रूसी सेना के टैंकों, विमानों और सैनिकों द्वारा यूरोप पर धावा बोलने को एक वर्ष पूरा हो चुका है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह यूरोप में सबसे बड़ा जमीनी आक्रमण है। सन 1939 में पोलैंड पर हुए हमले से अलग यूक्रेन ने कुछ हफ्तों में समर्पण नहीं किया। रूस में सत्ता का जो समीकरण है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि युद्ध की प्रकृति और पैमाना यकीनन उसके शीर्ष नेतृत्व का चयन रहा होगा यानी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन का। अगर उनका निर्णय और यह युद्ध योजना के मुताबिक अंजाम को नहीं पहुंचा तो निश्चित रूप से निर्णय लेने में कुछ चूक हुई होंगी जिन्हें चिह्नित करना होगा। अगर हम उन्हें चिह्नित कर सके तो यकीनन कुछ सीखने को मिलेगा। आंशिक सूची इस प्रकार है:
यथासंभव मशविरा करें। जैसा कि फाइनैंशियल टाइम्स ने इस सप्ताह प्रकाशित किया, रूस के विदेश मंत्री तक को हमले के कुछ घंटे पहले तक इसकी जानकारी नहीं थी। राष्ट्रपति ने हमला होने के बाद शीर्ष राजनीतिक और आर्थिक लोगों को निर्णय की जानकारी दी।
जितना अस्वाभाविक निर्णय हो, उतना ही अधिक मशविरा होना चाहिए। कुछ कदम, उदाहरण के लिए यह हमला या भारत में नोटबंदी आदि अनपेक्षित होते हैं क्योंकि कुछ ही पर्यवेक्षकों ने उन्हें समझदारी भरा विकल्प माना। अगर ऐसे निर्णय बिना व्यापक विचार विमर्श के लिए जाते हैं तो यही उनके खराब विचार होने की बुनियादी वजह होती है।
अपनी क्रियान्वयन क्षमता को लेकर सुनिश्चित रहें। रूस की सैन्य अक्षमता न केवल वैश्विक पर्यवेक्षकों बल्कि स्वयं रूसी सत्ता प्रतिष्ठान में कई लोगों के लिए एक झटके के समान थी। अगर रूस इस कमजोरी का आकलन पहले कर लेता तो शायद वह यूक्रेन पर हमला ही नहीं करता। हथियारों की गुणवत्ता, उनके रखरखाव की भी अनदेखी की गई। कुछ हथियार तो केवल कागजों पर थे।
पड़ताल करें कि आपका निर्णय समझदारी से संचालित है या नहीं। शायद रूस इस अतिआत्मविश्वास का शिकार था कि वह यूक्रेन, उसकी सरकार और उसकी राष्ट्रीय पहचान को थोड़ी सी ताकत लगाकर ध्वस्त कर देगा। यह धारणा विफल रही और इस बात ने रूस को बहुत बड़ा झटका दिया। यूक्रेन में रहने वाले रूस समर्थक कुलीन और राजनेता विक्टर मेदवेदचुक के मन में भी यही धारणा थी। परंतु जब टैंकों ने सीमा पार की तो उनकी पार्टी ने भी कह दिया कि वह यूक्रेन के साथ है।
इतिहास एक अविश्वसनीय मार्गदर्शक है। फाइनैंशियल टाइम्स के मुताबिक रूस के विदेश मंत्री ने साल भर पहले कुलीनों से कहा था कि उनके राष्ट्रपति के पास केवल तीन सलाहकार हैं ‘इवान द टेरिबल, पीटर द ग्रेट और कैथरीन द ग्रेट।’ इन तीनों शासकों ने तत्कालीन रूस की सीमा का विस्तार किया लेकिन उस समय हालात आज के रूस जैसे नहीं थे। आज का रूस दूसरे विश्वयुद्ध की भी याद करता है जिसे वह महान देशभक्ति युद्ध कहता है और उसके मुताबिक वह सिखाता है कि दुनिया के खिलाफ अकेले जीत हासिल की जा सकती है। यह बात सोवियत संघ के लिए सही हो सकती है लेकिन रूस के लिए नहीं।
यह कल्पना करें कि आपका विरोधी स्थिर रहेगा। जब रूस ने यूक्रन के एक हिस्से पर कब्जा किया था तब यूक्रेन की सेना कमजोर और बिना तैयारी के थी। 2022 में हालात ऐसे नहीं थे। बीते एक साल में यूक्रेन ने न केवल दिखाया है कि वह सीख रहा है बल्कि उसने अलग-अलग तरह के हथियारों और प्लेटफॉर्म का भी उपयोग किया है। इससे रूसी सेना का काम लगातार कठिन हुआ है। इस बीच रूस को पैसा उपलब्ध कराने के प्रमुख स्रोत यूरोपीय ऊर्जा क्षेत्र ने भी रूस से दूरी बना ली है।
व्यक्तिगत चयन का संबंध क्षमता से होना चाहिए न कि नीतिगत बदलाव के कवर के लिए। रूसी सेना में कमांड स्तर पर बदलाव के कारण बहुत अस्पष्ट हैं। परंतु कई मामलों में यह बात साफ नजर आती है कि अफसरशाही और राजनीतिक अंदरूनी लड़ाइयों के चलते हालत खराब है और चुपचाप लड़ाई की रणनीति बदल दी गई है।
अक्टूबर में जब सर्गेई सुरोविकिन को प्रभार सौंपा गया तो माना गया था कि यह उस रणनीति के लिए बचाव है जिसके तहत निजी सेना को सैन्य नियोजन में शामिल किया जाना है। जनवरी में जब उन्हें वैलेरी जेरासिमोव से बदला गया तो शायद यह इस बात का संकेत था कि यूक्रेन के भूभाग पर हमला होगा और निजी सैन्य गतिविधियां कम होंगी। दोनों ही कारगर नहीं हुए अस्पष्टता और पारदर्शिता की कमी के कारण दोनों ही कारगर नहीं हुए।
n अपने से बड़े देशों से समान साझेदारी की अपेक्षा न करें। जैसे-जैसे जंग लंबी खिंच रही है, यूरोप रूस की ऊर्जा से और अधिक मुक्त होता जा रहा है। रूस की सेना दिन पर दिन कमजोर पड़ती जाएगी। चीन पर उसकी निर्भरता बढ़ेगी। यह 1950 का दशक नहीं है जब सोवियत संघ कोरियन युद्ध में वरिष्ठ साझेदार था। क्या रूस चीन का कनिष्ठ बनकर रह जाएगा? कुछ दिन पहले खबर आई थी कि चीन के प्राकृतिक संसाधन मंत्रालय ने नक्शों को लेकर नए नियम जारी किए हैं जिनके तहत रूस की सीमा से लगने वाले आठ स्थानों मसलन व्लादिवोस्तो और सखालिन आदि को आधिकारिक रूसी नामों के अलावा पुराने चीनी नाम दिए जाएंगे।
बिना क्षमता के बड़ा दांव न खेलें। रूसी नेतृत्व के लिए युद्ध का सबसे बुरा दौर रहा दक्षिण से खासकर खेरसॉन शहर से पीछे लौटना वह भी तब जब कुछ ही सप्ताह पहले रूस ने खेरसॉन और उसके प्रांत को औपचारिक रूप से दखल किया था। कब्जे से पहले वहां से वापसी को सामरिक नीति माना जाता लेकिन बाद में ऐसा करने का अर्थ था अपनी जमीन शत्रु को सौंपना। मुझे यकीन नहीं होता कि अगर रूसी नेतृत्व को एक वर्ष पहले इन हालात का अंदाजा होता तो वह हमला करने की सोचता भी। यह भी सोचने वाली बात है कि इससे विश्व व्यवस्था में रूस की हैसियत क्या रह जाएगी।
आखिर में बात करते हैं दूसरे पक्ष की। क्या यूक्रेन के इस असाधारण प्रतिरोध से कोई सबक लिया जा सकता है। मैं इससे एक बड़ा सबक लेता हूं।
हथियारों की मांग करें। यूक्रेन का अगर युद्ध में जल्दी पतन नहीं हुआ तो इसकी वजह यह थी कि उसका नेतृत्व प्रतिबद्ध और आत्मविश्वास से भरा हुआ था। याद कीजिए कैसे युद्ध शुरू होने के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति, उनके मंत्रियों और सलाहकारों का एक वीडियो कीव की सड़कों से आया था जिसमें वे कह रहे थे कि वे वहां मौजूद हैं। दोनों देशों के नेतृत्व का प्रदर्शन इस बात का उदाहरण है कि बीते साल इस जंग ने क्या शक्ल अख्तियार की।