राजनीतिक व्यवहारों में सहृदयता और विपक्ष के प्रति सम्मान एवं सहिष्णुता लोकतंत्र की दो मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं। इस बात को रेखांकित कर रहे हैं नितिन देसाई
यह 2011 की बात है जब विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में प्रकाशित तथ्यों के आलोक में मुझे भारतीय लोकतंत्र के उस बिंदु पर संक्षिप्त बयान देने के लिए कहा गया था जो मेरी नजर में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। उस समय मैंने कुछ पंक्तियां लिखी थी, जिनका मैं दोबारा उल्लेख करने जा रहा हूं। इसके बाद मैं यह प्रश्न भी रखूंगा कि क्या भारतीय लोकतंत्र की वह खासियत अब भी दिखती है जिसका मैंने जिक्र किया था।
संविधान और चुनाव एक क्रियाशील लोकतंत्र के लिए महज शुरुआत भर हैं। काफी कुछ उन कार्य व्यवहारों पर निर्भर करता है, जिनमें विपक्ष के अधिकारों के प्रति सम्मान झलकता है। इन राजनीतिक व्यवहारों से कुछ मानदंड भी निश्चित होते हैं जो कालांतर में परंपरा का रूप ले लेते हैं। यहां तक कि संवैधानिक प्रावधानों जैसे स्वतंत्र चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सही अर्थ में प्रभावी बनाने के लिए अघोषित कार्य व्यवहारों की आवश्यकता होती है।
भारत में कुछ इसी तरह का अनुभव रहा है। देश में पंडित नेहरू और कांग्रेस के शुरुआती नेतृत्व द्वारा तय किए गए मानक महत्त्वपूर्ण हैं और जब लोकतांत्रिक व्यवस्था पर खतरा मंडराता है तब भी ये अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। नेता प्रतिपक्ष को सत्ता पक्ष के नेता की तरह ही सम्मान दिया जाता है और उन्हें वे सारी सुविधाएं दी जाती हैं जो उन्हें प्रभावी ढंग से उत्तरदायित्व का निर्वहन करने में मदद करती हैं।
मगर अब मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि उस समय मैंने जितनी बातें कही थीं वे भारत के परिप्रेक्ष्य में महत्त्वहीन हो गई हैं। संवैधानिक सरकार की स्थापना के पहले दशक में देश की राजनीति संसद के महत्त्व और विपक्ष के साथ नेहरू के आत्मीय संबंधों की बुनियाद पर आधारित थी।
एक और विशेष बात यह थी कि कार्यपालिका चुनाव आयोग और न्यायापालिका की स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता का सम्मान करती थी। संविधान सभा में इस व्यवस्था पर विशेष जोर दिया गया था और उस समय नेहरू और सत्ताधारी कांग्रेस ने भी इसका समर्थन किया था।
स्वतंत्र भारत के पहले छह दशकों (1975 से 1977 के दौरान आपातकाल की अवधि को छोड़कर) में विपक्ष के प्रति सहिष्णुता का भाव दिखा। इसका एक स्पष्ट उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का प्रसंग है। पंडित नेहरू ने अमेरिका में भारतीय दूतावास को कुछ विशिष्ट लोगों से वाजपेयी का परिचय कराने के लिए पत्र लिखा था। नेहरू ने ऐसा इसलिए किया कि उन्हें वाजपेयी में संभावनाएं दिखी थीं।
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वाजपेयी के बीच भी अच्छे संबंध थे और इस बात की सभी सराहना भी किया करते थे। विपक्ष के प्रति मनमोहन सिंह का व्यवहार भी दोस्ताना रहा था।
यह माहौल अब नहीं दिखता है। सार्वजनिक राजनीतिक परिचर्चा का ह्रास हुआ है और राजनीतिज्ञ एक दूसरे के ऊपर कीचड़ उछाल रहे हैं। विपक्ष या इसके नेताओं के विचारों एवं बयानों को ‘वंशवादी’, ‘भ्रष्ट’ और यहां तक कि ‘राष्ट्र विरोधी’ जैसे विशेषणों से नवाजा जा रहा है। विरोध करने वाले लोगों के प्रति सहिष्णुता लोकतांत्रिक राजनीति का अहम हिस्सा होना चाहिए।
मगर अब विपक्ष के नेताओं के खिलाफ असम्मानजनक शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है और सरकार में बैठे लोग जांच-पड़ताल आदि की आड़ में राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हैं। केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर यह चलन देखा जा रहा है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाने की कोशिश भी हुई, खासकर आपातकाल के दौरान ऐसा हुआ था मगर 1993 में उच्चतम न्यायालय के एक आदेश के बाद इसे दुरुस्त कर लिया गया। न्यायालय ने एक आदेश के तहत कॉलेजियम सिस्टम की व्यवस्था दी और इसमें कानून बनाकर किसी संशोधन की संभावना को भी निरस्त कर दिया।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सत्तारूढ़ दल का विशेषाधिकार हुआ करता था मगर उच्चतम न्यायालय के हाल के आदेश के बाद इसमें भी संशोधन किया गया है। हालांकि, सरकार एक नए कानून का प्रस्ताव देकर इसे बदल रही है। यह प्रस्ताव सत्ताधारी का विशेषाधिकार बहाल कर देगा, जो संविधान सभा में तय सिद्धांतों के खिलाफ जाता है।
