facebookmetapixel
Yearender 2025: टैरिफ और वैश्विक दबाव के बीच भारत ने दिखाई ताकतक्रेडिट कार्ड यूजर्स के लिए जरूरी अपडेट! नए साल से होंगे कई बड़े बदलाव लागू, जानें डीटेल्सAadhaar यूजर्स के लिए सुरक्षा अपडेट! मिनटों में लगाएं बायोमेट्रिक लॉक और बचाएं पहचानFDI में नई छलांग की तैयारी, 2026 में टूट सकता है रिकॉर्ड!न्यू ईयर ईव पर ऑनलाइन फूड ऑर्डर पर संकट, डिलिवरी कर्मी हड़ताल परमहत्त्वपूर्ण खनिजों पर चीन का प्रभुत्व बना हुआ: WEF रिपोर्टCorona के बाद नया खतरा! Air Pollution से फेफड़े हो रहे बर्बाद, बढ़ रहा सांस का संकटअगले 2 साल में जीवन बीमा उद्योग की वृद्धि 8-11% रहने की संभावनाबैंकिंग सेक्टर में नकदी की कमी, ऋण और जमा में अंतर बढ़ापीएनबी ने दर्ज की 2,000 करोड़ की धोखाधड़ी, आरबीआई को दी जानकारी

साप्ताहिक मंथन

Last Updated- February 25, 2023 | 8:50 AM IST
Budget 2023

हाल के वर्षों में सरकार के बजट की एक आम आलोचना यह रही है कि उसका ध्यान हमेशा पूंजीगत निवेश पर केंद्रित रहता है और सामाजिक क्षेत्रों की अनदेखी की जाती है। उदाहरण के लिए सामाजिक क्षेत्रों की इस अनदेखी को रोजगार गारंटी योजना के वास्ते घटते आवंटन और ​शिक्षा के बजट में ठहराव में देखा जा सकता है। यह ​स्थिति तब है जब पात्र आयु वाले बच्चों में से 20 फीसदी माध्यमिक ​शिक्षा पूरी नहीं कर पाते, बीते कई सालों से प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या वैसी की वैसी है और वास्तविक ग्रामीण पारिश्रमिक अभी भी महामारी के पहले वाले स्तर पर ही है।

वर्ष 2022-23 की आ​र्थिक समीक्षा में इस आलोचना को लेकर प्रतिक्रिया दी गई है। उसमें उपरोक्त सभी बातों को दर्ज करने के साथ ही यह भी दिखाया गया है कि तस्वीर केवल काली या सफेद नहीं है ब​ल्कि उसके और भी पहलू हैं। ध्यान देने वाली बात है कि कुल सरकारी व्यय में सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला सामान्य सरकारी व्यय (केंद्र और राज्यों का मिलाकर) लगातार बढ़ रहा है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में भी इसमें इजाफा हो रहा है। वर्ष 2015-16 और 2022-23 (बजट अनुमान) के बीच जीडीपी हिस्सेदारी 6.6 फीसदी से बढ़कर 8 फीसदी हो गई (समीक्षा में कहा गया है कि यह 8.3 फीसदी हो गई क्योंकि उसके पास वर्तमान मूल्य पर जीडीपी के नए आंकड़े नहीं हैं)। इस बढ़ोतरी के साथ स्वास्थ्य की हिस्सेदारी बढ़ रही है जबकि ​शिक्षा में ​स्थिरता है।

