राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने शहरी क्षेत्रों में परिवारों को साल में 100 दिन का रोजगार प्रदान करने के लिए मनरेगा की तर्ज पर इंदिरा गांधी शहरी रोजगार योजना शुक्रवार को शुरू की। यह 800 करोड़ रुपये के वार्षिक बजट व्यय के साथ अन्य राज्यों की तुलना में अब तक की सबसे बड़ी योजना है। गहलोत ने इसे एक ऐतिहासिक योजना बताते हुए कहा कि कोई भी परिवार जो महंगाई के समय अपनी आय बढ़ाना चाहता है, वह इस योजना के तहत नौकरी की तलाश कर सकता है। उन्होंने कहा कि अन्य राज्यों की ऐसी ही योजनाओं का अध्ययन कर रोजगार गारंटी कार्यक्रम तैयार किया गया है।
उन्होंने कहा कि हमने हाल ही में महंगाई को लेकर केंद्र के खिलाफ दिल्ली में एक रैली की थी। केंद्र के साथ यह लड़ाई जनहित में समानांतर चलेगी लेकिन यहां एक बेहतरीन योजना है जिसके तहत विभिन्न प्रकार के कार्य किए जाएंगे। स्थानीय स्वशासन एवं शहरी विकास एवं आवास मंत्री शांति धारीवाल ने कहा कि योजना के तहत चार लाख से अधिक लोगों ने पंजीकरण कराया है, जबकि ढाई लाख को जॉब कार्ड जारी किए जा चुके हैं। पहले दिन करीब 40,000 लोगों को रोजगार मिला। राज्य की राजधानी में अंबेडकर भवन में एक राज्य स्तरीय कार्यक्रम के दौरान इस परियोजना का शुभारंभ किया गया।
समारोह के दौरान दस महिला लाभार्थियों को जॉब कार्ड प्रदान किए गए। इस योजना के तहत पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण, विरासत संरक्षण, उद्यानों का रखरखाव, अतिक्रमण हटाने, अवैध साइन बोर्ड, होर्डिंग और बैनर और स्वच्छता पर परियोजनाएं शुरू की जाएंगी। 18 से 60 आयु वर्ग के लोग योजना के लिए पात्र हैं। शहरी स्थानीय निकायों के प्रत्येक वार्ड में कम से कम 50 लोगों को रोजगार दिया जाएगा। इसके लिए पंजीकरण ई-मित्र केंद्रों पर किया जा सकता है।
योजनान्तर्गत स्वीकृत कार्यों को राज्य, जिला अथवा स्थानीय निकाय स्तर पर समितियों के माध्यम से स्वीकृत एवं क्रियान्वित किया जायेगा। राज्य सरकार योजना के तहत अच्छा काम करने वाले स्थानीय निकायों को भी पुरस्कृत करेगी। ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, केरल, झारखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने भी इसी तरह की योजनाओं को लागू किया है या लागू करने की प्रक्रिया में हैं।
ऐसी छोटी योजनाओं को और अन्य किसी भी उपयोगी योजना को राष्ट्रीय स्तर पर शुरू करने की आवश्यकता है। हालांकि, इसे राष्ट्रीय स्तर पर शुरू करने से वित्तीय बोझ जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे का सामना करना पड़ेगा जिसे अकेले केंद्र या राज्यों की मदद से उठाना पड़ सकता है। यह वित्तीय बोझ योजना के आकार पर निर्भर करेगा। ‘भारत में असमानता की स्थिति’ पर मई में आई एक रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि इस तरह की योजना के आधार पर यह आकलन किया गया है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) के बीच अंतराल बढ़ता जा रहा है। एलएफपीआर कुल जनसंख्या में श्रम बल (काम करने वाले या नौकरी चाहने वाले) वाले व्यक्तियों का प्रतिशत है।
वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार, 2017-18 में ग्रामीण क्षेत्रों में 37 फीसदी की तुलना में एलएफपीआर शहरी क्षेत्रों में 36.8 फीसदी के साथ थोड़ा कम था। हालांकि, अगले कुछ वर्षों में यह अंतर और बढ़ गया। इसके अगले वर्ष शहरी क्षेत्रों में एलएफपीआर 36.9 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 37.7 फीसदी था। 2019-20 में शहरी क्षेत्रों में यह बढ़कर 38.6 फीसदी हो गया, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह वृद्धि 40.8 फीसदी पहुंच गई थी। 2020-21 में जब कोविड -19 की पहली लहर आई और महीनों के लिए देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई तब ग्रामीण क्षेत्रों में एलएफपीआर बढ़कर 42.7 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 38.9 फीसदी हो गया।
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2021 में भारत में लगभग 47.1 करोड़ कर्मचारी थे। एनएसएस की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार शहरी भारत में 20 फीसदी श्रम शक्ति असंगठित क्षेत्र में है, 2021 में लगभग 9.42 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में थे। हालांकि, शहरी मनरेगा पूरी तरह से असंगठित क्षेत्र को लक्षित नहीं कर सकता है। इससे पहले, 2019 में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने शहरी भारत के लिए जॉब गारंटी कार्यक्रम पर एक रिपोर्ट जारी की थी । रिपोर्ट में दिहाड़ी श्रमिकों के लिए प्रति दिन 500 रुपये और कुछ पढ़े-लिखे व्यक्तियों के लिए 13,000 रुपये प्रति माह वजीफे के रूप में देने की सिफारिश की गई थी।