घरेलू कार निर्माताओं को शुल्क में कटौती से दिक्कत हो सकती है जैसा कि ऑस्ट्रेलिया में भी देखा गया है। बता रहे हैं अजय श्रीवास्तव
भारत के वाहन उद्योग में जल्द ही बड़े बदलाव और हलचल की स्थिति बनती दिख सकती है क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर चीन की वाहन कंपनियों खासतौर पर इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रवेश हो रहा है। इन बदलावों का असर मौजूदा वाहन निर्माताओं पर पड़ने के साथ ही नौकरियों और आयात पर भी होगा।
अगले कुछ वर्षों में चीन की कंपनियां प्रत्यक्ष तरीके से या भारतीय कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम के तहत प्रत्येक तीन इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) में से एक वाहन बना सकती हैं। इसके अलावा वे भारत की सड़कों के लिए यात्री और व्यावसायिक वाहन बना सकती हैं।
एसएआईसी मोटर्स (एमजी ब्रांड के मालिक) और भारत के जेएसडब्ल्यू समूह के बीच एक संयुक्त उपक्रम का लक्ष्य 2030 तक 10 लाख नए स्वच्छ ऊर्जा वाहन बेचना है। 1980 के दशक में जिस तरह मारुति सुजूकी ने देश के वाहन क्षेत्र में क्रांति लाने का काम किया था, ठीक उसी तरह से इस संयुक्त उपक्रम के जरिये भी कुछ ऐसा ही किया जा सकता है।
एसएआईसी मोटर्स चार बड़ी सरकारी चीनी वाहन निर्माता कंपनियों में से एक है। वर्ष 2007 में एसएआईसी मोटर्स ने ब्रितानी कार निर्माता कंपनी, एमजी रोवर्स की संपत्ति का अधिग्रहण किया था जब यह दिवालिया हो गई थी। यह गुजरात के हलोल के एक संयंत्र का इस्तेमाल कर हेक्टर और जेएस ईवी जैसे वाहन, भारतीय बाजार के लिए बना रही है। इस संयंत्र का स्वामित्व पहले जनरल मोटर्स के पास था।
केवल एसएआईसी मोटर्स ही इस होड़ में अकेले नहीं है। चीन की कार कंपनी बीवाईडी (बिल्ड योर ड्रीम्स) ऑटो भी भारत में इलेक्ट्रिक वाहन बेचती है और साथ ही बसें, ट्रक, कार और स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल (SUV) भी बेचती है।
बीवाईडी (BYD) ने मेघा इंजीनियरिंग के साथ साझेदारी के जरिये ओलेक्ट्रा ब्रांड के तहत स्वतंत्र तरीके से व्यावसायिक वाहन क्षेत्र में प्रवेश किया है। हाल ही में बीवाईडी ने भी पूरी तरह तैयार वाहन (सीबीयू) का आयात शुरू किया है। इसी तरह वॉल्वो कार का आयात भी चीन से किया जा रहा है जो असेंबल किए जाने वाले वाहन (सीकेडी) के किट के तौर पर आता है।
चीन की कंपनियां जैसे कि चांगान ऑटोमोबिल, जिंको सोलर और चोंगतोंग बस और फोटॉन मोटर सहित कई बस और ट्रक निर्माता कंपनियों की मौजूदगी है जो देश में चीन के वाहन क्षेत्र की उपस्थिति में अपना योगदान दे रही हैं। इसके अलावा ग्रेट वॉल मोटर्स और हाइमा ऑटोमोबाइल जैसी कंपनियां भी भारतीय बाजारों में प्रवेश करने की कोशिश में हैं।
भारतीय सड़कों पर चलने वाले ई-रिक्शा और दोपहिया वाहन भी चीन के कलपुर्जों से बने हुए हैं। भारत चीन की कंपनियों को काफी राहत पहुंचाता है। यूरोपीय संघ और अमेरिका में चीन के इलेक्ट्रिक वाहनों का निर्यात घट रहा है क्योंकि वहां सब्सिडी को लेकर जांच चल रही है और साथ ही चीन से निर्यात होने वाले सब्सिडी वाली कारों और ईवी बैटरियों पर व्यापार प्रतिबंध बढ़ गया है।
भारत के वाहन उद्योग की साख बेहद आकर्षक है और यह भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक तंत्र है जिसका देश के विनिर्माण सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में एक-तिहाई से अधिक योगदान है और यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से 2 लाख नौकरियों के मौके दे रहा है। चीन, जापान और अमेरिका के बाद भारत दुनिया में चौथा सबसे बड़े पैमाने पर कार बनाने वाला देश है और इसने वर्ष 2023 में 46 लाख कार बनाई हैं।
कार निर्यात में देश 10वें पायदान पर है और इसकी वैश्विक हिस्सेदारी 2.4 प्रतिशत है। वित्त वर्ष 2023 में भारत के वाहन और इसके कलपुर्जा उद्योग का कारोबार 150 अरब डॉलर से अधिक हो गया।
निर्यात के आंकड़े महत्त्वपूर्ण रहे हैं जिसमें कार का निर्यात 8.7 अरब डॉलर, दोपहिया वाहनों का निर्यात 2.8 अरब डॉलर और वाहन के कलपुर्जों का निर्यात 7.3 अरब डॉलर रहा। वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में मारुति उद्योग लिमिटेड और जापान के सुजूकी कॉरपोरेशन के संयुक्त उपक्रम के जरिये देश के वाहन क्षेत्र में तेजी देखी गई थी।
इसके बाद अगले 20 वर्षों में जापान की तकनीक के मेल और भारत की ढलाई और निर्माण में विशेषज्ञता के बलबूते घरेलू वाहन क्षेत्र की उत्पादकता में 250 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई और यह वृद्धि वाली राह पर आगे बढ़ा।
इसके बाद, सरकार के तीन फैसलों ने उद्योग के स्वरूप को बदल दिया जिसमें पूरी तरह से तैयार कार और मोटरसाइकिल पर 70-125 प्रतिशत तक आयात शुल्क लगाना, लेकिन इसके कुछ कलपुर्जों पर 7.5-10 प्रतिशत तक का कम शुल्क लगाना ताकि इनपुट आयात की अनुमति दी जा सके, मुक्त व्यापार समझौते (FTA) के तहत शुल्क नहीं घटाना और स्वचालित तरीके से 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देना शामिल है।
उच्च आयात शुल्क ने भारत में परिचालन करने वाली कंपनियों को बाहरी प्रतिस्पर्धा से बचाया। इसके साथ ही भारत में कार बनाने वाली कई शीर्ष वैश्विक कंपनियों की उपस्थिति के चलते आंतरिक प्रतिस्पर्धा में तेजी आई।
कई विशेषज्ञ उच्च स्तर के शुल्कों के औचित्य पर सवाल उठाते हैं। हालांकि, ऑस्ट्रेलिया के वाहन उद्योग का उदाहरण लिया जाए तो यहां शुल्क में कटौती को स्वीकारा नहीं गया। 1987 में, ऑस्ट्रेलिया ने 45 प्रतिशत के आयात शुल्क के संरक्षण के साथ ही 89 प्रतिशत कार का उत्पादन किया।
हालांकि, जैसे ही ऑस्ट्रेलिया ने इन शुल्कों को धीरे-धीरे कम किया, स्थानीय स्तर पर बनाए जाने वाले वाहनों का अनुपात कम हो गया। अब यह आलम है कि केवल 5 प्रतिशत के आयात शुल्क के साथ, ऑस्ट्रेलिया अपनी लगभग सभी कार का आयात करता है।
निसान, फोर्ड, जनरल मोटर्स, टोयोटा और मित्सुबिशी जैसे प्रमुख वाहन निर्माताओं ने उस वक्त से ही वहां अपना परिचालन बंद कर दिया है जो कभी ऑस्ट्रेलिया में वाहनों का निर्माण करते थे।
1000 भारतीयों में से केवल 22 लोगों के पास ही अपनी कार
