आम आदमी पार्टी का गठन अक्टूबर 2012 में हुआ था। उस समय कई लोगों ने शौकिया राजनीति करने वाले लोगों के समूह के हस्तक्षेप को खारिज ही कर दिया था। आप पर भरोसा जताने वाले कुछ लोगों ने इसे ‘अलग’ करार दिया था।
पुस्तक ‘मेजरिंग वोटर बिहेवियर इन इंडिया’ के लेखक व सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसाइटीज के प्रवीण रॉय के मुताबिक, ‘यह राजनीतिक विकल्प तीन विशेषताओं के कारण व्यावहारिक नजर आया था : पहला, इसमें शुरुआती दौर में समाज के विभिन्न तबकों की हिस्सेदारी थी और इसका राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह अराजनीतिक था। इस समूह पर गांधीवादी विचारधारा और स्वराज का असर भी था। इसे आंदोलन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से भी मदद मिली थी। दूसरा, दल ने अपने को किसी भी दार्शनिक सोच से नहीं बांधा था और इसलिए अपने समर्थकों को बनाने के लिए किसी राजनीतिक मार्केटिंग की जरूरत नहीं पड़ी।
इसका एकमात्र ध्येय आम लोगों के जीवन से भ्रष्टाचार को दूर करना था। तीसरा, पार्टी में प्रवेश के दरवाजे आम लोगों के लिए खुले थे और इसका नेतृत्व व्यापक था। दल में अफसरशाही की तरह पद नहीं थे। यह दल कड़ाई से आम लोगों की सहमति पर फैसले लेता था।’
आप ने बीते 10 सालों के दौरान अपने को सुलझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित कर दिया है। वर्तमान समय में आप बुनियादी स्तर पर राष्ट्रीय विपक्षी दल कांग्रेस का विकल्प नजर आती है। आप के चुनावी सफर की शुरुआत 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव से हुई थी, इस चुनाव में दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में में 28 पर आप विजयी हुई थी। चुनाव में बहुमत नहीं मिलने के कारण आप को निराशा हाथ लगी थी लेकिन तीन बार की दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी हार का सामना करना पड़ा था।
अरविंद केजरीवाल से शीला दीक्षित चुनाव हार गई थीं। इस चुनाव में कांग्रेस केवल आठ सीटें ही जीत पाई थी जबकि 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 43 सीटें मिली थीं। आप का नेतृत्व पूरी तरह केजरीवाल के हाथ में आ गया था। इसके बाद 2014 में लोकसभा चुनाव हुए थे। इस चुनाव में आप पंजाब में चार संसदीय सीट जीत गई थी। इन चार सीटों ने 2022 में पंजाब में सरकार बनाने का खाका खींच दिया था। इसने न केवल कांग्रेस बल्कि राज्य की राजनीति में गहरी जड़ें जमा चुकी शिरोमणि अकाली दल को भी प्रभावित किया। देश की राजधानी दिल्ली में 2015 को हुए चुनाव में आप ने अपनी स्थिति मजबूत की थी।
दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 67 पर आप ने कब्जा किया और आप को रिकॉर्ड 54 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन इसके संगठनात्मक विकास के रास्ते के दौरान कई राजनीतिक समझौते करने पड़े हैं। आप से अलग हुए कॉमरेड योगेंद्र यादव ने सितंबर 2021 को अपने लेख में लिखा था,’अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व के सबसे खतरनाक गुण को भांपने में विशेषतौर पर मुझ जैसे लोग और प्रशांत भूषण विफल रहे थे : चुनावी सफलता के लिए केजरीवाल हरेक कुर्बानी देने को तैयार थे। मैंने पाया कि वह सामाजिक न्याय के मुद्दे पर विरोधाभासी और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर चुप्पी साधने वाले थे। वह पक्के संघी हैं।
असल समस्या यह धारणा नहीं थी कि वह ‘मुसलमान विरोधी (वह नहीं थे, और मेरा विश्वास है कि अभी भी नहीं हैं)’ थे बल्कि वह वोट के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। हम उनकी असुरक्षा की भावना नए दल पर पूरी तरह कब्जा करने और उसकी सभी जगह व सभी कुछ हेराफेरी करने की क्षमता का अनुमान तक नहीं लगा पाए थे।’ यादव का तर्क केजरीवाल और उनकी भूमिका पर केंद्रित था। हालांकि आप ने बतौर दल सिस्टम में खामियों को देख लिया था और इसका फायदा उठाया। आप ने कई मुद्दों पर अस्पष्ट रुख अपनाकर मतदाताओं को भ्रमित किया।
आप ने दावा किया था कि वह सामाजिक मुद्दों, जाति व धर्म पर पारंपरिक राजनीति से दूर रहेगी। ये गौरवान्वित करने वाले दावे उसके लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं। आप ने कभी भी आर्थिक पिछड़े वर्ग के कोटे पर कोई टिप्पणी नहीं की है जबकि आप नियमित रूप से आमतौर पर बाबा साहेब आंबेडकर को श्रद्धांजलि अर्पित करती है। इसने शासन में ‘राज्य’ की भूमिका पर टिप्पणी करने से परहेज किया है। उसने दावा किया था कि 2017 के एमसीडी चुनाव में ईवीएम के कारण हार का मुंह देखना पड़ा था (इस चुनाव में 2015 के विधानसभा चुनाव की तुलना में 22 फीसदी कम वोट मिले थे) लेकिन इसी ईवीएम के बलबूते 2022 में शानदार प्रदर्शन किया!
हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्ट्रीय दल का खिताब मिलने के बाद दल की महत्त्वाकांक्षाएं तेजी से बढ़ेंगी। केजरीवाल का साम्राज्य बढ़ने पर क्या वह इस गति को बरकरार रख पाएंगे? क्या यह पार्टी में सत्ता के अधिक केंद्रीकरण की कीमत पर होगा? यही देखने की जरूरत है।