क्या छोटा और क्या बड़ा...मंदी का घुन कमोबेश उद्योग जगत के हर दरख्त में लगता जा रहा है।
बड़ी कंपनियों को इससे बचाने के लिए भारत ही नहीं, दुनियाभर के हुक्मरान खासी माथापच्ची करते नजर आ रहे हैं। लेकिन इससे ढहने वाले उन छोटे-मझोले उद्योगों पर सरकार की नजरे इनायत है या नहीं, यह सवाल सबकी जुबां पर है।
हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले इन उद्योगों को मंदी से बचाने के लिए सरकार मुस्तैद है या फिर इनकी अनदेखी हो रही है?
इसी सवाल पर जब बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस बार की व्यापार गोष्ठी का आयोजन किया तो मधुबनी से लेक्चरार राजेंद्र प्रसाद ने अपनी राय जाहिर करते हुए माना कि छोटे और मझोले उद्योगों की हालत अभी भी दयनीय बनी हुई है।
बलरामपुर से अधिवक्ता वी.के. सिंह ने कहा कि ये उद्योग हमेशा से संकट में रहे हैं, जिसका बड़ा कारण इनके लिए किसी ठोस नीति का न होना है।
तो मुंबई से सुनील तो साफ कहते हैं कि सरकार को शेयर बाजार की चाल में ही भारत की विकास दर दिखाई देती है जबकि इसमें देश के 2 फीसदी लोग ही जुड़े हैं।
बाराबंकी के एक कॉलेज में अर्थशास्त्र के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ. लाल मृगेंद्र सिंह बघेल मानते हैं कि इन उद्योगों की कमोबेश आज भी वह स्थिति है, जो बि्टिश शासनकाल में थी। तस्वीर अगर बदली भी है तो बेहद मामूली तौर पर।
इनके लिए और राहत पैकेज की जरूरत बताते हुए लखनऊ में शिक्षिका मीनाक्षी सिंह सरकार से मांग करती हैं कि उसे छोटे उद्योगों को सस्ते कर्ज दिलाने के लिए कदम उठाने चाहिए।
पैकेज किस तरह का हो इस पर उौन से प्रो. के.डी. सोमानी की राय यह है कि इन कारोबारियों को कुछ समय के लिए सब्सिडी दी जानी चाहिए।
वैसे सरकार इनकी अनदेखी नहीं कर रही है, यह मानने वाले भी कम नहीं हैं। लखनऊ से रिटायर्ड बैंक अधिकारी निरंजन लाल अग्रवाल मानते हैं कि देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर सरकार ने लघु व मध्यम औद्योगिक इकाइयों की सुध ली है।