चलिए, आज आपको कुछ बताने से पहले एक कहानी सुनाती हूं। इस कहानी में एक महात्मा है, एक मां है और उस मां का एक बेटा भी है।
उस महात्मा को आप महात्मा बुध्द या महात्मा गांधी, दोनों में से कोई भी मान सकते हैं। हुआ यह कि एक दिन एक मां उस महात्मा के पास पहुंची और कहा कि, ‘महात्मा जी मेरी मदद करें। मेरा बेटा बहुत ज्यादा चीनी खाता है।’
इस पर उस महात्मा ने उस और उसके बेटे को कुछ दिनों के बाद आने के लिए कहा। जब वे आए तो उस महात्मा ने केवल इतना कहा कि,’बेटा ज्यादा चीनी मत खाया करो। यह तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है।’ उस औरत ने पूछा कि यह बात तो वह पहले भी कह सकते थे? इस सवाल पर महात्मा ने कहा कि,’बिलकुल, कहा सकता था। लेकिन पहले मैंने खुद चीनी खाने की आदत छोड़ने की कोशिश की। मैं ऐसा नहीं करता तो मेरे शब्दों का मोल नहीं रहता।’
आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको कहानी क्यों सुना रही हूं? दरअसल, हाल ही में मार्केट रिसर्च फर्म, आईएमआरबी इंटरनैशनल ने आईपैन के साथ मिलकर एक सर्र्वे किया था। इस सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले थे। इसमें आधे से भी ज्यादा, यानी 51 फीसदी लोगों के मुताबिक वह नहीं मानते कि सेलिब्रिटी जिन प्रोडक्ट्स का विज्ञापन करते हैं, वे उनका खुद भी इस्तेमाल करते होंगे।
इससे भी बड़ी बात यह कि लोगों के मुताबिक सेलिब्रिटीज उन उत्पादों का विज्ञापन केवल पैसों के लिए करते हैं और खुद इम्पोर्टेड चीजों का इस्तेमाल करते हैं। लगता है, उस महात्मा की बात बिल्कुल सच थी। इस बात का सबूत है उस सर्वे का नतीजा. जिसके मुताबिक हालत बहुत ही बुरी है।
जिन लोगों पर सर्वे किया गया था, उसमें करीब 78 फीसदी के मुताबिक वह सामान खरीदते वक्त क्वालिटी का सबसे ज्यादा ध्यान रखते हैं। इनमें से नौ फीसदी लोगों ने कहा कि वह खरीदारी के वक्त कीमत पर ज्यादा जोर देते हैं, जबकि केवल तीन फीसदी लोग-बागों की खरीदारी ही सेलिब्रिटीज के प्रचार से प्रभावित होती है। इस सर्वे में छोटे, मझोले और बड़े शहरों में रहने वाले विभिन्न आयुवर्ग और सामाजिक तबकों 2,109 औरत और मर्दों के बीच यह सर्वे किया गया है।
यह कई लोगों के लिए खतरे की घंटी हो सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि एडैक्स इंडिया की एक रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 2005 में ही सेलिब्रिटी विज्ञापनों की तादाद में 49 फीसदी का इजाफा हुआ है। इस रिपोर्ट को टैम ने जारी किया था। 2003 के बाद से तो टीवी पर विज्ञापनों की तादाद में भी छह गुना इजाफा हुआ है।
जाहिर है, इससे विज्ञापनों पर होने वाले कुल खर्च में सेलिब्रिटीज पर हिस्सा भी बढ़ चुका है। 2001 में विज्ञापनों पर होने वाले कुल खर्च में से केवल 25 फीसदी हिस्सा ही सेलिब्रिटीज के पॉकेट्स में जाया करता था। अगर परसेप्ट टैलेंट मैनेजमेंट की मानें तो आज यह हिस्सा बढ़कर 60 फीसदी की ऊंचाइयों को छू रहा है।
यह एजेंसी आज की तारीख में कई स्टार्स और कंपनियों के बीच बिचौलिए का काम करती है। इससे आज कई स्टार जुड़े हुए हैं। कंपनियां अपनी कुल कमाई का 0.7 फीसदी हिस्सा सेलिब्रिटी विज्ञापनों को बनाने में खर्च करती है। वहीं इन विज्ञापनों को टीवी पर दिखाने के लिए वह अपनी कमाई का मोटा-ताजा हिस्सा यानी 35 फीसदी रकम खर्च करती हैं।
पहचाने चेहरे, अनजाने प्रोडक्ट
भारत में लोगों के दिमाग में दो ही तो फितूर सवार होते हैं -पहला क्रिकेट और दूसरा बॉलीवुड। इसलिए हमारे मुल्क में किसी ब्रांड को प्रोमोट करने का सबसे आसान तरीका है, किसी भी हीरो या किक्रेटर को अपने साथ जोड़ लेना। वैसे इस सर्वे का तो कहना है कि सेलिब्रिटी विज्ञापनों से वह उत्पाद तो लोगों को याद रहता है, लेकिन इसका उनकी खरीदारी पर कतई असर नहीं पड़ता।
जब कैडबरी इंडिया कीड़ों से जूझ रही थी, तो उसने लोगों के भरोसे को फिर से पाने के लिए सदी के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को अपने साथ जोड़ा था। माना तो यह जाता है कि इससे कंपनी को काफी फायदा हुआ था। लेकिन वही अमिताभ बच्चन जब डाबर च्यवनप्राश के साथ जुड़े तो कंपनी को उससे ज्यादा फायदा नहीं हुआ था। बाद में बच्चन इतने उत्पादों के साथ जुड़ गए कि लोग उनके साथ दूसरे ब्रांडों को भी जोड़ने लग गए।
आईएमआईबी इंटरनैशनल के ग्रुप बिजनेस डाइरेक्टर संजय पाल ने कहा, ‘पहले पहल तो विज्ञापनदाताओं ने सेलिब्रिटीज को अपने कैंपेन को हिट बनाने और खुद को भीड़ से अलग पेश करने के लिए किया था। लेकिन, अब सेलिब्रिटी विज्ञापनों की तादाद में इतना इजाफा हुआ है कि वे खुद एक भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं। लोगों को तो याद भी नहीं रहता कि कौन किस चीज का विज्ञापन करता है।
अपनी स्टडी में हमने पाया कि करीब 15 फीसदी लोगों ने अमिताभ बच्चन को गलत प्रोडक्ट्स के साथ जोड़ दिया। वहीं, 9 फीसदी लोगों ने शाहरुख खान को भी गलत उत्पादों के साथ जोड़ दिया।’ परसेप्ट के सीईओ मनीष पोरवाल का कहना है कि, ‘लगभग सभी सेलिब्रिटी किसी भी प्रोडक्ट का विज्ञापन करने से पहले पैसे, उसकी कैटेगरी और उससे मिलने वाले फायदे को ध्यान में रखते हैं।
इसके बाद जाकर ब्रांड की खासयित, कितने दिनों की जरूरत है और कॉन्टै्रक्ट की अवधि जैसी बातों पर ध्यान जाता है।’ पोरवाल का कहना है कि, ‘ज्यादातर मामलों में सेलिब्रिटीज उस उत्पाद के खिलाफ नहीं होते। वह उन्हें पसंद तो करते हैं, लेकिन हो सकता है कि केवल उसी का इस्तेमाल नहीं करते। इस बात को तो आप भी समझ सकते हैं कि ज्यादातर सस्ते ब्रांड का इस्तेमाल सेलिब्रिटी का इस्तेमाल नहीं करते।
आप गोविंदा से साइकिल चलाने की उम्मीद तो नहीं कर सकते न और न ही संजय दत्त से एक खास ब्रांड का अंडरवियर पहनने की। यह तो विज्ञापन बनाने वाले तो रचनात्मक स्वतंत्रता है, अगर वह इन सितारों का इस्तेमाल अपने विज्ञापन बनाने में करता है। अब फिल्मों में भी तो हीरो को एक साथ 40-40 गुंडों की पिटाई करते हुए दिखाया जाता है।’