भारत के वाहन उद्योग में वृद्धि की संभावना इस वजह से भी है क्योंकि यहां प्रति व्यक्ति के हिसाब से कार की संख्या कम है और प्रत्येक 1,000 भारतीयों में से केवल 22 लोगों के पास ही अपनी कार है।
वहीं इसकी तुलना में अमेरिका में 1,000 लोगों में से 980 लोगों के पास कार हैं जबकि चीन में 164 लोगों के पास कार है। बढ़ती क्रय शक्ति, शहरीकरण की रफ्तार में तेजी और सरकार की पहल से भी इसमें मदद मिली है। इन सभी वजहों से भी वैश्विक
वाहन निर्माताओं की भारत में दिलचस्पी बढ़ रही है।
मौजूदा उद्योग की संरचना देखें तो भारत की करीब 70 फीसदी कार उन कंपनियों द्वारा बनाई जाती हैं जिनका नियंत्रण सुजूकी, ह्युंडै, किया, टोयोटा, होंडा, फोर्ड, स्कोडा, रेनो, निसान और मर्सिडीज जैसी विदेशी कंपनियों के हाथों में है। प्रमुख भारतीय कंपनियों में टाटा मोटर्स और महिंद्रा ऐंड महिंद्रा है। ईवी के क्षेत्र में उभरते खिलाड़ियों में ओला इलेक्ट्रिक और एथर एनर्जी भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं।
भारतीय बाजार में चीन की कंपनियों के प्रवेश से निश्चित रूप से जापानी, कोरियाई और यूरोपीय कंपनियों की हिस्सेदारी कम हो जाएगी। ये कंपनियां घरेलू वाहन/ईवी निर्माताओं, ईवी वैल्यू चेन क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों पर प्रभाव डालने के साथ ही बैटरी निर्माण पर भी असर डालेंगी।
भारत के लगभग एक-चौथाई वाहन कलपुर्जों का आयात चीन से होता है। भारत में कार बनाने वाली चीन की कंपनियां भी चीन से अधिकांश वाहन पुर्जों का आयात करती हैं ऐसे में चीन पर भारत की निर्भरता तेजी से बढ़ेगी। सरकार ने न्यूनतम 35,000 डॉलर मूल्य वाले इलेक्ट्रिक वाहनों पर आयात शुल्क 70-100 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत कर दी है।
रियायती आयात शुल्क केवल उन्हीं मूल उपकरण निर्माताओं (OEM) द्वारा संभव है जो तीन साल की अवधि के भीतर स्थानीय विनिर्माण के लिए 50 करोड़ डॉलर का न्यूनतम निवेश कर सकते हैं। इस तरह के ओईएम पांच वर्ष की अवधि में 40,000 वाहनों तक का आयात कर सकते हैं।
इस तरह की शुल्क कटौती से चीन की वाहन निर्माता कंपनियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से फायदा मिलेगा क्योंकि वे ईवी और बैटरियों की प्रमुख आपूर्तिकर्ता हैं। चीन पर आपूर्ति श्रृंखला की निर्भरता तेजी से तब भी बढ़ने वाली है जब गैर-चीनी कंपनियों ने (टेस्ला, विनफास्ट) भी भारत में अपना संचालन शुरू कर दिया है।
ऐसे में सरकार को ईवी के लिए सब्सिडी देने के बजाय अत्याधुनिक बैटरी तकनीक के लिए शोध एवं विकास पर निवेश को अवश्य बढ़ावा देना चाहिए। ईवी के आयात में 70-90 फीसदी तक की तेजी आई है और बैटरियों सहित ज्यादातर आयात चीन से किया जाता है। हालांकि जब करीब 70 फीसदी से अधिक बिजली कोयला से तैयार होती है ऐसे में ईवी की भी निर्भरता पूरी तरह से स्वच्छ ऊर्जा पर नहीं होगी।
भारत को दीर्घकालिक अवधि के लिए रणनीतिक तरीके से सोचने की जरूरत है। विदेशी और भारतीय कार निर्माताओं के प्रतिस्पर्द्धी हितों के बीच उलझे वाहन संगठन और आयात समर्थक उद्योग की दिशा तय करने में प्रभावी नहीं हो सकते हैं।
(लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं)