भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) मौजूदा बॉन्ड यील्ड को लेकर कुछ हद तक असहज नजर आ रहा है। पिछले सप्ताह 32,000 करोड़ रुपये मूल्य के 10 वर्ष के सरकारी बॉन्ड की नीलामी हुई लेकिन रिजर्व बैंक ने इस माह के आरंभ में सात वर्ष के सरकारी बॉन्ड की नीलामी को रद्द कर दिया था क्योंकि निवेशक उच्च यील्ड की मांग कर रहे थे। इसके अलावा जैसा कि इस समाचार पत्र में भी प्रकाशित किया गया था, केंद्रीय बैंक ने राज्य सरकारों को सुझाव दिया है कि वे अपनी उधारी को नए सिरे से तय करें ताकि आपूर्ति का दबाव कम किया जा सके।
हाल ही में महाराष्ट्र ने ऐसे कुछ बॉन्ड की सभी बोलियां रद्द कर दी थीं। गौरतलब है कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने इस वर्ष नीतिगत रीपो दर में 100 आधार अंकों की कमी की है लेकिन 10 वर्ष के मानक सरकारी बॉन्ड पर यील्ड में केवल 30 आधार अंकों की कमी आई है। 10 वर्ष के बॉन्ड पर यील्ड में जून की नीति में 50 आधार अंकों की कटौती के बाद वास्तव में 20 आधार अंकों का इजाफा ही हुआ है।
चूंकि सरकारी बॉन्ड यील्ड वित्तीय तंत्र में मुद्रा की लागत को सीधे प्रभावित करती है इसलिए यह कहा जा सकता है कि नीतिगत दरों में कटौती का पारेषण कमजोर हुआ है यानी लाभ पूरी तरह नहीं पहुंचा है। रिजर्व बैंक ने नकद आरक्षित अनुपात में 100 आधार अंकों की कटौती के साथ व्यवस्था में नकदी भी डाली जिसका क्रियान्वयन चार हिस्सों में किया जा रहा है और जिसका अंतिम हिस्सा 29 नवंबर से शुरू होने वाले पखवाड़े में आरंभ होगा।
यह बात बहसतलब है कि ऋण बाजार की गतिविधियां भी नीतिगत अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रही हैं और राजकोषीय व मौद्रिक नीति के लिए इसका क्या अर्थ है। आईडीएफसी बैंक के एक हालिया नोट में उल्लेख किया गया कि सितंबर से बैंकिंग प्रणाली में तरलता नेट डिमांड और टाइम लायबिलिटीज (एनडीएलटी) के 1 फीसदी की सीमा से भी नीचे चल रही है।
तरलता के स्तर में गिरावट का एक कारण आरबीआई द्वारा विदेशी मुद्रा बाजार में किए गए हस्तक्षेप भी हैं। इसलिए, अब यह काफी हद तक इस पर निर्भर करेगा कि रिजर्व बैंक तरलता की स्थिति को कैसे संभालता है। यह भी बताया गया है कि कुछ बैंक मार्क-टु-मार्केट घाटे पर बैठे हैं, और वे बड़ी मात्रा में बॉन्ड खरीदने के इच्छुक नहीं हैं। साथ ही, जमा वृद्धि की धीमी गति भी एक संभावित कारण हो सकती है।
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों यानी एफपीआई की मांग में भी कमी देखी जा रही है। विशुद्ध स्तर पर इन्होंने चालू वर्ष में अब तक 1.2 अरब डॉलर मूल्य के भारतीय बॉन्ड खरीदे, जबकि जनवरी से नवंबर 2024 की अवधि में 12.6 अरब डॉलर की राशि की खरीद की थी। इसके अलावा बॉन्ड्स की विशुद्ध आपूर्ति भी वर्ष की दूसरी छमाही में पहली की तुलना में अधिक रहने की उम्मीद है।
बॉन्ड बाजार के मौजूदा हालात को देखते हुए नीतिगत रीपो दर में आगे चलकर कोई भी कमी (कई बाजार प्रतिभागियों ने इसका अनुमान जताया है) फंड्स की लागत पर बहुत सीमित असर डालेगी। यील्ड की गतिविधि इस बात पर भी निर्भर करती है कि वित्तीय बाजार और केंद्रीय बैंक को आने वाली तिमाहियों में मुद्रास्फीति की दर के किस दिशा में जाने की उम्मीद है क्योंकि इससे दरों में संभावित कटौती का टिकाऊपन तय होगा।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति दर अक्टूबर में घटकर 0.25 फीसदी रह गई। हालांकि, मौद्रिक नीति समिति की पिछली बैठक में अनुमान लगाया गया था कि वर्ष की अंतिम तिमाही में मुद्रास्फीति दर बढ़कर 4 फीसदी तक जा सकती है, और अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह 4.5 फीसदी तक पहुंच सकती है।
बॉन्ड यील्ड्स में सख्ती राजकोषीय नीति के लिए भी एक संकेत है। हाल के वर्षों में, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के दौरान बढ़े घाटे के बाद, सरकार ने राजकोषीय घाटे को विश्वसनीय रूप से कम किया है, फिर भी सामान्य सरकारी उधारी की आवश्यकता अभी भी अधिक बनी हुई है।
अब तक की राजस्व संग्रह की स्थिति यह संकेत देती है कि वर्तमान वर्ष में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार अगले वित्त वर्ष से ऋण स्तर को लक्षित करने की दिशा में बढ़ेगी, जिसका अर्थ यह हो सकता है कि राजकोषीय घाटा हाल के वर्षों की तरह क्रमिक रूप से कम नहीं होगा और बाजार को इसके अनुसार समायोजन करना पड़ सकता है।