इसका परिणाम यह हुआ कि स्वास्थ्य मानकों में सुधार हुआ तथा परिवारों को पानी और बिजली की उपलब्धता का दायरा बढ़ा। दुर्भाग्यवश आंकड़े अक्सर थोड़ा पुराने होते हैं। कई बार आंकड़े विरोधाभासी भी होते हैं। उदाहरण के लिए नमूना पंजीयन प्रणाली के मुताबिक 2020 में नवजात मृत्यु के मामले प्रति 1,000 में 28 थे जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के 2019-21 के आंकड़ों में यह 38.4 है। इनमें से किस पर भरोसा किया जाए? एक रुझान के अनुसार विभागीय आधार पर प्रस्तुत ‘उत्पादन’ के दावे हमेशा स्वतंत्र सर्वेक्षणों में हासिल ‘निष्कर्षों’ से मेल नहीं खाते। उदाहरण के लिए स्वच्छ भारत की सार्वभौमिक पहुंच के दावों के बावजूद एनएफएचएस से पता चलता है कि बेहतर सफाई तक परिवारों की पहुंच 65 फीसदी से ऊपर नहीं गई है। उज्ज्वला योजना के तहत घरेलू गैस उपलब्ध कराने के तमाम लाभों की बात के बावजूद स्वच्छ ऊर्जा केवल 43 फीसदी परिवारों को उपलब्ध है।

संदर्भ बिंदुओं का भी मुद्दा है। प्रगति जांचने का एक तरीका है अतीत के साथ तुलना करना। एक और तरीका है अंतरराष्ट्रीय मानकों का इस्तेमाल करना। ऐसा करना कभी-कभी दिक्कतदेह हो सकता है। संजीव सान्याल इकनॉमिक टाइम्स में बच्चों के ठिगनेपन और कम वजन को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों तथा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की महिलाओं की श्रम श​क्ति भागीदारी की परिभाषा के मामले में इस बात को जोर देकर कहते हैं। पहले मामले में भारत के आंकड़े अस्वाभाविक रूप से ऊंचे है जबकि दूसरे में अस्वाभाविक रूप से कम।

यह बात ध्यान देने लायक है कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में भारत की रैंकिंग वर्षों से कमोबेश एक जैसी बनी हुई है। इससे संकेत मिलता है कि हम न तो अन्य देशों से अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं और न ही बुरा। हालांकि उनमें से अ​धिकांश की वृद्धि दर भारत की तुलना में कमजोर है। इस सदी के दूसरे दशक में मानव विकास सूचकांक में भारत की प्रगति धीमी पड़ी है। हम इस मामले में मध्यम श्रेणी में ही बने हुए हैं। वियतनाम जैसे देश पहले ही ‘उच्च’ श्रेणी में पहुंच चुके हैं लेकिन भारत को मौजूदा दर पर वहां तक पहुंचने में यह पूरा दशक लग सकता है। कई सरकारी कार्यक्रमों को जहां उल्लेखनीय कामयाबी मिली है वहीं समग्र प्रदर्शन में सुधार नहीं हुआ है।

कई प्रकार के आंकड़ों के प्लेटफॉर्म के निर्माण का उल्लेख भी किया जाना चा​हिए जिन्हें समीक्षा में सूचीबद्ध किया गया है। वि​भिन्न सरकारी कार्यक्रमों को इन्हीं पर निर्भर किया जाता है। 1,000 से अ​धिक केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं के तहत प्रत्यक्ष नकदी अंतरण के लिए इस्तेमाल होने वाले आधार तथा अत्य​धिक सफल यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस के अलावा असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों, छोटे कारोबारों, डिजिटल कारोबार आदि के पंजीयन के लिए तमाम प्लेटफॉर्म हैं। उदाहरण के लिए इनमें से कुछ आंकड़े मसलन वस्तु एवं सेवा कर चुकाने वालों के पंजीयन दोगुने होने का आंकड़ा आदि का इस्तेमाल कारोबारों के आकार और वृद्धि का हिसाब रखने के लिए किया गया है। परंतु व्यापक विश्लेषण के लिए ऐसे नतीजों तथा मेटा डेटा (किसी आंकड़े के वि​भिन्न पहलुओं को परिभा​षित करने वाले आंकड़े) के और प्रमाण चाहिए। उदाहरण के लिए यह कि असंगठित क्षेत्र के 28.5 करोड़ कर्मचारियों को ई-श्रम पोर्टल पर पंजीयन से कैसे लाभ हुआ? 

First Published - February 25, 2023 | 8:50 AM IST

संबंधित पोस्ट