चीन और तिब्बत के धार्मिक और राजनीतिक बौध्द नेता दलाई लामा को लेकर भारत सरकार की अपनी सीमाएं हैं। हालांकि कुछ बातें प्रत्यक्ष तौर पर कही जा सकती हैं।
जैसे, भारत एक लोकतांत्रिक देश है और हमारे देश के दरवाजे उन सभी लोगों के लिए खुले हैं जो लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात रखना चाहते हैं, पर उन्हें ऐसा करने से रोका जा रहा है। दलाई लामा 1948-50 में चीन की सांस्कृतिक क्रांति से जनित तिब्बत में बौध्द धर्म मानने वालों के शोषण के विरोध में भागकर भारत आए। उन्हें यहां पनाह मिली और उस दौरान उन्होंने चीन की वामपंथी सरकार द्वारा तिब्बतियों पर किए जा रहे उत्पीड़न पर दुनिया भर में बहस छेड़नी चाही।
ऐसा करने में वह कुछ हद तक कामयाब भी हुए। उन्हें नोबल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। दुनिया का हर तिब्बती उन्हें जान गया। कॉरपोरेट जगत की मौजूदा जुबान में कहें तो किसी धर्म का अनुयायी होने की वजह से शोषित हर समाज के लिए वह स्टाइल आइकॉन बन गए।लेकिन 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो भारत न अपनी लाज रख पाया और न ही दलाई लामा की।
चीन से जंग में भारत ने ऐसी मुंह की खायी कि चीन ने हमारे देश से आत्मसमर्पण करने को भी नहीं कहा और ऐसी नौबत आने से पहले ही दया दिखाते हुए युध्द विराम की घोषणा कर दी। उस घटना के 50 वर्ष होने को हैं। लेकिन हेडरसन ब्रुक्स समिति की रिपोर्ट अब भी सार्वजनिक नहीं की गई है। यह वह समिति थी, जिसने भारत की हार की वजहों की जांच की थी।
इन 50 वर्षों में भारत ने दुनिया के प्रति अपना नजरिया बदला है, पर चीन से पराजय के बाद बनी मानसिकता को झटक नहीं पाया है। हां, दलाई लामा जरूर भारत में रहे हैं और न उन्होंने और न उनके अनुयायियों ने ऐसा कोई काम किया है, जिससे भारत को किसी प्रकार की दिक्कत पड़े।
उधर, तिब्बत में मूल तिब्बतियों और हान जनजाति के चीनवासियों के बीच तनाव रहा है। तिब्बत से सटे सिचुआन प्रांत में हान भी रहते हैं और तिब्बती भी। तिब्बतियों का कहना है कि हान लोगों को बड़ी संख्या में तिब्बत में बसाया जा रहा है, ताकि चीन उस इलाके में जनसंख्या अपने पक्ष में कर ले। उधर, चीन, जिसने बंदूक के बल पर अपने देश में धर्म, जाति और वर्ग की विविधताओं को दबाकर देश का एकीकरण किया है, यह कहता है कि चीन के किसी भी निवासी को कहीं भी बसने का अधिकार है।
इस पर दलाई लामा कहते हैं कि चीन ऐसा कर रहा है, लेकिन ऐसा है नहीं। यदि हान लोगों को किसी भी नेता को मानने की आजादी दी जाती है, तो ऐसी ही आजादी तिब्बतियों को दी जानी चाहिए… चीन को अपना प्रेरणास्रोत माननेवाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) यह कहती है कि तिब्बत चीन का आंतरिक मसला है। बात गलत भी नहीं है।
जो लोग अमेरिका द्वारा जगह-जगह हस्तक्षेप किए जाने की रोज भर्त्सना करते हैं, वे कैसे कह सकते हैं कि भारत को तिब्बत के पक्ष में किसी प्रकार का कदम उठाना चाहिए। जिन समाजवादियों के इसी बात पर वामपंथी दलों से वैचारिक मतभेद थे, वे भारत में अब इस स्थिति में नहीं हैं कि इस पर शास्त्रात्रर्थ कर सकें। आखिरकार बात आती है भारत की सरकारी नीति की। क्या इसका आधार न्याय और शोषण के विरोध में आवाज उठाना होना चाहिए? या फिर बहती बयार की दिशा में पीठ करके संतुष्ट हो जाना चाहिए?
