गिग अर्थव्यवस्था (Gig economy) का उदय देश में श्रम बाजार में लोगों की भागीदारी बढ़ा सकता है। बता रहे हैं अजय शाह और मैत्रीश घटक
अनुबंध आधारित या अस्थायी रोजगार (गिग वर्क) को एक नई श्रम व्यवस्था के रूप के रूप में देखा जा रहा है। मगर यह अनौपचारिक क्षेत्र में श्रम उपलब्ध कराने का माध्यम भर है। यह शेष भारतीय श्रम बाजार की तरह ही है जहां अनौपचारिक श्रम व्यवस्था के माध्यम से श्रम बल उपलब्ध कराया जाता है।
तुलनात्मक रूप से कामगारों की संख्या, उपलब्ध कराए गए काम के घंटे, मासिक आय आदि के संबंध में अधिक अनुमानित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। सेंटर फॉर इंटरनेट ऐंड सोसाइटी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार किसी एक प्रकार के गिग कार्य (डिलिवरी) करने से सभी खर्च काटकर 15,000 रुपये प्रति महीने तक कमाई हो जाती है।
नीति आयोग के अनुसार देश में 44 करोड़ श्रम बल में 77 लाख गिग कर्मी महज एक छोटा हिस्सा हैं। हालांकि, ऐसे कर्मियों की संख्या बढ़ने की उम्मीद जताई जा रही है। इसका कारण यह है कि गिग कर्मियों की व्यवस्था फिलहाल केवल शहरी क्षेत्र में ही है और मुख्य रूप से सेवा क्षेत्र में सक्रिय है। मगर जब इनका दायरा बढ़ेगा तो गिग कर्मियों की संख्या में भी बढ़ोतरी होगी। लिहाजा, यह एक दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण शुरुआत है जो शहरी श्रम बाजार में सकारात्मक बदलाव ला सकता है।
कुछ प्रेक्षकों का कहना है कि गिग कार्य वेतनभोगी नौकरियों की तुलना में किसी व्यक्ति के लिए कम आकर्षक विकल्प है। वेतनभोगी रोजगार के आकर्षणों को देखते हुए इस तथ्य से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। मगर शहरी क्षेत्र में काम करने वाले 13.1 करोड़ लोगों में केवल 52 लाख ही वेतनभोगी कर्मचारी हैं, इसलिए यह भी सत्य है कि ऐसी नौकरियां सुलभ नहीं हैं।
शहरी क्षेत्र में ज्यादातर रोजगार अनौपचारिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत आते हैं जिनमें स्व-रोजगार एवं अल्प अवधि वाले वे कार्य होते हैं। इनमें काम के आधार पर एक तय रकम मिलती है। मोबाइल फोन से संचालित गिग कार्य भारतीय श्रम बाजार के अनौपचारिक ढांचे में अच्छी तरह फिट हो जाता है। मोबाइल फोन के जरिये रोजगार देने वाले व्यक्ति या इकाइयों से आसानी से संपर्क हो जाता है।
भारतीय श्रम बाजार की एक वास्तविक गंभीर समस्या यह नहीं है कि कुछ लोगों के पास ही वेतनभोगी नौकरियां हैं। वास्तविक समस्या यह है कि 15 वर्ष से अधिक उम्र के ज्यादातर लोग काम नहीं कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था के स्तर पर 1.12 अरब लोग ऐसे हैं जिनकी उम्र 15 वर्ष से अधिक है और केवल 44 करोड़ ही काम कर रहे हैं। इसी तरह, शहरी क्षेत्र में 15 वर्ष से अधिक उम्र के 38 करोड़ लोग हैं जिनमें केवल 13.1 करोड़ ही किसी न किसी रोजगार से जुड़े हैं। इनमें कई लोग कुछ स्व-रोजगार से जुड़ी गतिविधियों में शामिल हैं।
दूसरे देशों के अनुभव से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रम बाजार में लोगों की इतनी कम भागीदारी दीर्घ अवधि के टिकाऊ विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। वस्तुतः चुनौती यह है कि श्रम बाजार में भागीदारी किस तरह बढ़ाई जाए। देश की कुल आबादी में महिलाओं की भागीदारी के लिहाज से यह बात खासकर महत्त्वपूर्ण है।
उदाहरण के लिए शहरी महिलाओं की श्रम बाजार में भागीदारी महज 8 प्रतिशत है। वैसे श्रम बाजार में भागीदारी कुल 37.5 प्रतिशत है मगर ऐसे कई युवा एवं बुजुर्ग लोग हैं जो सदैव काम नहीं करते हैं। 20-25 साल उम्र के लोगों की श्रम बल में भागीदारी की दर 30 प्रतिशत और 60-64 वर्ष के लोगों के मामले में यह 15 प्रतिशत है।
लोगों के निर्णय लेने के तरीके के कारण भी श्रम बल भागीदारी कम है। इसकी इसकी समीक्षा जरूर की जानी चाहिए। वेतनभोगी नौकरियां कुछ लोगों को सहज नहीं लग रही होंगी। उदाहरण के लिए महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर व्यवस्था थोड़ी लचीली रखी जाए तो इससे उनकी श्रम बल में भागीदारी बढ़ सकती है। इससे महिलाएं यह तय कर सकेंगी कि वह कब और कितना काम निपटा सकती हैं। गिग कार्य यहां एक बेहतर विकल्प हो सकता है।