विशेषज्ञ हरीश बिजूर उन चार लेवलों की बात करते हैं, जिस पर विज्ञापन एक उपभोक्ता के दिमाग में काम करते हैं। उनका कहना है कि,’अपने उत्पाद के बारे जागरूकता फैलने के पहले लेवल में तो सेलिब्रिटी विज्ञापन जबरदस्त काम करते हैं। इस लेवल पर तो मैं उन्हें 10 में से 10 दूंगा। हालांकि, दूसरे लेवल में जब उस उत्पाद को खरीदने की इच्छा जगाने की बात आती है, तो ये कतई सफल नहीं पाते।
इस लेवल पर उन्हें 10 में से केव दो प्वाइंट मिलेंगे। असल बैंड तो तीसरे लेवल पर बजता है, जब उस इच्छा को असल खरीदारी में बदलने का वक्त आता है। यहां सेलिब्रिटी विज्ञापनों को 10 अंकों से मिलते हैं केवल 0.5 नंबर। वैसे, तीसरे लेवल तक आते-आते बात थोड़ी संभलती है।
जब लोग-बाग सेलिब्रिटी विज्ञापनों से प्रभावित होकर को प्रोडक्ट खरीदते हैं, तो उनके मन में अक्सर यह ख्याल आता है कि उन्होंने सही किया या गलत। इस मामले में सेलिब्रिटी विज्ञापन उन्हें यह अहसास कराते हैं कि उन्होंने बिलकुल सही किया।’
सेलिब्रिटी पर भारी आम आदमी
देसी कंपनी इमामी सेलिब्रिटी विज्ञापनों के कट्टर समर्थकों में से एक है। अपने देश में आज भी 1.1 अरब में से ज्यादातर लोग-बाग गांवों में रहते हैं। साथ ही, देश की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी में गुजर-बसर कर रहा है। कंपनी का कहना है कि, ‘इससे हमें ज्यादा लोगों को लुभाने में मदद मिलती है।
हम लोगों को केवल अपने उत्पादों का प्रचार करने के लिए सेलिब्रिटीज का इस्तेमाल करने की सलाह भर ही नहीं देंगे, बल्कि हमारी मानें तो यह बेहद जरूरी भी है।’ वैसे, इस बारे में अब तक लोगों के बीच एक राय नहीं है। एड एजेंसी जेडब्ल्यूटी के सीईओ कॉल्विन हैरिस का कहना है कि, ‘इस बारे में विज्ञापनों की दुनिया में कोई एक नियम तो है नहीं। इसलिए सेलिब्रिटीज एक अच्छा कैंपेन की गॉरंटी कभी नहीं हो सकते। वैसे, कई मामलों में वह उन उत्पादों के साथ एक पर्सनैलिटी को जरूर जोड़ सकते हैं।’
जेडब्ल्यूटी ने ही नाइकी के लिए एड कैंपेन बनाया था, जिसके लिए उसे अवार्ड भी मिला था। इस विज्ञापन में क्रिकेटरों की जगह आम लोगों को ही सड़कों, गलियों और बस के छतों पर क्रिकेट खेलते दिखाया गया था। इसी वजह से तो भारतीय टीम के वर्ल्ड कप से बाहर होने के बावजूद इस ब्रांड की सोच पर किसी ने उंगली नहीं उठाई।
नाइकी के क्रिकेट सामानों को भारत में स्थापित करने वाले इस विज्ञापन ने लोगों को क्रिकेटर की तौर पर खुद को ही सोचने पर मजबूर कर दिया। किसी स्टार को किसी उत्पाद को जोड़ने का एक खतरा यह भी होता है कि कल को अगर उसके सितारे गर्दिश में चले गए, तो ब्रांड को भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है। इसीलिए तो बिजूर इस वक्त तीन कंपनियों के लिए कार्टून कैरेक्टर बनाने में जुटे हुए हैं।
उनका कहना है कि, ‘खुद के बनाए गए कैरेक्टरों के साथ काम करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि उसकी लाइफ बड़ी होती है। साथ ही, कंपनियां उसे अपने तरीके से इस्तेमाल भी कर सकती हैं।’
