भारत में सन 1991 और उसके बाद हुए आर्थिक सुधार दरअसल घरेलू तथा वैश्विक स्तर पर मुक्त बाजार में किए गए निवेश ही थे। ये सुधार रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर के युग के उन विचारों से प्रभावित थे कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका कम होनी चाहिए।
इसके लिए घरेलू तौर पर एक शब्द गढ़ा गया एलपीजी यानी उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन)। हालांकि इसे चरणबद्ध ढंग से और वह भी केवल आंशिक रूप से लागू किया गया लेकिन मान्यता यह थी कि बाजार की ओर ज्यादा झुकाव भारत के लिए लाभदायक साबित होगा। ऐसा हुआ भी और हमें तेज आर्थिक वृद्धि, धीमी मुद्रास्फीति और बेहतर व्यापार संतुलन के साथ बाहरी आर्थिक व्यवहार्यता हासिल हुई।
परंतु विनिर्माण को अपेक्षित गति न मिलने, गुणवत्तापूर्ण रोजगार तैयार नहीं कर पाने और असमानता में इजाफा होने से इसे लेकर मोहभंग की स्थिति भी बढ़ी है। इसके अलावा व्यवस्थागत दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उत्पादों और सामग्री को लेकर चीन पर निर्भरता भी बढ़ी।
सौर ऊर्जा, बिजली चालित वाहन आदि के सहारे पर्यावरण के अनुकूल बनने की चाह भी इससे जुड़ी हुई है। प्रतिक्रियास्वरूप व्यापार को लेकर अधिक प्रतिबंधात्मक रुख अपनाया गया, मसलन शुल्क दरों में इजाफा, नए गैर शुल्कीय अवरोध, चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध आदि। इसके साथ ही सरकार द्वारा निर्देशित औद्योगिक निवेश की स्थिति निर्मित हुई। इस अंतिम उपाय में तमाम नीतिगत उपकरणों का इस्तेमाल हुआ।
मिसाल के तौर पर: निवेश सब्सिडी, उत्पादन प्रोत्साहन, टैरिफ संरक्षण और कारोबारी घरानों का संरक्षण। यह सन 1991 से पूरा उलट नहीं है बल्कि केवल दिशा में परिवर्तन है। खासतौर पर इसलिए कि वे सुधार कभी पूरे ही नहीं हुए। सरकार की भूमिका छोटी नहीं हुई बल्कि बढ़ी है।
महत्त्वपूर्ण बात है कि यह पश्चिम से बह रही नई हवा से जुड़ता है। अमेरिका में तथा अन्य स्थानों पर विनिर्माण के खत्म होने ने ऐसे ही नतीजे पेश किए हैं: गुणवत्तापूर्ण रोजगार की क्षति, बढ़ती असमानता और चीन को लेकर संवेदनशीलता। ऐसे में राजनीति लोकलुभावन हो गई है और अर्थव्यवस्था राष्ट्रवादी।
मुक्त व्यापार के पुराने पुरोधा ने राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल में ‘अमेरिका प्रथम’ के नारे के साथ राह दिखाई और बाइडन ने नई पुरानी नीतियों के साथ व्यापार समझौतों का पुनर्लेखन किया, बड़े पैमाने पर निवेश प्रोत्साहन दिया और रणनीतिक उद्योगों को स्थानीयकृत करने का प्रयास किया। इसके समांतर चीनी वस्तुओं के विरुद्ध आयात अवरोध बढ़े हैं, साथ ही चीन को सामरिक तकनीकों के हस्तक्षेप पर रोक लगी है।
इसके प्रतिक्रियास्वरूप यूरोप से लेकर पूर्वी एशिया तक प्रमुख कंपनियों ने अमेरिका जाने की होड़ लगा दी और वहां दो वर्षों में विनिर्माण में निवेश दोगुना हो गया। उन क्षेत्रों के देशों ने विरोध किया था लेकिन अब निवेश सब्सिडी और चीन पर प्रतिबंध के मामले में वे अमेरिका का अनुसरण कर रहे हैं।
चीन ने इसकी प्रतिक्रिया में चेतावनी दी और गैलियम तथा जर्मेनियम के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। इनका इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक्स, बिजली से चलने वाले वाहनों और दूरसंचार क्षेत्र में होता है। आपको बता दें कि भारत इन पदार्थों का तीसरा बड़ा आयातक है। परंतु चीन मुक्त बाजारों में पहुंच की मांग कर रहा है क्योंकि बिजली से चलने वाले वाहनों सहित दुनिया के लिए जरूरी लगभग हर अहम क्षेत्र में उसका व्यापार अधिशेष है।
सरकारें चीन से खरीद से बचने के लिए जो राशि चुका रही हैं वह बहुत अधिक है। अमेरिका और यूरोप में हर बिजली चालित वाहन पर दी जाने वाली सब्सिडी करीब 7,500 डॉलर है। इंटेल को जर्मनी ने 10 अरब डॉलर की प्रोत्साहन राशि दी है ताकि वह चिप संयंत्र स्थापित कर सके। जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियां जो विनिर्माण पर जोर देना छोड़ चुकी थीं वे वापस इस क्षेत्र में आ रही हैं। अहम क्षेत्रों की नई विनिर्माण इकाइयों में सैकड़ों अरब डॉलर का निवेश होने की संभावना है।
क्या ये नीतियां कारगर होंगी? एक खतरा यह है कि अतिरिक्त क्षमता निर्मित हो जाएगी और फिर संभव है कारोबारी जंग छिड़ जाए। बंटे हुए, सब्सिडी वाले तथा संरक्षित बाजारों में इसका क्या असर होगा? या फिर क्या शुल्कों में इजाफा उत्पादों को और महंगा बनाकर मुद्रास्फीति में योगदान करेगा?
हालांकि चीन से दूरी बनाने की बात ने जोखिम को कम करने और विविधता बढ़ाने जैसे लक्ष्यों को दोहराने का मार्ग प्रशस्त किया है। ऐसे में जैसे को तैसा जैसे कदमों का खतरा भी है और पड़ोसी देशों को नुकसान पहुंचाने वाली नीति तथा अधिक सरकारी ऋण का जोखिम तो है ही। ऐसे में आवश्यक नहीं कि पश्चिम से चली लहर पूर्व के देशों को चपेट में नहीं लेगी बल्कि वह एक तूफान को जन्म दे सकती है।
भारत भी अन्य देशों जैसी स्थिति में है लेकिन वह उथले क्षेत्रों से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसे भी ठीक ही कहा जा सकता है क्योंकि आपूर्ति की विविधता बढ़ाने और जोखिम कम करने (वह भी अत्यधिक) का काम अन्य देश भी कर सकते हैं।
ऐसी स्थिति में भारत आयात प्रतिस्थापन के बजाय रोजगार निर्माण को विनिर्माण का मुख्य लक्ष्य बना सकता है। संभव है कि मोबाइल फोन असेंबलिंग की तरह वह दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने में कामयाब रहे। परंतु भारत को भी बड़ा देश बनने की चाह ने घेर रखा है और वह एक बार फिर आयात प्रतिस्थापन की बैसाखी अपनाने को तैयार नजर आ रहा है।