हममें से जो लोग शानदार वंदे भारत ट्रेनों या दो शहरों के बीच अबाध और आरामदेह यात्रा मुहैया कराने वाली शताब्दी के वीडियो से खुशफहमी के शिकार हो गए थे, उन्हें पिछले एक पखवाड़े में सामने आए उन वीडियो ने स्तब्ध कर दिया जिनमें लोग त्योहारी मौसम में घरों को जाने के लिए ट्रेनों में संघर्ष करते नजर आए।
हमें कुछ समय से यह बात पता है कि भारत प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं करता है। महामारी के समय लॉकडाउन के दौरान हजारों लोग पैदल अपने घरों को निकल पड़े थे। इसके बावजूद ट्रेन के भीड़ भरे डिब्बों में घुसने के लिए संघर्षरत लोगों के चेहरों ने, जिन्हें कई-कई घंटों तक बिना सोये सफर करना था, व्यवस्था को एक किस्म का झटका दिया।
जाहिर है यह सामान्य समय नहीं था। यह दीवाली का मौका था और अगले सप्ताह छठ पूजा थी जब बड़ी तादाद में बिहार के लोग अपने गांवों को जाते हैं। रेल विभाग खुद चकित नजर आ रहा था: उसने जोर देकर कहा कि उसने दीवाली के सप्ताहांत पर 24 लाख अतिरिक्त यात्रियों के लिए व्यवस्था की थी और 1,700 अतिरिक्त विशेष ट्रेन संचालित की थीं।
अगर रेलवे की बात मान भी ली जाए कि अतिरिक्त प्रावधान किए गए थे तो साफ है कि वे अपर्याप्त और गलत जगह केंद्रित थे। उदाहरण के लिए संभव है कि जो अतिरिक्त ट्रेनें चलाई गईं उनमें से कई उन जगहों पर नहीं गई हों जहां उन्हें जाना चाहिए था। शायद उन स्टेशनों से भी ट्रेन नहीं चलीं जहां मांग थी।
रेल अधिकारियों की ओर से उल्लिखित आंकड़ा स्वयं इतना बड़ा है कि वह समस्या की भयावहता की ओर संकेत करता है। भारत की रेल व्यवस्था एक चमत्कार जैसी है जिसे हम हल्के में लेते हैं। यह लंबी दूरी का नेटवर्क सामान्य दिनों के हिसाब से दूर-दूर तक फैला है लेकिन जब मांग असाधारण रूप से अधिक होती है तो अतिरिक्त क्षमता जुटा पाना लगभग असंभव होता है।
रेलवे में निवेश के महत्त्व को पहचानने की बात करें तो मौजूदा सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता है। इस वर्ष के आरंभ में प्रस्तुत किए गए केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार तीसरी बार पूंजीगत व्यय के लिए सार्वजनिक फंड में लगातार तीसरी बार इजाफा किया।
बजट भाषण के अनुसार पूंजीगत व्यय के लिए 10 लाख करोड़ रुपये की राशि अलग की गई थी। इसमें से आधी राशि परिवहन क्षेत्र के लिए थी। इसकी आधी से अधिक यानी करीब 2.6 लाख करोड़ रुपये की राशि भारतीय रेल के लिए थी। यह कोई कम राशि नहीं है। यह बजट का बहुत बड़ा हिस्सा है। इस राशि का बड़ा हिस्सा ऐसे कामों में जा रहा है जो सामने से नजर नहीं आते।
उदाहरण के लिए 30,000 करोड़ रुपये पटरियों के दोहरीकरण में। इससे रेलवे के एकबारगी प्रदर्शन में काफी सुधार होगा। इतनी ही राशि नई पटरियों के लिए अलग की जाएगी और करीब 40,000 करोड़ रुपये की राशि रोलिंग स्टॉक के लिए।
ऐसे में सरकार की निवेश प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। समस्या कहीं और है। या तो यह धनराशि सही जगह खर्च नहीं हो रही है या फिर इसका आवंटन तो हो रहा है लेकिन इसे ढंग से प्रयोग में नहीं लाया जा रहा है।
अगर इस धनराशि के लिए रेलवे की जवाबदेही तय करनी है तो कुछ सवालों के उत्तर देने होंगे। परंतु वह जवाबदेही तभी आएगी जब गहरे प्रश्न किए जाएंगे। ऐसा ही एक प्रश्न यह है कि सरकार की नजर में रेलवे का काम क्या है।
