एक निजी कंपनी के गुणवत्ता नियंत्रण विभाग में काम करने वाली प्रिया और नेहा (बदले हुए नाम) को खराब प्रदर्शन के लिए फटकार लगाई गई थी। स्टोर फ्लोर पर उनके पुरुष अधीक्षक ने उन्हें अनुशासित करने के लिए रॉड से पिटाई करने का निर्णय किया।
इस मामले की शिकायत स्थानीय शिकायत समिति के पास दर्ज कराई गई। इसके बाद अधीक्षक के खिलाफ कार्रवाई की गई और प्रशासनिक नियमों में भी बदलाव किए गए। यह अकेला मामला नहीं हैं और ऐसे मामले अक्सर आते रहे हैं। लेकिन महामारी के बाद ऐसे मामलों की तादाद कम हुई है।
बिज़नेस स्टैंडर्ड ने पिछले पांच वित्त वर्ष की शीर्ष 100 कंपनियों की वार्षिक रिपोर्ट से यौन उत्पीड़न की शिकायतों का डेटा एकत्र किया। इससे पता चला कि ऐसी शिकायतें अब कम हो रही हैं।
2021-22 में प्रति 10,000 महिला कर्मचारियों में केवल आठ यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज की गईं। विश्लेषण में 61 कंपनियों को शामिल किया गया जिनके डेटा उपलब्ध थे। कार्यस्थल पर विविधता और समावेश पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक सलाहकार फर्म अनजेंडर की मुख्य कार्याधिकारी पल्लवी पारीक ने कहा कि महिलाएं अक्सर ऐसी शिकायत दर्ज करने में झिझकती हैं।
पारीक ने कहा, ‘पिछले महीने, मैंने 20 लोगों के साथ परामर्श सत्र किया था और सभी में इसी तरह की झिझक देखी गई।’ उनका कहना था कि शिकायत करने से ‘क्या बदल जाएगा’? ‘मेरा मामला उठाए जाने के बाद भी क्या मैं कंपनी का हिस्सा रहूंगी?’ ‘क्या मैं संगठन में आगे बढ़ पाऊंगी?’ केवल पांच ने ही शिकायत दर्ज करने का फैसला किया। जिस तरह से किसी मामले को संभाला जाता है, उसके कारण कई महिलाएं शिकायत नहीं करती हैं। पारीक ने कहा कि आवाज उठाने वालों के अनुभव अक्सर दूसरी महिलाओं को शिकायत दर्ज करने से रोकते हैं।
महिला-पुरुष समानता और यौन अधिकारों पर काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था साक्षी की कार्यकारी निदेशक स्मिता भारती का कहना है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के दायरे में आने वाली चीजों की समझ और जागरूकता अपर्याप्त है। इसके कारण महामारी के दौरान शायद मामलों में कमी दिख रही है।
पारीक ने कहा कि कई कंपनियां अब भी मानती हैं कि कार्यस्थल से दूर रहकर काम करना और यौन उत्पीड़न आपस में विरोधाभास उत्पन्न करते हैं। तथ्य यह है कि लोग निकटता में नहीं थे, जिससे कंपनियों को विश्वास हो गया कि यौन उत्पीड़न का कोई मामला नहीं होगा।
यौन उत्पीड़न की रोकथाम पर एक स्वतंत्र विशेषज्ञ वीनू कक्कड़ कहती हैं कि लगभग चार-पांच मामलों में महिलाओं को यौन उत्पीड़न पर मेरी राय की जरूरत थी क्योंकि इन मामलों में कुछ भी शारीरिक संबंध नहीं था। उन्होंने स्पष्ट किया कि व्हाट्सऐप पर तस्वीरें भेजना या व्यक्तिगत सवाल पूछना भी यौन उत्पीड़न है।
कार्यालय आधारित यौन उत्पीड़न में वीडियो कॉल और चैट के जरिये भी शोषण को भी माना जा सकता है। यदि किसी को ‘बेबी’ या ‘स्वीटी’ जैसे शब्द बोले जाएं तो यह भी यौन उत्पीड़न के अंतर्गत आएगा। पारीक और कक्कड़ इस बात से सहमत हैं कि महामारी के दौरान कंपनियों ने यौन उत्पीड़न रोकथाम प्रशिक्षण में निवेश करना बंद कर दिया था। भारत में काम पर या कार्यालय परिसर में यौन उत्पीड़न के गिरते मामले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में भी दिख रही हैं।
वर्ष 2017 और 2021 के बीच 2019 में सबसे अधिक मामले सामने आए। बाद के दो वर्षों में इस तरह की शिकायतों में क्रमशः 3.8 फीसदी (2020) और 13.8 फीसदी (2021) की गिरावट दर्ज की गई।
यौन उत्पीड़न की रोकथाम सलाहकार साधना खाती कहती हैं कि प्रशिक्षण के बाद, महिलाएं मुझसे वॉशरूम में मिलती हैं और मुझे प्रतिशोध का डर, फिर से उत्पीड़न का सामना करने या भविष्य में उनके मूल्यांकन और काम पर संभावित दुष्प्रभाव के अपने अनुभवों के बारे में बताती हैं।
वह कहती हैं कि कभी-कभी महिलाएं अपने लाइन मैनेजर के समक्ष इस मुद्दे को उठाने के बजाय अपनी नौकरी छोड़ने का विकल्प चुनती हैं। कक्कड़ ने कहा कि अधिकतर मामलों में आंतरिक शिकायत समिति या तो नहीं रहती है या निष्क्रिय रहती है। कक्कड़ ने राजस्थान के एक छोटे से शहर की लड़की का मामला साझा किया, जिसे उसकी कंपनी के सीईओ ने परेशान किया था। वह नहीं जानती थी कि इस बारे में शिकायत के लिए किससे संपर्क करना है। और उस संस्थान में कोई स्थानीय शिकायत समिति नहीं थी।
भारती का कहना है कि कई फर्मों के पास कागज पर सब कुछ है, लेकिन करीब से निरीक्षण करने से विसंगतियां सामने आती हैं। कंपनियों का ढांचा इतना जटिल होता है कि पता ही नहीं चलता कि अध्यक्ष कौन है। महानगरों की बात करें तो दिल्ली में 2021 में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के सबसे अधिक मामले सामने आए, इसके बाद मुंबई, बेंगलूरु, हैदराबाद और पुणे में मामले दर्ज किए गए।
2021 में भारतीय शहरों में कुल मामलों का 91.9 फीसदी हिस्सा इन पांच शहरों से था। भारती कहती हैं कि यौन उत्पीड़न को समानता के संवैधानिक अधिकार के उल्लंघन के रूप में देखा जाना चाहिए न कि नैतिकता के मुद्दे के रूप में।