बदलते वैश्विक परिदृश्य में जहां वृद्धि की संभावना धीमी पड़ी है, भारत के लिए सात फीसदी की अधिक की दर से वृद्धि हासिल करना चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। बता रहे हैं टीटी राम मोहन
महामारी के बाद भारत के वृद्धि संबंधी परिदृश्य में सुधार हुआ है। देश में और विदेशों में भी यह भावना है कि भारत का मौका आ गया है। भारतीय रिजर्व बैंक और मुख्य आर्थिक सलाहकार दोनों इस बात को लेकर पुरयकीन हैं कि वित्त वर्ष 24 में अर्थव्यवस्था 6.5 फीसदी की दर से विकसित होगी। मध्यम अवधि के वृद्धि पूर्वानुमानों को लेकर भी आशावाद है। मुख्य आर्थिक सलाहकार का मानना है कि आने वाले दशक में 6.5 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करना संभव है।
दीर्घावधि की बात करें तो रिजर्व बैंक का अनुमान है कि अगर अगले 25 वर्षों तक आर्थिक वृद्धि दर 7.6 फीसदी हो तभी भारत का प्रतिव्यक्ति आय का स्तर 2048 तक विकसित देशों के स्तर के बराबर हो पाएगा। प्रश्न यह है कि यह लक्ष्य हकीकत के कितना करीब है?
सन 2008 में विश्व बैंक ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद के वृद्धि संबंधी अनुभवों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस अध्ययन को नोबेल पुरस्कार विजेता माइकल स्पेंस के नेतृत्व वाली एक टीम ने अंजाम दिया था। इस अध्ययन में उल्लिखित तीन बिंदु रेखांकित करने योग्य हैं:
· 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक यह बात सुनी भी नहीं गई थी कि 7 फीसदी की वृद्धि दर निरंतर 25 वर्षों तक हासिल की जा सकती है।
· दूसरे विश्व युद्ध के बाद केवल 13 देशों ने ऐसा करने में सफलता हासिल की। इनमें से करीब आधे देश छोटी अर्थव्यवस्था वाले थे जिनके अनुभव भारत के लिए कोई खास प्रासंगिक नहीं हैं।
· सात फीसदी की वृद्धि दर इसलिए संभव हो सकी कि पूरी विश्व अर्थव्यवस्था खुली और एकीकृत थी जिसने निर्यात के लिए एक बड़ा बाजार मुहैया कराया।
स्पष्ट है कि लंबे समय तक उच्च वृद्धि हासिल करना आसान नहीं है और ऐसा केवल तब होता है जब वैश्विक हालात अनुकूल हों। भारत के लिए समस्या यह है कि वैश्विक आर्थिक हालात काफी प्रतिकूल हैं। गत माह जैकसन होल संगोष्ठी में भी यह बात स्पष्ट हो गई। ये विश्व अर्थव्यवस्था के कुछ ऐसे रुझान हैं जिनकी बदौलत विश्व अर्थव्यवस्था में वृद्धि की आशा रखने वालों को चिंतित होना चाहिए।
पहली बात, वैश्वीकरण की स्थिति को उलटा जा रहा है विश्व युद्ध के बाद का खुला आर्थिक माहौल भी पहले जैसा नहीं है। यह सिलसिला 2007 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौर में शुरू हुआ और महामारी के दौर में इसने जोर पकड़ा। यूक्रेन युद्ध के समय इसमें और गति आई।
संरक्षणवाद के संकेत हर जगह नजर आ रहे हैं। विभिन्न देश अपने व्यापार साझेदार चुनने में और सावधानी बरत रहे हैं। इसके साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वे आत्मनिर्भरता पर भी जोर दे रहे हैं।
इस तरह का वैश्विक बंटवारा वैश्विक आर्थिक वृद्धि को प्रभावित करेगा। विश्व व्यापार संगठन का अनुमान है कि अगर दुनिया की अर्थव्यवस्था दो विरोधी कारोबारी ब्लॉक में बंट जाती है तो लंबी अवधि में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में कम से कम पांच फीसदी की कमी आएगी।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अप्रैल 2023 में प्रस्तुत विश्व आर्थिक परिदृश्य अनुमान जताता है यदि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आवक दो ब्लॉक में बंटने पर वैश्विक उत्पादन मध्यम अवधि में एक फीसदी और दीर्घावधि में दो फीसदी घटेगा।
दूसरा, सार्वजनिक ऋण का स्तर पहले से ऊंचा है। जैकसन होल कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत एक पर्चे में अनुमान लगाया गया कि वैश्विक सार्वजनिक ऋण एक दशक पहले के 40 फीसदी से बढ़कर 60 फीसदी हो गया है। विकसित देशों में अनुपात 50 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। पर्चे में कहा गया है कि सार्वजनिक ऋण के ये स्तर निकट भविष्य में बरकरार रहेंगे।
उच्च सरकारी ऋण मुश्किल वक्त में सरकार की प्रतिक्रिया देने की क्षमता को प्रभावित करता है। ऐसे झटके लंबी अवधि में अनिवार्य तौर पर सामने आते हैं। ये झटके सरकार की वित्तीय और सामाजिक अधोसंरचना को फाइनैंस करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं जो सभी स्तरों पर निरंतर वृद्धि के लिए आवश्यक है। कम आय वाले देशों पर कर्ज का बोझ अधिक होगा। तीसरे कारक का उल्लेख स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने अपने पर्चे में किया।
उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि मानवता के पास नए विचारों का अभाव है। जबकि वृद्धि को आगे बढ़ाने के लिए नए विचारों और ज्ञान के उत्पादन की आवश्यकता है। शोध में लगातार बढ़ते निवेश के बीच विकसित देशों में वृद्धि मजबूत नहीं हुई है। अमेरिका की वृद्धि दर का रुझान दो फीसदी पर स्थिर है। स्पष्ट है कि शोध उत्पादकता में कमी आ रही है।
इतना ही नहीं दीर्घावधि के दीर्घकालिक घटक मसलन आबादी में वृद्धि घट रही है। अमेरिका में कुल कारक उत्पादकता सालाना 1.3 फीसदी बढ़ी है। इसमें से आबादी की वृद्धि महज 0.3 फीसदी की जिम्मेदार है। दुनिया के कई हिस्सों में आबादी वृद्धि ऋणात्मक हो रही है। कम आबादी का अर्थ है नए विचार उत्पन्न करने वाली प्रतिभाओं में कमी।
आशावादी सोचते हैं कि आर्टिफिशल इंटेजिलेंस लोगों की जगह सोचने वाली मशीनों की मदद से इसकी स्थानापन्न बनेगी। पर्चे के लेखक ने कहा हमें आर्टिफिशल इंटेजिलेंस से किसी चमत्कार की उम्मीद करते हुए सतर्क रहना चाहिए। बीते दो वर्षों से स्वचालन हो रहा है लेकिन वृद्धि स्थिर रही है। वह संकेत देते हैं कि आर्टिफिशल इंटेजिलेंस अमेरिका को थोड़ी लंबी अवधि तक दो फीसदी की वृद्धि हासिल करने में मदद करेगी।
मध्यम अवधि के परिदृश्य की बात करें तो वह भी बहुत बेहतर नहीं है। यूरोपीय केंद्रीय बैंक की प्रमुख क्रिस्टीन लेगार्ड ने कहा कि मुद्रास्फीति कुछ समय तक ऊंचे स्तर पर बनी रहेगी। ऐसा श्रम और ऊर्जा बाजार में बदलाव की वजह से हुआ।
पश्चिम में श्रम आपूर्ति महामारी के बाद घटी है। ऐसा इसलिए हुआ कि कुछ कामगारों ने दोबारा काम पर नहीं लौटने का निर्णय लिया जबकि अन्य ने कम समय तक काम करना शुरू कर दिया। ऊर्जा बाजार में भी आपूर्ति कम हुई है।
श्रम और ऊर्जा की घटी आपूर्ति, बढ़ी हुई निवेश मांग आदि सभी मुद्रास्फीति को बढ़ाते हैं। इसकी बदौलत ब्याज दर बढ़ती हैं और वृद्धि प्रभावित होती है।
मध्यम अवधि के आकलन में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का भी यही रुख है। आईएमएफ का मानना है कि अगले पांच वर्ष तक विश्व अर्थव्यवस्था तीन फीसदी की दर से विकसित होगी जो बीते दो दशक के 3.8 फीसदी के औसत से कम होगा। विश्व बैंक का मानना है कि 2030 में वैश्विक वृद्धि तीन दशक के निचले स्तर पर होगी। आने वाले वर्षों में वैश्विक वृद्धि को लेकर निराशा गलत साबित हो सकती है।
तकनीकी उन्नति से वृद्धि में इजाफा हो सकता है। संभव है वैश्वीकरण भी दोबारा जोर पकड़ ले। बहरहाल फिलहाल जो हालात हैं उनमें 25 वर्ष तक लगातार सात फीसदी से अधिक वृद्धि बरकरार रखना भारत के लिए चुनौतीपूर्ण होगा।