वैसे, इस मामले में तो इतिहास भी उनसे इत्तेफाक रखता है। अपने मुल्क के विज्ञापन ऐसे विज्ञापनों की तो पूरी फौज है, जिसमें किसी सेलिब्रिटी की इस्तेमाल नहीं किया गया था। इनमें इस्तेमाल किए गए कैरेक्टर तो आज सेलिब्रिटी स्टेटस हासिल कर चुके हैं। मिसाल के लिए अमूल के विज्ञापन में दिखने वाली लड़की और लड़का को ही ले लीजिए। उन्हें तो कोई भी तुरंत ही पहचान सकता है।
यह हालत है पेप्सीको के सॉफ्टड्रिंक 7अप में इस्तेमाल होने वाले फीडो-डीडो की भी। उसे देखकर उसके ‘कूल’ स्वभाव का पता चल जाता है। एशियन पेंट्स का ‘गट्टू’ और ओनिडा के शैतान तो पॉपुलैरिटी के मामले में कई फिल्मी सितारों को पानी पिला दें। ब्रांड सलाहकार और ओनिडा के शैतान के रचयिता गोपी कुडके का कहना है कि, ‘विज्ञापन आम लोगों के दिलोदिमाग को भानी चाहिए, तभी वह कामयाब हो सकती है।
1980 के दशक में टीवी निर्माता अपनी टेक्नोलॉजी को दूसरों से बेहतर साबित करने में जुटे हुए थे। मैंने इस बात को हाईलाइट किया कि ओनिडा की टेक्नोलॉजी इतनी अच्छी है कि इससे खरीदने वालों से लोग-बाग जलन करने लगेंगे। मैंने उसी जलन को हरे रंग के शैतान के रूप में पेश किया।’
दुनिया के सबसे बड़ा च्यूइंग ब्रांड ऑर्बिट ने अपने प्रचार के लिए ‘भटावडेकर’ जैसे कैरेक्टर को चुना, जो दिखने में डॉक्टर की लगता भी है और नहीं भी। इसके विज्ञापन में उसकी हीरोइन एक गाय है। इसके बारे में तो इस ब्रांड की टैग लाइन ही बहुत कुछ कह देती है। इसकी टैगलाइन है, ‘इट्स वर्किंग’।
आईटीसी का ‘बिंगो’ भी अपने कैंपेन के लिए डॉक्टर जैसे दिखने वाले शख्स का इस्तेमाल करती है। वैसे हिंदुस्तान यूनिलीवर अपने प्रोडक्ट्स के लिए ब्रांड अम्बैस्डर चुनने के लिए इंटीग्रेटेड ब्रांड कम्युनिकेशन का इस्तेमाल करती है। वैसे, इसके कई बिना सेलिब्रिटी वाले विज्ञापनों ने ज्यादा अच्छा काम किया है।
मिसाल के तौर पर सनसिल्क के गैंग ऑफ गर्ल्स को ही ले लीजिए। यह कैंपेन तुरंत ही हिट हो गए। वैसे इसके एक ब्रांड लक्स ने बड़े नामों की बदौलत ही सफलता पाई है। लीरिल के झरनों ने तो गजब ढा दिया और इस कैंपेन में आईं कई लड़कियों की तो किस्मत ही चमक गई।
तो अंत में हिसाब यही निकला कि सेलिब्रिटी किसी प्रोडक्ट की ब्रांड वैल्यू को बढ़ा देते हैं। साथ ही, वह एड एजेंसियों के कमिशन को भी मोटा कर देते हैं। हालांकि, उपभोक्ताओं को लुभाना है तो कंपनियों को क्वालिटी की तरफ भी ध्यान देना पड़ेगा। साथ ही, आइडिया भी वास्तविक होना चाहिए।
कुछ ब्रांड अपने विज्ञापनों में गलत तरीके से सेलिब्रिटी की इस्तेमाल करते हैं और कैंपेन के फेल होने पर सारा ठीकरा उन्हीं के सिर पर फोड़ देते हैं। पोरवाल के मुताबिक,’यह तो वैसा ही, जैसा कोई खराब कामगार अपने खराब काम का ठीकरा अपने औजार पर फोड़ता है। विज्ञापन का मकसद लोगों का ध्यान खींचना होना चाहिए। न तो अकेले उत्पाद हीरो हो सकता है और न ही सेलिब्रिटी।’