उत्तर एवं पूर्वी भारत में ज्यादातर राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कर्मचारियों की ‘भारी किल्लत’ से जूझ रहे हैं। हाल में किए गए एक अध्ययन के अनुसार वित्तीय संसाधन पर्याप्त रहने के बावजूद इन राज्यों के प्रदूषण बोर्ड अपना कार्य पूरी क्षमता के साथ करने की स्थिति में नहीं है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि ज्यादातर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) या प्रदूषण नियंत्रण समितियों के पास पिछले तीन वर्षों से आवश्यकता से अधिक वित्तीय संसाधन रहे हैं।
अध्ययन के अनुसार इनमें कई बोर्ड शुल्क एवं अन्य स्रोतों से प्राप्त रकम का उपयोग नहीं पर पाए। इन तीनों वर्षों में ये बोर्ड कुल राजस्व में औसतन केवल 48 प्रतिशत रकम का ही इस्तेमाल कर पाए।
अध्ययन में कहा गया है कि हरेक वर्ष इन राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास जितनी अधिशेष रकम बचती है उनका एक बड़ा हिस्सा अल्प अवधि की सावधि जमा (शॉर्ट टर्म फिक्स्ड डिपॉजिट) योजना में जमा होता है।
कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने, आधारभूत संरचना मजबूत करने एवं उपकरण खरीदने पर इस अधिशेष रकम का इस्तेमाल नहीं हो पाता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार 31 मार्च 2021 तक दस प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं समितियों ने सावधि जमा में 2,893 करोड़ रुपये जमा किए।
इस संबंध में सीपीआर की तरफ से जारी बयान में कहा गया है, ‘इन निवेशों से अर्जित आय कई प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिशेष बहीखाते के लिए जरूरी है। ब्याज से प्राप्त आय पर निर्भरता के कारण ये बोर्ड नियमित खर्चों के अलावा किसी अन्य मद में रकम का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं।
सीपीआर ने दस राज्यों- बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल- के प्रदूषण बोर्ड के वित्त वर्ष 2019-2021 के दौरान राजस्व, व्यय, निवेश एवं वित्तीय स्वायत्तता का विश्लेषण किया।
इस अध्य्यन के अनुसार प्रदूषण बोर्डों के कुल व्यय में कर्मचारियों के वेतन एवं भत्तों का हिस्सा आधा से भी अधिक रहा। कुछ राज्यों में तो यह आंकड़ा 80 प्रतिशत को भी पार कर गया। प्रदूषण बोर्डों ने प्रयोगशाला सुविधाओं सहित नए बुनियादी ढांचे पर काफी कम खर्च किए हैं।
कुछ अपवादों को छोड़कर बुनियादी ढांचे पर कुल व्यय का महज 11 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया गया जबकि शोध, विकास एवं अध्य्यन पर केवल 2 प्रतिशत रकम खर्च की गई। ज्यादातर प्रदूषण बोर्ड के लिए सहमति शुल्क और फिक्स्ड डिपॉजिट से प्राप्त ब्याज आय राजस्व के प्रमुख स्रोत रहे हैं।
इन स्रोतों से प्राप्त आय की उनके राजस्व में लगभग 76 प्रतिशत हिस्सेदारी रहती है। सीपीआर में कहा गया है कि राज्य प्रदूषण बोर्डों को बुनियादी ढांचे में विस्तार के लिए सरकार से वित्तीय मदद नहीं मिलती है।
सीपीआर ने कहा, ‘दो अपवादों को छोड़कर बाकी प्रदूषण बोर्डों को संबंधित राज्य सरकारों की तरफ से कोई वित्तीय मदद नहीं मिली। केंद्र सरकार से भी बहुत कम मदद मिलती है और जो भी रकम मिलती है वह मौजूदा केंद्र प्रायोजित योजनाओं के जरिये आती है।’
सीपीआर के अध्य्यन में यह भी कहा गया है कि वित्तीय मसलों में प्रदूषण बोर्ड के सदस्यों की भागीदारी अपर्याप्त होती है। हालांकि, सीपीआर के अनुसार बोर्ड बैठकों में वित्त जैसे बड़े विषयों पर बहुत कम चर्चा होती है।
सीपीआर में फेलो भार्गव कृष्ण कहते हैं, ‘वायु गुणवत्ता में तभी लगातार सुधार होता रहेगा जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अपनी पूर्ण क्षमता और पूरी गंभीरता से काम कर पाएंगे। मगर ये बोर्ड वित्तीय रूप से तंदुरुस्त होने पर ही अपनी काम ठीक ढंग से कर पाएंगे।
हमारे शोध में पाया गया है कि राज्य सरकारों से नियमित एवं एकीकृत वित्तीय समर्थन नहीं मिलने से बोर्ड शुल्क एवं ब्याज से प्राप्त आय पर निर्भर रहेंगे। इससे उनकी वित्तीय एवं परिचालन से जुड़ी स्वायत्तता समाप्त हो जाती है।’