भारत में राजनीतिक नेतृत्व काफी बदल गया है। संविधान की स्थापना के बाद पहले दशक में राजनीतिक नेतृत्व पर आर्थिक एवं जातीय संभ्रांत लोगों का दबदबा हुआ करता था। कदाचित, सबसे महत्त्वपूर्ण बदलाव यह आया है कि जाति के आधार पर राजनीतिक निष्ठा और मतदान का चलन बढ़ रहा है और कुछ राजनीतिक दलों की विचारधारा भी इसका समर्थन करती है।
भारत में जाति केवल इसलिए मायने नहीं रखती कि यहां सामाजिक भेदभाव है बल्कि इसलिए भी इसका वजूद है क्योंकि जाति एवं आर्थिक असमानता में गहरा संबंध है।
यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि मतदान के संवैधानिक अधिकार वाले लोकतंत्र में कभी न कभी संभ्रांत लोगों के नेतृत्व को समाज एवं आर्थिक व्यवस्था में मध्यम वर्ग के एवं निम्न आय से ताल्लुक रखने वाले मतदाता चुनौती देंगे। अमेरिका में कुछ ऐसा ही हुआ जब एंड्रयू जैक्सन ने स्वतंत्रता के बाद शुरुआती नेतृत्व को चुनौती दी और ब्रिटेन में लेबर पार्टी ने भी ऐसा ही किया।
भारत में उच्च वर्ग के नेतृत्व को तब चुनौती मिलनी शुरू हो गई जब 1960 के दशक के मध्य में अन्य पिछड़ी जातियां (ओबीसी) एक राजनीतिक बल के रूप में सामने आईं। यह सिलसिला जारी रहेगा और जल्द ही एक उभरते राजनीतिक शक्ति को जन्म देगा। यह राजनीतिक शक्ति न केवल मध्यम वर्ग के अधिकारों की बात करेगी, बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के निचले स्तरों के हितों की भी बात करेगी।
इसका कारण यह है कि दलित एवं आदिवासी समूह सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के मध्य एवं उच्च स्तरों से ताल्लुक रखने वाले राजनीतिक नेतृत्व से मुट्ठी भर अनाज या मामूली आर्थिक लाभ से संतुष्ट नहीं रहेंगे। हिंदुओं का लोकतंत्रीकरण कहकर इस बदलाव का बचाव किया जा सकता है।
भारत जैसे लोकतंत्र में बहुसंख्यकों की तानाशाही से नुकसान होगा। भारत जैसे देश में धार्मिक, भाषाई, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तरों पर काफी विविधता है और क्षेत्रीय और पारिवारिक स्तरों पर आर्थिक असमानता काफी अधिक है।
चुनावों में सबसे अधिक सीटें जीतने वाला दल या गठबंधन संपूर्ण मतदाताओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। लोकतंत्र में उन लोगों के विचारों एवं अधिकारों का सम्मान करना जरूरी होता है, जो चुनाव जीतने वाले दल के समर्थक नहीं होते हैं।
इसके लिए लोकतंत्र में एक ऐसी कार्य संस्कृति की जरूरत होती है, जो सार्वजनिक तौर पर विपक्ष के नेताओं के साथ व्यवहार में औपचारिकता को बढ़ावा देती है। इसके अलावा नीतिगत विषयों पर भिन्न विचार रखने वाले लोगों की बातें भी ध्यान से सुनी जाती हैं। राजनीतिक स्तर पर संबंधों में औपचारिकता राजनीतिक हिंसा कम करने में मदद करती है।
किसी विषय पर भिन्न विचार रखने वाले लोगों की बात सुनने से नीतिगत विषयों पर जुड़ी खामियों को दूर करने में मदद मिल सकती है। 1991 में बजट का उदारीकरण इसका एक उदाहरण है। देश में भुगतान संकट पैदा होने के बाद लाइसेंस राज का खात्मा हो पाया था। इसके बाद व्यापार का उदारीकरण हो गया और शेयर बाजार में भी काफी बदलाव हुए। इन घटनाक्रम से एक दशक पहले आए सुझावों ने भी ऐसे बदलाव लाने में भूमिका निभाई थी।
विनियमन का समर्थन करने वाले एल के झा, एम नरसिम्हन, आबिद हुसैन और वाडीलाल दगली द्वारा तैयार की गई प्रभावी रिपोर्ट का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। संयोग से जो लोग अफसरशाही को दोष देते हैं उन्हें इस पर ध्यान देना चाहिए कि इनमें पहले तीन सिविल सर्वेंट थे और वे दगली की तुलना में अपनी बातें रखने में अधिक मुखर थे। दगली कारोबार समर्थक एक पाक्षिक के संपादक थे!
राजनीतिक स्तर पर सौहार्द्रपूर्ण माहौल कानून की मदद से तैयार नहीं किया जा सकता है। यह लोकतांत्रिक क्रियाकलापों का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। राजनीतिक विरोधियों के बीच औपचारिकता एवं एक दूसरे के विचारों के सम्मान से यह संभव है। हमें उसी तरह के राजनीतिक सौहार्द्र की जरूरत है जो हमें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शुरुआती वर्षों में देखने को मिली थी।
मगर नीतिगत मामलों पर विरोध दर्ज कराने वाले लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा संवैधानिक प्रावधान से की जा सकती है। एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि मीडिया को सत्ता पार्टी के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण से मुक्त रखा जाए। हमें आशा करनी चाहिए कि संसदीय कानून के 75 वर्ष पूरे पर हमें इन लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए।