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स्मृति शेष – मुलायम सिंह यादव (1939-2022) : राजनीति के एक युग का अवसान

Last Updated- December 11, 2022 | 1:54 PM IST

अपने बूते पर उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में बड़ी छाप छोड़ने वाले मुलायम सिंह यादव राजनीति के एक अलग दौर से ताल्लुक रखते थे जब नेता अवसरवादी हो सकते थे लेकिन उनमें मानवीय भावना भी होती थी
उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहने वाले और बाद में भारतीय राजनीति में अपनी अहम छाप छोड़ने वाले मुलायम सिंह यादव के निधन से पैदा हुए शून्य को कोई भी नेता नहीं भर सकता है। यह वही व्यक्ति थे जिन्होंने 20 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सरकार चलाई। यह राज्य एक तरफ ताजमहल के लिए तो दूसरी तरफ दुनिया के लगभग 10 प्रतिशत गरीबों के निवास स्थल के रूप में जाना गया। उत्तर प्रदेश अगर एक देश होता तो यह दुनिया का पांचवां सबसे अधिक आबादी वाला देश होता। 
लोकसभा की 545 सीट में से 80 सीट देने वाले इस राज्य के लिए यह बात सर्वविदित है कि प्रधानमंत्री बनने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसी वजह से 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए गुजरात से बाहर जाने का फैसला करते हुए उत्तर प्रदेश को ही अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था।
कुछ मायनों में मुलायम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह थे। उन्हें भी राजनीति विरासत में नहीं मिली थी और उन्होंने अपनी जगह अपने दम पर बनाई। हालांकि मोदी के पास एक पार्टी और एक संगठन का आधार था जिसका समर्थन उन्हें मिला। लेकिन मुलायम के पास जो कुछ भी था वह काफी हद तक मान्यताओं (काफी हद तक लचीली) का ही मिला-जुला स्वरूप था।
वह पहली बार वर्ष 1967 में भारत के मशहूर समाजवादियों में से एक डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए थे। वर्ष 1968 में लोहिया की मृत्यु के बाद वह चरण सिंह के नेतृत्व वाली पार्टी भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) में शामिल हो गए। वर्ष 1974 में एसएसपी और बीकेडी का विलय हो गया। अब यह पार्टी भारतीय लोकदल (बीएलडी) बन गई और उन्हें टिकट दिया गया।
इंदिरा गांधी सरकार ने जब 1975 में आपातकाल की घोषणा की तब मुलायम सिंह यादव 19 महीने तक इटावा जेल में रहे। अन्य नेताओं की तरह ही उन्होंने  जेल से बाहर आने बीएलडी उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते। अपने जीवन में पहली बार सहकारिता प्रभार के साथ मंत्री बने। 
कार्यभार संभालने के कुछ दिनों के भीतर, उन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य के सहकारी बैंकों की उधार दरों को 14 प्रतिशत से घटाकर 13 प्रतिशत और बाद में 12 प्रतिशत कर दिया। सहकारी समितियां फंड के गबन में लिप्त थीं। वर्ष 1977-78 में इस सिलसिले में 17 लोगों के खिलाफ कार्रवाई की गई थी। वर्ष 1978-79 में यह संख्या बढ़कर 222 हो गई। इनमें से 137 लोगों ने अदालत में आत्मसमर्पण किया। मुलायम को इस वक्त तक राज्य की सत्ता की अहमियत समझ में आ गई थी। 
चरण सिंह ने वर्ष 1979 में जनता पार्टी से किनारा कर लिया था। चरण सिंह की नई पार्टी का नाम लोकदल (एलडी) था। उनके निधन के बाद, पार्टी फिर से दो हिस्सों में विभाजित हो गई। चरण सिंह के अमेरिका में पढ़े बेटे अजित सिंह ने अपने पिता की विरासत संभाल ली, लेकिन मुलायम का मानना था कि वह पार्टी के सच्चे उत्तराधिकारी थे। अजित सिंह के नेतृत्व वाली पार्टी को लोकदल ए और मुलायम सिंह के गुट को लोकदल बी कहा जाता था। वर्ष 1989 में एलडी बी का जनता दल में विलय हो गया। 
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम की खासियत यह रही है कि पूरे राज्य में  उनका दबदबा था। हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनके कई कदमों की वजह से उन्हें कभी अवसरवादी भी कहा गया। लेकिन किसी तरह उन्होंने मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखी। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस विरोधी समूहों के कई गुटों में उनकी अच्छी दोस्ती हुआ करती थी। वर्ष 1989 का लोकसभा चुनाव हिंदुत्व की  भावना के उभार की पृष्ठभूमि में हुआ था।
 
भ्रष्टाचार के खिलाफ वीपी सिंह का अभियान रंग लाया। मुलायम सिंह ने चंद्रशेखर और वीपी सिंह दोनों का समर्थन किया लेकिन जब देवीलाल ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री घोषित किया तब उनके पास चंद्रशेखर को निराश करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था और चंद्रशेखर अपमानित महसूस करते हुए केंद्रीय कक्ष से निकल आए थे। जनता दल के नेतृत्व ने अजित सिंह के मुकाबले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए उनके दावे का समर्थन किया और वह 1989 में पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। 
मुलायम जब मुख्यमंत्री थे तब तीन मुद्दों ने उन्हें काफी परेशान किया। इनमें से एक अंग्रेजी विरोधी आंदोलन था जिसका नेतृत्व उन्होंने उत्तर प्रदेश में किया और उसे बढ़ावा दिया। वर्ष 1990 में, अनिवार्य अंग्रेजी पेपर को राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित प्रांतीय सिविल सेवा (पीसीएस) परीक्षा से हटा दिया गया था। हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद वाले हिंदी पेपर के खंड को समाप्त कर दिया गया था। अदालतों, स्थानीय प्रशासन और अन्य प्रतिष्ठानों को हिंदी में काम करना अनिवार्य कर दिया गया था। उन्होंने तर्क दिया कि अंग्रेजी ‘शोषण करने वालों की भाषा’ है। उनसे यह भी पूछा गया कि उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल-कॉलेज क्यों जाते हैं।
चीजें अब खराब मोड़ की ओर बढ़ रही थीं और उनकी प्रतिष्ठा जिस मुद्दे की वजह से बनी थी वह भड़कने लगा था। यह दौर राम जन्मभूमि आंदोलन का था। इसके अलावा पिछड़े वर्गों के आरक्षण के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग ने भारतीय राजनीति को और जटिल बना दिया।
रामजन्मभूमि के मुद्दे पर मुलायम ने साफ कहा कि हिंदू एकीकरण का विरोध किया जाना चाहिए। उनकी यह वैचारिक दृढ़ता आधारभूत तथ्यों से भी आई। सीएसडीएस के विश्लेषण के मुताबिक 1998 के लोकसभा चुनाव में सपा को उत्तर प्रदेश में 75 फीसदी यादवों और 72 फीसदी मुसलमानों का समर्थन हासिल था।
दरअसल सपा ने लगातार यह बात उठाई कि भाजपा अल्पसंख्यकों के लिए सबसे बड़ा खतरा है और यह एकमात्र ऐसी पार्टी है जो उनकी रक्षा करने में सक्षम है। सपा को मिला सामाजिक समर्थन इसका ही नतीजा था। बाद में 15 साल से अधिक वर्षों तक मुलायम के प्रति मुसलमानों की वफादारी बरकरार रही, हालांकि निचली जाति के लोग और गरीब मुसलमान बसपा से जुड़ गए।
मुलायम 1990 में मुख्यमंत्री थे जब रामजन्मभूमि से जुड़े कारसेवक ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के नारे के साथ उत्तर प्रदेश का दौरा कर रहे थे। उन्होंने इस समस्या को कानून-व्यवस्था के मुद्दे के रूप में निपटाते हुए पुलिस को कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। हालांकि इस घटनाक्रम में मरने वालों की संख्या विवादित है। लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस बहुसंख्यकों के इसी गुस्से का सीधा परिणाम था।
सभी को लगा कि यह एक ऐसा झटका है जिससे मुलायम सिंह कभी उबर नहीं पाएंगे। लेकिन बीच के वर्षों में मुलायम की राष्ट्रीय राजनीति में अधिक सक्रियता देखी गई। वर्ष 1992 में कांग्रेस विरोधी पार्टी, पिछड़े वर्गों के सशक्तिकरण और धर्मनिरपेक्षता की स्पष्ट पहचान के साथ समाजवादी पार्टी का गठन किया गया।
वर्ष 1998-99 में उन्होंने कांग्रेस सहित वामपंथी धर्मनिरपेक्ष गठबंधन का हिस्सा बनना स्वीकार कर लिया, लेकिन उन्होंने सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया। हालांकि बाद में, उन्होंने विपक्ष को एक साथ सोनिया गांधी के नेतृत्व में स्वीकार कर लिया और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) में शामिल हो गए। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को 403 में से 224 सीटें मिली थीं। लेकिन अब मुलायम के बेटे अखिलेश उनके उत्तराधिकारी के रूप में खड़े थे।
सवाल यह था कि मुख्यमंत्री कौन होना चाहिए? पार्टी में पुराने नेता असमंजस में थे। उन्होंने अखिलेश के योगदान पर गौर जरूर किया लेकिन वे मुलायम को नाराज नहीं करना चाहते थे। उनके चाचा शिवपाल पहले ही दावा कर चुके थे। अखिलेश के एक और चाचा रामगोपाल भी थे, जो उस समय अखिलेश का समर्थन कर रहे थे। अखिलेश जब मुख्यमंत्री बने तब उनके पिता सार्वजनिक जीवन से दूर होते चले गए, जिनके साथ उनका कभी पारंपरिक रिश्ता नहीं था।
लेकिन उनके परिवार में मतभेदों का दौर शुरू हो गया। मुलायम ने सार्वजनिक रूप से जोर देकर कहा कि सपा उनकी पार्टी थी, लेकिन अब यह अखिलेश की भी है जिसे पार्टी के संरक्षक खुद स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। सपा में गहरी दिलचस्पी रखने वाले परिवार के सदस्यों और समर्थकों ने मुलायम को उकसाया। अखिलेश अपने पिता के घर से बाहर निकल गए और सार्वजनिक रूप से मुलायम से अपील की कि वह अपने विवेक से यह तय करें कि सपा के लिए सबसे अच्छा रास्ता क्या है।
मुलायम ने सार्वजनिक रूप से अपने बेटे को फटकार लगाई। इसके बाद पिता और बेटे ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों की अलग-अलग सूची जारी की। मामला चुनाव आयोग के पास गया और फंड पर रोक लगा दी गई। उस वक्त डरे हुए सपा समर्थकों को वह सब देखना पड़ा जैसा कि पहले उन्होंने ऐसा कुछ कभी नहीं देखा था। वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले चुनाव आयोग ने अखिलेश के पक्ष में फैसला सुनाया था। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। 
मुलायम के जाने की प्रक्रिया धीमी लेकिन अपरिहार्य साबित हुई। वर्ष 2021-22 के बजट भाषण के दौरान मुलायम लोकसभा में प्रवेश करते और निकलते दिखे। धीमे-धीमे कदमों से एक सहायक की सहायता से, मुलायम ने डगमगाते कदमों के साथ अपना रास्ता तय किया। बाहर निकलते हुए उन्हें मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी के साथ देखा गया जो यकीनन सपा के लिए पिछले विधानसभा चुनाव की हार के लिए जिम्मेदार माने जा सकते हैं।
  
जिस गर्मजोशी के साथ मुलायम ने ओवैसी का अभिवादन किया और वह उनका आशीर्वाद पाने के लिए झुके, वह क्षण लोगों को एक ऐसे दौर में वापस ले गया जब नेताओं को अवसरवादी माने जाने के बावजूद उन्हें आम इंसान भी माना जाता था।
 

First Published - October 10, 2022 | 8:29 PM IST

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