चीन हर मायने में बड़ा देश है। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री के इन आदरपूर्ण संबोधनों को सुनकर उलझन होती है – ‘आखिर चीन ने हमें ऐसा दिया ही क्या है कि साक्षात दंडवत होकर उसे पूजें।’ भारत यह भले ही नहीं माने, पर हर जगह वह चीन के साथ स्पध्र्दा में है। इस स्पध्र्दा में निश्चय ही भारत किसी और देश (अमेरिका) का मोहरा नहीं बनना चाहता है। लेकिन जब दो टूक बात करने की जरूरत होती है, तो भारत चुप क्यों रहता है?
सूडान में चीन की भूमिका को लेकर भारत चुप ही रहता है। यदि डॉरफर में अकाल को मानव जनित माना जाता है, तो इसका आधा श्रेय चीन को जाना चाहिए, जो सूडान में तेल और खनिज के लालच में बंदूक, तोप और ग्रेनेड देकर वहां की सरकार की मदद कर रहा है।
भारत सरकार का जवाब है कि यदि विश्व की समस्याएं मुफ्त में सलाह दिए जाने से सुलझ जातीं, तो भारत यही करता। चीन से दुश्मनी मोल लेना कहीं की समझदारी नहीं है। चीन की कंपनियां भारत में निवेश करना चाहती हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर नाटक करना एक चीज है और उसे सचाई का अमली जामा पहनाना अलग।
और फिर तिब्बत के मुद्दे पर चीन से दो-दो हाथ करना, कहां तक बुध्दिमत्ता है? चीन की आंखें अरुचाचल प्रदेश के तवांग पर गड़ी हैं। उस देश के साथ हमारा सीमा विवाद बरकरार है। भूटान (जो दक्षेस में भारत का पक्का मित्र है), भी चीन के साथ सीमा विवाद में घिरा हुआ है, जिसका एक पक्ष भारत है।
उधर, दलाई लामा धर्म और नीति की बात जरूर करते हैं और खुद को गांधी का शिष्य मानते हैं। लेकिन उन्होंने अपने ‘देश’ में वापस जाकर कदम भी नहीं रखा है। गांधी विदेश छोड़कर भारत आ गए थे, ताकि स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभाल सकें। अब तक जब भी तिब्बत की बात आती है, दलाई लामा का ही नाम सुना जाता रहा है। क्या उस आंदोलन से नेहरू, सुभाष, पटेल आदि की तरह कोई नई पौध पैदा नहीं हुई?
आखिर दलाई लामा के दिमाग में तिब्बत की संरचना की कौन-सी नई परिकल्पना है? वही सामंतवादी पध्दति, कुछ परिवारों में जमीन, खेती का केंद्रीकरण? दुनिया बदल गई है, लेकिन आजाद तिब्बत में कोई भी साम्यवाद की बात नहीं करता है। तिब्बती हमेशा इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि दया और अनुकंपा की उनकी मूर्ति दलाई लामा को कुछ हो न जाए। लेकिन यदि ऐसा हुआ तो? क्या इतने वर्षों का संघर्ष एक आदमी के रहने भर पर निर्भर है?
दलाई लामा के प्रति भारत की नीति शर्मनाक हो या नहीं, पर हर भारतीय को यह तय करना होगा कि वह तिब्बत के बारे में क्या सोचता है। पेचीदा विषयों पर अपने पक्ष पर कायम रहना सिर्फ सरकार का अधिकार नहीं, हर भारतीय की भी जिम्मेदारी है।