और रेल के माध्यम से जर्मनी के हैंबर्ग शहर पहुंचेगा।
इस परियोजना में आठ प्रमुख अंशधारक हैं- भारत, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, इटली, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और यूरोपीय संघ। इन सभी ने जी20 बैठक के दौरान जारी समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे। इजरायल इसमें एक उत्साही ‘साझेदार’ है।
यह किस तरह का कॉरिडोर है?
इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि क्या इसे केवल एक लॉजिस्टिक कॉरिडोर के रूप में बनाया जा रहा है या फिर यह आर्थिक कॉरिडोर भी बनेगा। फिलहाल तो यही लग रहा है कि यह आर्थिक कॉरिडोर बन सकता है क्योंकि केवल पहले वाला फायदेमंद नहीं रहेगा।
एक पोत के माध्यम से आसानी से कंटेनर को मुंबई से हैंबर्ग तक किफायती ढंग से पहुंचाया जा सकता है। बहरहाल, माना जा रहा है कि इससे आईएमईईसी के मार्ग में आने वाले सभी देशों में कारोबार को गति मिलेगी और लॉजिस्टिक कॉरिडोर के रूप में शुरुआत के बाद यह आगे आर्थिक कॉरिडोर बनेगा।
यह चीन की ऐसी ही पहल से अलग कैसे है?
चीन ने 10 वर्ष पहले बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) की घोषणा की थी। उस समय कहा गया था कि इसमें दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया, पूर्वी यूरोप और अफ्रीका महाद्वीप के 100 से अधिक देशों को शामिल करने की योजना है। इसमें बंदरगाह, सड़क, हवाई अड्डे और औद्योगिक पार्क जैसी योजनाएं शामिल हैं।
सबसे अहम बात यह है कि चीन ने अधोसंरचना विकास के लिए सस्ते दीर्घकालिक फंड का वादा किया। हालांकि बीआरआई पहल को हाल में आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि अधिकांश लाभार्थी देशों को अहसास हुआ कि वे कर्ज के जाल में फंस रहे हैं। यह परियोजना अभी भी काफी मजबूत है।
अगर यह इतने बड़े क्षेत्र में विस्तारित है तो मुंबई से क्यों शुरू हो रही है?
यह स्पष्ट है कि तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरता भारत इस योजना का अहम हिस्सा है। परंतु आसपास के देशों का इसमें शामिल होना भी अच्छा रहेगा। ऐसे में इसे मुंबई से चटगांव और कोलंबो बंदरगाह तक ले जाया जा सकता है और अंडमान स्थित भारत के अंतरराष्ट्रीय कंटेनर बंदरगाह को भी ध्यान में रखा जा सकता है।
बताया जा रहा है कि पश्चिमी भारत के कांडला, जेएनपीटी और मुंद्रा बंदरगाहों को भी शामिल किया जाएगा। चूंकि अफ्रीकी संघ को जी20 समूह में शामिल होने का न्योता दिया गया है तो ऐसे में कुछ पूर्वी अफ्रीकी देशों को शामिल करना भी उचित होगा।
क्या इसका संबंध केवल वस्तुओं के आवागमन से है?
यह जरूरी नहीं है। शुरुआती विचार में ईंधन का आवागमन भी शामिल है। फिलहाल भारत भूटान से पनबिजली खरीदता है और बांग्लादेश को ताप बिजली बेचता है। श्रीलंका के लिए एक अलग बिजली लाइन पर चर्चा हुई है। नवीकरणीय ऊर्जा पर ध्यान देकर सीमापार पारेषण ग्रिड को आकर्षक बनाया जा सकता है।
भारत के लिए क्या लाभ है?
पहली बात तो लॉजिस्टिक लागत में कमी आएगी। दूसरा, सऊदी अरब, खाड़ी देश, पूर्वी यूरोप के देशों के साथ व्यापार शुरू होगा। तीसरा, रेल खंडके निर्माण और संचालन की संभावित जिम्मेदारी भारत का कद बढ़ाएगी। चौथा, इससे संकेत मिलता है कि भारत अब इंडिया-ईरान-रूस इंटरनैशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर से दूरी बना रहा है जिसमें ईरान के चाबहार बंदरगाह की अहम भूमिका थी। पांचवा, इसे भारत और अरब देशों के बीच रिश्ते मजबूत करने वाला माना जा रहा है।
क्या कुछ नरम मुद्दे हैं जिन पर नजर रखनी चाहिए?
हां, और उनका संबंध इस मार्ग पर अफसरशाही से जुड़ी बाधाओं को हल करने से है। मुंबई से हैंबर्ग जाने वाले कंटेनर को छह जगह चढ़ाना और उतारना होगा। इसके बाद 15 प्रतिभागी देशों की सीमाओं पर अवैध वस्तुओं के आवागमन को रोकने के लिए जांच होगी। ऐसे में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि पूरी व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए ‘एकल पास’ की व्यवस्था अपनाई जाए।
क्या यह सदियों पुराना मसाला मार्ग है?
हां, मध्य एशिया से गुजरने वाले सिल्क रूट यानी रेशम मार्ग से अलग यह सदियों पुराने मसालों के आवागमन वाले मार्ग के सदृश्य है। उस दौरमें रोमन साम्राज्य भारत से मसाले और आभूषण खरीदता था।
इसकी फंडिंग कैसे होगी?
फिलहाल जो स्थितियां हैं उनके अनुसार तो आईएमईईसी बंदरगाहों के संचालन और अरब प्रायद्वीप में नई रेल लाइनों से संचालित होना है। केवल इसी रेल लिंक को शुरू करना है। दुबई और हाइफा बंदरगाह के बीच की दूरी करीब 2,600 किलोमीटर है। अगर मान लिया जाए कि उच्च गुणवत्ता वाली लाइन बिछाने में 30 करोड़ रुपये प्रति किमी का खर्च होगा तो यह राशि करीब 78,000 करोड़ रुपये होगी।
यह देखते हुए कि भारत की बुलेट ट्रेन को अकेले जापान ने एक लाख करोड़ रुपये की रियायती वित्तीय मदद मुहेया कराई थी तो यह राशि भी साझेदारों द्वारा आसानी से जुटाई जा सकती है।
अपने अंतिम रूप में आईएमईईसी को करीब 20 अरब डॉलर की पूंजी की आवश्यकता होगी ताकि बंदरगाहों की क्षमता बढ़ाई जा सके, नए मालवहन केंद्र स्थापित हों, ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क बिछाया जा सके और बिजली की ग्रिड तथा पाइपलाइन बिछाई जा सकें।
क्या आईएमईईसी भूराजनीतिक कदम है?
यकीनन। यह एक मजबूत संदेश देना चाहता है कि सार्थक उद्देश्य वाले मित्र देशों के समूह ने परिवहन, व्यापार और आर्थिक विकास को लेकर एक ऐसे मॉडल के तहत हाथ मिलाए हैं जो किसी एक दबदबे वाले देश के मॉडल से अलग है।
उदाहरण के लिए इटली ने बीआरआई से अलग होने का निर्णय लिया है। इसे कई तरह से भारत की कूटनीतिक जीत की तरह देखा जा रहा है क्योंकि आईएमईईसी में पाकिस्तान और तुर्किये शामिल नहीं हैं। इसके साथ ही यह एक व्यावहारिक और नया मार्ग भी उपलब्ध कराता है। व्यापार से लेकर कूटनीति तक इस पहल में काफी कुछ शामिल है।