इसी तरह, बुजुर्ग या दिव्यांग व्यक्ति गिग अर्थव्यवस्था में काम को लेकर लचीलेपन को वेतनभोगी नौकरियों की तुलना में अधिक तरजीह दे सकते हैं। गिग कार्य बड़े शहरों में आसानी से उपलब्ध हैं जिससे ग्रामीण क्षेत्र से लोग शहरी क्षेत्र की ओर आकर्षित हो सकते हैं। ये सभी महत्त्वपूर्ण फायदे हैं।
भारत में अर्थशास्त्री राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एनआरईजीएस) को लेकर काफी उत्साहित रहे हैं। इस योजना का यह लक्ष्य एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना था जिसमें लोगों के पास श्रम आपूर्ति और न्यूनतम वेतन हासिल करने का विकल्प मौजूद रहे। गिग अर्थव्यवस्था व्यावहारिक रूप से शहरी रोजगार गारंटी योजना की तरह ही है। जिस किसी व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है उसके लिए अब काम करना एवं श्रम बाजार में भागीदारी दर्ज कराना आसान हो गया है। बस केवल एक मोबाइल फोन की आवश्यकता होती है और उसके बाद काम के साथ जुड़ने में एक से सात दिन का समय लगता है।
कोविड महामारी के दौरान लॉकडाउन में यह स्पष्ट रूप से दिखा जब आर्थिक संकट को देखते हुए कई लोग गिग कार्यों का हिस्सा बन गए। लोग खाली न बैठकर सामान एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा कर कुछ न कुछ कमाई करने लगे। इस तरह, शहरी क्षेत्र में गिग कार्य के उदय से शहरी क्षेत्र में आर्थिक सुरक्षा में भी सुधार हुआ है। यहां पर एक वैकल्पिक नजरिया भी हैः अगर कोई शहरी क्षेत्र में एनआरईजीएस की तर्ज पर सरकार के जरिये ईजीएस स्थापित करने का प्रयास करता तो यह राज्य की सीमित क्षमता को देखते हुए यह एक बड़ी चुनौती होती। गिग अर्थव्यवस्था के माध्यम से यह लक्ष्य अब आंशिक रूप से पूरा हो रहा है।
इस तरह, गिग अर्थव्यवस्था शहरी श्रम बाजार में एक महत्त्वपूर्ण सुधार है। यह नई जगह में आय प्राप्त करने की राह में आने वाली बाधाएं दूर कर यह लोगों को बड़े शहरों की तरफ आकर्षित कर रही है।
अगर गिग कार्य शहरी रोजगार गारंटी योजना है तो इसके साथ कम लोग क्यों जुड़ रहे हैं और शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी निचले स्तर पर क्यों नहीं आ रही है? इसके कई कारण हैं। परंपरागत नियम-कायदों के कारण महिलाएं घर से बाहर कम निकलती हैं। परिवार के भीतर संसाधनों का आवंटन कुछ इस तरह होता है कि मोबाइल फोन या स्कूटर महिलाओं के लिए उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। इनके अलावा कुछ दूसरे कारक भी मौजूद हैं जो गिग कार्य में लोगों की भागीदारी पर असर डालते हैं। इनमें सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी अवधारणा भी शामिल है जिसका हवाला देकर लोग वेतनभोगी नौकरियां पाने की ललक में बाकी सभी विकल्पों को ठोकर मार देते हैं।
इसके अलावा सामाजिक कारकों और विभिन्न मौद्रिक एवं गैर-मौद्रिक खर्च से भी ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र की ओर पलायन थम जाता है। ये बाधाएं लगातार असर डालती हैं और गिग अर्थव्यवस्था के लाभ शहरी श्रम बाजार को पूरी तरह नहीं मिल पाते हैं।
वेतनभोगी नौकरी को मानक बनाकर गिग कार्य को कोसना अनुचित है। कोई भी देश अपने संपूर्ण कार्य बल को अच्छे वेतन वाली नौकरियां देने में सक्षम नहीं रहा है। एक गतिशील अर्थव्यवस्था में कारोबार गिरता-चढ़ता रहता है और रोजगार पैदा होते हैं और खत्म होते रहते हैं। हम सोचते हैं कि केवल आलोचना पर ध्यान केंद्रित करने से हमारा ध्यान अधिक वाजिब एवं संबंधित पहलुओं से भटक जाता है। कामकाजी माहौल एवं वित्तीय ढांचे में सुधार से गिग कर्मियों की आय में अनिश्चितता दूर की जा सकती है।
भारत के सामने दो विकल्प हैं। इनमें एक गिग कार्य को भारतीय अनौपचारिक श्रम बाजार के बराबर ओहदा देना है या दूसरा औपचारिक श्रम बाजार का दबाव इस पर डालना है। बेहतर कामकाजी माहौल की वाजिब जरूरतें संतुलित करने के लिए किसी तरह का हस्तक्षेप सावधानी से किया जाना चाहिए, मगर साथ ही रोजगार की ठोस एवं लाभकारी व्यवस्था को नुकसान भी नहीं पहुंचना चाहिए।
(शाह एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता और घटक लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में अध्यापन करते हैं)