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नीति नियम: विश्व शांति में अमेरिकी प्रभुत्व का अंत!

भारत में हमारे लिए तथा अन्य स्थानों पर जल्दी ही एक ऐसी दुनिया की कल्पना करना आवश्यक हो सकता है जहां अमेरिका की भूमिका पहले जैसी बड़ी नहीं रह जाएगी।

Last Updated- October 11, 2023 | 9:31 PM IST
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अधिकांश लोगों के लिए यह समझना कठिन होगा कि बीते 75 वर्ष विसंगतियों से भरे हुए थे। युद्ध के बाद के दौर में जो स्थिरता नजर आई है उसे अमेरिका ने पहले सोवियत संघ के साथ एक असहज संतुलन के माध्यम से और उसके पश्चात तीन दशकों तक अपने दम पर रेखांकित किया।

पैक्स अमेरिकाना (अमेरिकी नेतृत्व में कायम विश्व शांति के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द) में कई खामियां थीं लेकिन हमें नजर आने लगा है कि इसका अंत होने के बाद दुनिया कैसी नजर आएगी।

यह अवधि विसंगतिपूर्ण इसलिए रही कि इतिहास में अधिकांश समय तक अमेरिका अलग-थलग राष्ट्र रहा है। इसकी वजह वैचारिक भी थी और प्राकृतिक भी। एक ओर नई दुनिया पुरानी दुनिया से अलग है, वहीं महाद्वीपीय अमेरिका दो सागरों के बीच सुरक्षित है। उसके उत्तर और दक्षिण में मित्र राष्ट्र हैं। अपने इतिहास में ज्यादातर समय तक अपने गोलार्द्ध में उसका दबदबा सुनिश्चित रहा। वह अपने पड़ोस में केवल एक जंग जीतने में नाकाम रहा जब 1812 में ब्रिटिश साम्राज्य ने उसे बराबरी की टक्कर दी।

अमेरिका में 9/11 के हमलों के बाद के वर्षों में भी वहां की जमीन को शायद ही कभी कोई खतरा था। निश्चित रूप से उस हमले को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया या कहें अतिरंजित प्रतिक्रिया ने यह जरूर दिखाया कि वह अपनी सुरक्षा को लेकर कुछ ज्यादा ही आश्वस्त हो गया था।

अलग-थलग रहना भी शायद अमेरिका के डीएनए में शामिल है। उसके पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने अपने विदाई भाषण का सबसे अहम हिस्सा विदेश में उलझनों के खिलाफ एक तर्क को समर्पित किया था। अमेरिका की भौगोलिक बढ़त को उसकी अलग और दूरवर्ती स्थिति बताते हुए उन्होंने सवाल किया था: ‘इस अजीबोगरीब स्थिति के फायदे क्यों जाने दिए जाएं? विदेशी जमीन पर खड़े रहने के लिए हम अपनी जमीन क्यों छोड़ें? हम अपनी तकदीर को यूरोप के किसी हिस्से से जोड़कर और अपनी शांति और समृद्धि को यूरोपीय महत्त्वाकांक्षाओं, प्रतिद्वंद्विता, हितों, हास्य या झमेले में क्यों उलझाएं?’

अमेरिका की सलाह शायद तात्कालिक भूराजनीति से प्रेरित रही हो जहां एक अन्य गणराज्य तथा अमेरिकी स्वतंत्रता का आरंभिक रक्षक फ्रांस, ब्रिटेन के खिलाफ अपने लिए लड़ रहा था। उस समय ब्रिटेन की स्थिति ऐसी थी कि वह आसानी से समुद्र में फ्रांस और अमेरिका के कारोबार को सीमित कर सकता था।
परंतु इसकी जीवनावधि बहुत लंबी रही। करीब डेढ़ सदी बाद यानी दूसरे विश्वयुद्ध के समय अमेरिका एक औपचारिक और स्थायी गठजोड़ में शामिल हुआ।

19वीं सदी के अमेरिकियों ने इस अलगाव को एक नैतिक उद्देश्य में बदल दिया। अब्राहम लिंकन के विदेश मंत्री विलियम सीवर्ड ने घोषणा की थी, ‘अमेरिकी लोगों को उस ज्ञान द्वारा मानव प्रगति की अनुशंसा से संतुष्ट होना चाहिए जिसकी मदद से उन्हें स्व-शासन की शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए और विदेशी गठबंधनों, हस्तक्षेप और दखलंदाजी से परहेज करना चाहिए।’

आज हमारे मन में अमेरिका की जो छवि है वह जाहिर तौर पर एकदम विपरीत है परंतु यह मानना महत्त्वपूर्ण है कि अमेरिका में अलगाववाद की एक लंबी परंपरा है और ऐसी तमाम भौगोलिक वजह हैं जिनके चलते यह उस देश में कारगर भी रहा। 2023 के अमेरिका में एक दल ऐसा है जो अलगाववाद को नए सिरे से तलाशने के करीब है।

डॉनल्ड ट्रंप के बाद रिपब्लिकन पार्टी में कई लोग यूरोप के साझेदारों पर यकीन नहीं करते हैं। उन पर आरोप है कि वे अपने साझा बचाव के लिए समुचित भुगतान नहीं कर रहे हैं, वे एशिया में अमेरिकी साझेदारों के प्रति लेनदेन का भाव रखते हैं और रूसी गणराज्य का सामना करने के इच्छुक नहीं लगते, न ही यूक्रेन को समर्थन जारी रखना चाहते हैं। रिपब्लिकन पार्टी के प्राथमिक मतदाता उन प्रत्याशियों का समर्थन करते हैं जो यूक्रेनी सेना को मदद जारी रखने को लेकर शंकालु हैं।

डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा यूक्रेन को समर्थन बंद किए जाने की संभावना कम है लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि बराक ओबामा के अपना कार्यालय छोड़ने के बाद यह दल भी अंतर्मुखी हो गया है। पार्टी ने बहुत खामोशी से उस व्यापार समझौते को त्याग दिया है जिस पर ओबामा प्रशासन ने चर्चा की थी और जो वैश्विक मुद्दों के लिए करदाताओं का कम से कम पैसा इस्तेमाल करने की हिमायती थी।

बाजार पहुंच और आर्थिक समर्थन दोनों अब उस दल के लिए चर्चा से बाहर का विषय हैं जिसे यह यकीन हो गया है कि बीते दो दशक में उसकी चुनावी नाकामियों की वजह ऐसी नीतियां रही हैं जो अमेरिकी श्रमिकों के लिए पर्याप्त मददगार नहीं थीं।

भारत में हमारे लिए तथा अन्य स्थानों पर जल्दी ही एक ऐसी दुनिया की कल्पना करना आवश्यक हो सकता है जहां अमेरिका की भूमिका पहले जैसी बड़ी नहीं रह जाएगी। फिलहाल उसकी सेना बहुत बड़ी है। प्रतिद्वंद्वियों की संयुक्त सेना से भी बहुत बड़ी। बहरहाल यह मानने की कोई वजह नहीं है कि यह बड़े आकार के कारण मिली यह बढ़त एक और पीढ़ी तक चलती रहेगी।

हम यह शिकायत कर सकते हैं कि अमेरिका ने अपनी शक्ति का किस तरह इस्तेमाल किया लेकिन हमें यह भी मानना चाहिए कि जरूरी नहीं कि अमेरिकी निगरानी के बिना बनी दुनिया अनिवार्य तौर पर या स्वत: ही एक अधिक निष्पक्ष और शांतिपूर्ण जगह होगी। यूक्रेन पर रूस का आक्रमण, अजरबैजान का नगोर्नो-काराबाख क्षेत्र को लेकर आर्मीनिया के साथ दशक भर पुराना गतिरोध खत्म करने का निर्णय और यहां तक कि कोसोवा के साथ लगी सीमा पर सर्बियाई सैनिकों के जमावड़े को लेकर डर आदि सभी इस बात के संकेत हैं कि यूरोप में भी पैक्स अमेरिकाना खत्म हो रहा है।

दुनिया के अन्य हिस्सों में तख्तापलट हुए और अमेरिका ने उसे लेकर न्यूनतम प्रतिक्रिया दी। सूडान में गृहयुद्ध 100 दिन तक चल गया और इस कहानी का सबसे असाधारण पहलू यह है कि इसमें अमेरिका की कोई दिलचस्पी नहीं है और गृहयुद्ध में शमिल दोनों पक्षों में से किसी के उसके साथ रिश्ते नहीं हैं, न ही उनकी अपेक्षाएं हैं। इसमें अगर किसी की दिलचस्पी है तो वे हैं मिस्र, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात। इन सभी को अमेरिका का साझेदार माना जाता है।

अमेरिका के सबसे कट्‌टर साझेदार भी एक ऐसी दुनिया की तैयारी में हैं जहां उन्हें अपना ध्यान खुद रखना होगा। जर्मनी पश्चिमी यूरोप में सबसे बड़ा रक्षा व्यय करने वाला देश बनना चाहता है। उसने अपने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण के लिए 100 अरब यूरो की राशि अलग की है। जापान ने हाल ही में एक कानून पारित किया है जिसके तहत वह साझेदारों को रक्षा सहायता प्रदान करेगा।

भारत आज वहां खड़ा है जहां कभी अमेरिका था यानी स्थायी गठबंधनों से सावधान। परंतु अगर अमेरिकी शक्ति पीछे हटने का विकल्प चुनती है तो उसका चुना हुआ रास्ता आसान नहीं होगा। इसके विपरीत हमारी सुरक्षा चुनौतियां भी कई गुनी होंगी।

First Published - October 11, 2023 | 9:31 PM IST

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