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राष्ट्र की बात: विधानसभा चुनावों में खराब विचारों की वापसी

मोटे तौर पर एक तरफ बुरे विचार हैं सब्सिडी और मुफ्त उपहार देना तथा दूसरी ओर जाति जनगणना तथा आरक्षण में इजाफा।

Last Updated- November 27, 2023 | 12:45 AM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनका दल मौजूदा विधानसभा चुनावों में उन बड़े विचारों का इस्तेमाल नहीं कर रहे जिन्हें वे आमतौर पर प्रयोग में लाते है।

तकरीबन एक चौथाई सदी से हमारे राजनीतिक चक्र में एक खास रुझान देखने को मिल रहा है जहां तीन प्रमुख राज्यों में आम चुनाव से करीब छह महीने पहले चुनाव होते हैं। इन चुनावों को बड़े फाइनल के पहले सेमीफाइनल कहना लुभावना हो सकता है लेकिन यह गलत भी है।

हम 2003 से ही जानते हैं कि ये चुनाव आम चुनाव के बारे में बहुत भ्रामक तस्वीर पेश करते हैं। हालांकि इन चुनावों में आपका सामना उन बड़े विचारों से हो सकता है जो आने वाले वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं। हालांकि वर्तमान चुनावी मौसम में छोटे विचारों की वापसी हुई है। खासकर पहले देखे जा चुके विचारों जैसे बुरे विचारों की। कुछ विचार तो ज्यादा ही बुरे हैं।

अगर आम चुनावों में यही हमारी राजनीति को परिभाषित करेंगे तो भविष्य निराशाजनक है। मोटे तौर पर एक तरफ बुरे विचार हैं सब्सिडी और मुफ्त उपहार देना तथा दूसरी ओर जाति जनगणना तथा आरक्षण में इजाफा।

मैं मानता हूं कि एक मतदाता के लिए जो नि:शुल्क उपहार है वह दूसरे के लिए सशक्तीकरण का उपाय हो सकता है। परंतु हमारी नजर में सशक्तीकरण का सबसे बड़ा माध्यम आर्थिक वृद्धि और साहसी सुधार हैं। उसके लिए एक किस्म के धैर्य की जरूरत है जो वर्तमान की हड़बड़ी भरी राजनीति में नहीं नजर आता।

महज 15 वर्ष पहले हम दो दशकों की धर्म और जाति की मुश्किलों वाली राजनीति के बाद आकांक्षी मतदाताओं की सराहना कर रहे थे। धर्म की राजनीति ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की मत हिस्सेदारी बढ़ाई जबकि जाति की राजनीति ने हिंदी क्षेत्र में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को मदद पहुंचाई। हमने इस तथ्य को सराहा कि 2009 से भारतीय मतदाताओं खासकर युवाओं ने बेहतर भविष्य के लिए मतदान किया। उम्मीद की राजनीति, बदले की राजनीति पर भारी पड़ रही थी और इसका जश्न मनाना उचित ही था।

भारतीय राजनीति में यह स्थापित तथ्य है कि दबदबे वाले नेता ही अपने दौर के मुद्दे तय करते हैं और बाकी नेता उनका प्रतिकार करते हैं। भारत इस मायने में एक विशिष्ट लोकतांत्रिक देश है कि यह हमेशा एकध्रुवीय रहता है। एक दबदबे वाला दल होता है और बाकी सब उससे जूझ रहे होते हैं।

पहले चुनाव के करीब 60 वर्ष बाद तक हम कांग्रेस के नेतृत्व वाली एकध्रुवीय व्यवस्था में जीते रहे। बाकी सारी राजनीति कांग्रेस या गांधी परिवार के विरोध में रहती। उस समय कई बार समाजवादियों, हिंदी प्रदेश के दलों और भाजपा के मातृ संगठन भारतीय जन संघ का विपक्ष पर दबदबा था।

परंतु वे कभी कांग्रेस या गांधी परिवार के खिलाफ बड़ा विचार तैयार नहीं कर पाए। यानी वे वैचारिक स्तर पर दूसरा ध्रुव नहीं तैयार कर सके। तब भी नहीं जब 1977 में जनता पार्टी के रूप में एक दल के रूप में एकत्रित हुए।

यह अवधि 2013 में नरेंद्र मोदी के उभार के साथ समाप्त हुई। तब से अब तक हम अपने दूसरे एकध्रुवीय दौर में प्रवेश कर गए हैं और वह है मोदी की भाजपा का। वह जिस तरह अपनी राजनीति और अपनी नीतियों को परिभाषित करते हैं, उससे उन्हें चुनौती देने वालों को अपना प्रतिवाद तैयार करना होता है। हां चूंकि वे एक स्पष्ट परिभाषित विचारधारा से आते हैं इसलिए प्रतिद्वंद्वियों को प्रतिकिया देने में मदद मिलती है।

संभव है उनके बीच बहुत अधिक वैचारिक या राजनीतिक समन्वय न हो लेकिन वे एक मुद्दे पर साझा स्वर में बोलते हैं: धर्मनिरपेक्षता की उनकी परिभाषा बनाम भाजपा का हिंदुत्व। हालांकि बाद में उनमें से कई ऐसा करने से हिचकने लगे। हिंदू मतदाताओं के अलग-थलग हो जाने का डर साफ है और उसे समझा भी जा सकता है।

आप मोदी को वोट देते हों या नहीं लेकिन यह तो मानेंगे कि वह अपना मंच खुद तैयार करते हैं। वह एक बड़ा मुद्दा तय करते हैं जो आगे की लड़ाई को निर्धारित करता है। क्या उन्होंने हालिया चुनावों में ऐसा कुछ किया है?

तथ्य यह है कि वह और उनकी पार्टी जिन तीन चीजों के बारे में बात कर रही है वह हैं नि:शुल्क उपहार (जिसमें सब्सिडी और बाजार को नुकसान पहुंचाने वाले हस्तक्षेप शामिल हैं), जाति और धर्म आधारित मुद्दे हैं। जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहा है वहां मुख्यतया कांग्रेस से ही लड़ाई है। वह तीन राज्यों में से पहले दो में इन्हीं बड़े मुद्दों पर बातचीत कर रही है।

धर्म काफी हद तक भाजपा का चुनावी एजेंडा है और उसके सभी प्रचार अभियानों में नजर आता है। जाति के मोर्चे पर उसकी प्रारंभिक प्रतिक्रिया थी जाति सर्वेक्षण प्रकाशित करने के लिए बिहार सरकार की निंदा करना। राहुल गांधी इस मुद्दे पर आबादी के मुताबिक पिछड़ा वर्ग के आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात कह रहे हैं।

चुनाव के पहले 2 अक्टूबर को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में 19,000 करोड़ रुपये की परियोजनाओं की घोषणा करते हुए मोदी ने कहा, ‘विपक्ष ने अपने समय में गरीबों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया तथा वे अभी भी वही कर रहे हैं। उस समय उन्होंने लोगों को जाति के नाम पर बांटा और आज भी वे यही कर रहे हैं।’

परंतु तेलंगाना में उन्होंने जाति को लेकर अच्छा माहौल बनाया, खासतौर पर मडिगाज को लेकर जो दलितों में सबसे बड़ा समूह है और तेलंगाना के मतदाताओं में 16 फीसदी का हिस्सेदार है। व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि तेलंगाना के दलितों में दूसरा बड़ा समूह-माला कहीं अधिक बड़ा लाभार्थी है।

प्रभावी रूप से देखें तो वह ऐसा वादा कर रहे हैं जो जाति केंद्रित दलों से अलग नहीं है: आबादी के अनुपात में लाभ की हिस्सेदारी। राजस्थान में अपने प्रचार अभियान में उन्होंने गुर्जर मतदाताओं को याद दिलाया कि कैसे उनके नेताओं मसलन पायलट परिवार के साथ कांग्रेस ने ‘बुरा व्यवहार’ किया।

उपहारों आदि को लेकर उनके रुख में आया बदलाव सबसे उल्लेखनीय है। उन्होंने16 जुलाई, 2022 को ऐसी घोषणाओं को रेवड़ी कहा था। इस वर्ष अप्रैल के बाद उन्होंने सार्वजनिक रूप से रेवड़ी शब्द नहीं दोहराया है। खुद उनकी पार्टी की राजनीति पूरी तरह बदली हुई है और उनकी सरकार सब्सिडी पर ‘भारत ब्रांड’ आटा बेच रही है।

शायद कर्नाटक की चुनावी हार के बाद लगे झटके ने उन्हें और उनकी पार्टी को हिला दिया। हमारी राजनीति में यह एक चिरपरिचित तरीका है जहां हारने वाला अपने भीतर झांकने के बजाय बाहरी कारणों पर दोषारोपण करना चाहता है। यदि ऐसा न होता तो भाजपा को पता होता कि वह अपने मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई के खराब शासन की कीमत चुका रही है।

उलटे उसने हार के लिए कांग्रेस की मुफ्त घोषणाओं, उसकी पांच गारंटियों को वजह ठहराया। प्रधानमंत्री की ओर से रेवड़ी संस्कृति के भाषणों के कुछ महीने के भीतर भाजपा ने चुनावी राज्यों में इसी आधार पर रणनीति तैयार कर ली।

भाजपा ने राजस्थान के प्रचार अभियान में एक पोस्टर का इस्तेमाल किया जिस पर लिखा था- ‘मोदी की गारंटी’। इसमें 20 वादे किए गए हैं जिनमें युवतियों के लिए दो लाख रुपये की बॉन्ड जमा राशि और मुफ्त स्कूटी देने के अलावा गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस तथा गरीब विद्यार्थियों को परिधान खरीदने के लिए 1,200 रुपये हर वर्ष देने की बात कही गई है।

मध्य प्रदेश में उनकी पार्टी ने पहले ही कांग्रेस की ओर से महिलाओं को आर्थिक मदद देने की योजना को पूरी तरह अपना लिया है। कांग्रेस ने तो मध्य प्रदेश की आईपीएल टीम बनाने को भी चुनाव घोषणा पत्र का हिस्सा बना दिया है।

संभव है कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन करे लेकिन यह पहला अवसर है जब उसने चुनाव प्रचार का अपना जांचा-परखा और सफल तरीका विपक्ष के कारण बदला है। यह हमें जाति और कथित रेवड़ी संस्कृति पर उसके रुख में बदलाव से समझ में आ गया।

प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने इन चुनावों में बिना किसी बड़े विचार के प्रचार किया है। निश्चित तौर पर किसी भी कीमत पर हर चुनाव जीतना भी अपने आप में एक बड़ा विचार हो सकता है।

First Published - November 27, 2023 | 12:45 AM IST

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