केंद्र सरकार द्वारा तत्कालीन जम्मू कश्मीर प्रांत का विशेष संवैधानिक दर्जा समाप्त किए जाने के चार वर्ष बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस कदम की संवैधानिकता पर मुहर लगा दी है।
देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस विषय पर विभिन्न याचियों द्वारा उठाए गए तमाम प्रश्नों का जवाब दिया है जो केंद्र सरकार के निर्णय के हक में है। यहां तक कि उठाए गए कुछ खास बिंदुओं को लेकर भी केंद्र सरकार अदालत के निर्णय से खुश होगी।
न्यायाधीशों ने कहा कि पहली बात तो जम्मू कश्मीर का अलग संविधान होने का राज्य को भारत के भीतर विशेष दर्जा मिलने में कोई योगदान नहीं है।
दूसरा, अनुच्छेद 370 हमेशा से अस्थायी प्रावधान था, भले ही उसका उल्लेख संविधान में है। आखिर में, अगस्त 2019 की राष्ट्रपति की उद्घोषणाएं कानून और प्रक्रियागत दृष्टि से उचित थीं। न्यायमूर्ति कौल के एक अलग लेकिन सहमति वाले निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाया कि जम्मू कश्मीर में एक सत्य एवं सुलह आयोग होना चाहिए।
यह दर्शाता है कि न्यायपालिका वहां की राजनीतिक हकीकतों और मानवाधिकार संबंधी चिंताओं को लेकर लेकिन कितनी संवेदनशील है।
भविष्य में भी कश्मीर का प्रश्न हमेशा की तरह एक गहन राजनीतिक सवाल बना रहेगा जिसका उत्तर भी प्रक्रियागत नहीं राजनीतिक ही होगा। यह तीसरा बिंदु और राष्ट्रपति की उद्घोषणाओं से उत्पन्न संबंधित प्रश्न देश के कई अन्य राज्यों में चिंता पैदा करेंगे।
संक्षेप में पहले भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू किया फिर संकेत दिया कि राज्य का राज्यपाल या भारत का राष्ट्रपति राज्य विधानसभा से संबंधित सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन करेगा। इस तरह उसने संकेत दिया कि जम्मू कश्मीर की ‘संविधान सभा’ की सहमति राष्ट्रपति की सहमति के परिणामस्वरूप हासिल की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह ‘शक्ति का अनावश्यक प्रयोग’ था। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि राष्ट्रपति की उद्घोषणाओं के बाद प्रदेश को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया गया और न्यायालय ने भी इसका अनुमोदन किया है।
एक मात्र बिंदु जिस पर न्यायालय ने रोक लगाई वह है कि क्या भारत की संसद के पास यह अधिकार है कि वह एकतरफा ढंग से किसी राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में बदल दे।
सॉलिसिटर जनरल ने बहस के दौरान संकेत दिया था कि राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा, हालांकि इसके लिए कोई समयसीमा नहीं तय की गई। बहरहाल, न्यायालय ने जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने की समय सीमा साफ तौर पर तय कर दी।
इस निर्णय से राज्यों के मुकाबले केंद्र सरकार की शक्तियां बढ़ती हुई प्रतीत होती हैं जो राजनीतिक रूप से अस्थिर करने वाला साबित हो सकता है। खासकर तब जबकि तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां निर्वाचित सरकारों और नियुक्त राज्यपालों के बीच निरंतर विवाद की स्थिति बनी रहती है।
इस बात को अच्छा नहीं माना जाएगा कि केंद्र सरकार पहले किसी प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाए और फिर उसके विभाजन के लिए राज्य विधानसभा के बजाय संसदीय मंजूरी प्राप्त करे। कम से कम देश के उन हिस्सों में तो इसका स्वागत बिल्कुल नहीं होगा जहां केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर पहले ही चिंताजनक हालात बने हुए हैं।
राज्य का दर्जा एकतरफा तरीके से छीनने के मामले में निर्णय की विफलता कई राज्यों को बेचैन कर सकती है। केंद्र के सत्ताधारी दल ने अपने एक ऐतिहासिक एजेंडे के क्रियान्वयन में सांकेतिक विजय हासिल की है। परंतु इस के तरीके पर जो सवाल उठे हैं वे बरकरार रहेंगे। यदि उन प्रश्नों को हल करना है तो केंद्र सरकार की ओर से अधिक समावेशी तथा सतर्क राजनीति की आवश्यकता होगी।