एक ओर यात्री किराये को जानबूझकर कम रखा जाता है ताकि इसकी राजनीतिक कीमत न चुकानी पड़े। वहीं माल ढुलाई जो औद्योगिक नेटवर्क के लिए आवश्यक है और कार्बन का इस्तेमाल करने वाले ट्रकों से बचाव के लिए भी जरूरी है उसका इस्तेमाल यात्री सेवाओं की क्रॉस सब्सिडी के रूप में किया जाता है।
यात्री किराये को जहां कम रखने की आवश्यकता है वहीं यात्रियों के आराम को उतनी प्राथमिकता नहीं दी जा रही है। कई सुधार किए गए हैं उदाहरण के लिए खानपान की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। परंतु मोटे तौर पर यात्रियों का अनुभव, खासकर अनारक्षित सामान्य श्रेणी के यात्रियों का अनुभव काफी हद तक दशकों पहले जैसा बना हुआ है। इकलौता सुधार ऐसा है जिसका श्रेय भी रेलवे नहीं ले सकता। अब पहले जैसी शांत यात्राओं के बजाय लगातार यात्रियों के मोबाइल फोन पर चल रहे वीडियो के शोर से दो-चार होना पड़ता है।
भारत लंबी दूरी की यात्रा करने वाले गरीबों को आरामदेह और आकर्षक यात्रा मुहैया करा पाने में नाकाम रहा है और यह बात हमारी विकास गाथा की बुनियादी कमी को दर्शाती है।
तथ्य यह है कि दुनिया की किसी भी अन्य जगह की तरह भारत की आर्थिक वृद्धि को भी व्यापक आंतरिक प्रवासन की आवश्यकता होगी। लोग उन जगहों से चले जाएंगे जहां निवेश कम है। वे वहां जाएंगे जहां आपूर्ति श्रृंखला को लेकर बेहतर संपर्क हो तथा परिणामस्वरूप श्रम उत्पादकता तथा वेतन भत्ते अधिक हों।
पहले औद्योगिक मुल्क ग्रेट ब्रिटेन की मिलें पश्चिमोत्तर और पूर्वोत्तर इंगलैंड के औद्योगिक इलाकों के कृषि श्रमिकों की मदद से संचालित होती थीं। आधुनिक युग के प्रमुख औद्योगिक देश चीन के प्रभुत्व में भी इसके भीतरी हिस्से से तटवर्ती इलाकों की ओर प्रवासन की अहम भूमिका है।
भारत में इसके समकक्ष प्रक्रिया का समर्थन किया जाना चाहिए। इसका एक हिस्सा यह भी है कि लोग जब अपने घर जाना चाहें उन्हें ट्रेन और सीट मिलनी चाहिए। भारत की विकास गाथा के साथ भारतीय रेल को यह भूमिका भी निभानी चाहिए। इस बात को तवज्जो दी जानी चाहिए।
प्रवासियों के अनुभवों के अन्य पहलुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। मसलन आवास का प्रश्न। हम एकल परिवारों के घर बनाने पर केंद्रित हैं और वह भी उन इलाकों में जहां लोगों के परिवार पंजीकृत हैं। क्या हमें एकल श्रमिकों की जरूरतों पर भी विचार नहीं करना चाहिए जो अस्थायी रूप से अपने परिवारों से दूर रहते हैं? या फिर हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि वे एक कमरे में छह से आठ की संख्या में रहें। या फिर यह कि उनके लिए घर का बंदोबस्त करना नियोक्ता की जिम्मेदारी है।
क्या हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि लोगों को मिलने वाले लाभ, सरकारी पात्रता तथा मताधिकार आदि आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित हो सकें ताकि वे एक बार अपना गृह राज्य या जिला छोड़ने के पश्चात अपनी पहचान से कटा हुआ न महसूस करें?
एक बार जब हम भारत की विकास परियोजनाओं में उन लोगों को केंद्र में ले आएंगे जो हमारी सफलता के लिए जरूरी हैं तो हम स्वाभाविक रूप से उनके जीवन अनुभवों को भी पहचान लेंगे। तब शायद छुट्टियों में घर जाना उतना बुरा अनुभव नहीं होगा।