सार्वजनिक बुद्धिजीवी और मीडिया टिप्पणीकार ‘विधि के शासन’ पर अत्यधिक विश्वास रखते हैं, यह और बात है कि नियम शक्तिशाली लोगों द्वारा बनाये जाते हैं और एक ऐसी व्यवस्था में लागू किये जाते हैं जहां संसाधन संपन्न लोग उनकी व्याख्या अपने फायदे के लिए कर सकते हैं। इस आलेख में हम इस विषय में बात करना चाहेंगे कि विधि का शासन सभ्य समाज के लिए एक आवश्यक शर्त है लेकिन यह न्याय दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। सबसे पहले हम न्यायपालिका पर ध्यान केंद्रित करेंगे, खासतौर पर उच्च न्यायपालिका पर, इस कड़ी के अगले आलेखों में हम पुलिस सुधार और नागरिक समाज पर ध्यान केंद्रित करेंगे। आखिरी आलेख में मैं यह दलील दूंगा कि स्थानीय समुदायों के अधिकारों और कर्तव्यों की सफलता की संभावना तब अधिक होती है जब विधि के शासन और सांप्रदायिक शांति को कायम रखा जाए, बजाय कि केवल संविधानवाद पर जोर देने के।
सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक अदालत और अंतिम अपील अदालत के रूप में अपना काम करने में नाकाम रहा। वह न तो कानून का प्रवर्तन संतोषप्रद ढंग से कर सका है और न ही निर्णय में एकरूपता सुनिश्चित कर सका ताकि न्याय होता दिख सके। राह चलते किसी भी व्यक्ति से पूछिए कि क्या उसे अदालत से न्याय मिलेगा? ज्यादातर लोग अनिश्चित दिखेंगे। ऐसा न केवल अंतहीन देरी की वजह से है बल्कि निर्णयों में भारी अंतर के कारण भी है। गत माह न्यायमूर्ति यू यू ललित (जो अगस्त में देश के प्रधान न्यायाधीश बनेंगे) की अध्यक्षता वाले तीन न्यायधीशों के एक पीठ ने चार वर्षीय बच्चे का बलात्कार और हत्या करने वाले की सजा घटा दी। दलील यह दी गई कि हर पापी का भविष्य होता है। सोशल मीडिया पर इसकी जमकर आलोचना हुई। उसी दिन ठाणे की एक अदालत ने सात वर्षीय बच्चे का बलात्कार और हत्या करने वाले को मौत की सजा सुनाई। ऐसे ही एक मामले में बंबई उच्च न्यायालय ने मौत की सजा बरकरार रखी। निर्भया मामले में सभी दोषियों को मौत की सजा दी गई। यदि समान मामलों में निर्णय अलग-अलग हो सकते हैं तो न्याय की आशा कैसे की जाए?
गत वर्ष लेखक डेनियल कानमैन, ओलिवियर सिबोनी और कास आर सस्टीन ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका शीर्षक था: अ फ्लॉ इन ह्यूमन जजमेंट। उन्होंने दिखाया कि कैसे अमेरिका में एक जैसे मामलों में अलग-अलग निर्णय सुनाये जा सकते हैं। सन 1984 में वहां सेंटेंसिंग कमीशन गठित किया गया ताकि एक जैसे मामलों में समान सजा सुनायी जा सके। परंतु समय बीतने के साथ अमेरिकी उच्च न्यायपालिका ने इन दिशानिर्देशों को शिथिल कर दिया ताकि न्यायाधीश अपने सोच से निर्णय ले सकें।
हमारे उच्चतम न्यायालय ने भी अदालतों को किसी केंद्रीय दिशानिर्देश से मुक्त करने के लिए यही किया। सन 1999 और 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता में अहम बदलाव किए और दीवानी मामलों के स्थगन, समन जारी करने तथा लिखित वक्तव्यों की सीमा तय की। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए इन्हें लगभग निष्क्रिय कर दिया कि ये केवल दिशानिर्देश हैं, कोई वैधानिक सीमा नहीं। प्रश्न यह है कि न्याय अगर समय पर न मिले तो उसे न्याय कैसे कहा जाए?
दूसरी बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय प्राय: सुर्खियां बटोरने वाली जनहित याचिकाओं को तवज्जो देता है, बजाय कि आम लोगों की जरूरत से जुड़े मामलों के। सुप्रीम कोर्ट ऑब्जर्वर के एक विश्लेषण के अनुसार सन 1985 से 2019 के बीच सालाना औसतन 26,000 जनहित याचिकाएं लगायी गईं। सर्वोच्च न्यायालय उनमें से अपनी मर्जी से मामलों की सुनवायी करता है। हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने राजमार्गों पर बार हों या नहीं, दिल्ली आने वाली एसयूवी पर ज्यादा कर हो या नहीं और कोविड के दौरान ऑक्सीजन और टीकों की आपूर्ति तक हर तरह के मामले सुने। दुनिया के किसी अन्य देश में आपको ऐसा देखने को नहीं मिलेगा कि सरकार के साथ-साथ न्यायालय भी ऐसे नीतिगत मसलों में उलझा हो।
दूसरी ओर वास्तविक संवैधानिक मसले- नागरिकता संशोधन अधिनियम की वैधानिकता, हिंदुओं के अपने उपासना स्थलों पर पूजा करने के अधिकार, अनुच्छेद 370 को रद्द करना और सबरीमला फैसले की समीक्षा जैसे मामले वर्षों से लंबित हैं। अयोध्या विवाद का निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के निर्णय के नौ वर्ष बाद आया। यह भी कहा जा सकता है कि अगर 2019 के आम चुनाव के नतीजे इतने निर्णायक न होते तो अदालत शायद अभी और समय लेती। दूसरी ओर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग जिसे संसद और राज्य सरकारों की आपसी सहमति से एक कानून बनाकर स्थापित किया गया था उसने न्यायपालिका ने खुद जल्द निस्तारण के लिए चुन लिया। एक ऐसा निस्तारण जहां न्यायपालिका स्वयं एक पक्ष थी।
संवैधानिक अदालतें भी मामलोंं का चयन इस आधार पर करती हैं कि वह कितनी सुर्खियां बटोर सकता है। खासकर अंग्रेजी और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में। हालांकि इसका कारोबार और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है या कई बार यह निष्प्रभावी भी साबित होता है। यही कारण है कि हमें 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आवंटन मामलों में ऐसे निर्णय सुनाये गए जहां उन लोगों को भी नुकसान हुआ जो धोखाधड़ी का हिस्सा नहीं थे। अदालतें कहती हैं कि सरकारें संविधान के कुछ बुनियादी गुणों में संशोधन नहीं कर सकतीं लेकिन वे उन गुणों के बारे में कुछ नहीं बतातीं। संपत्ति का अधिकार तो बुनियादी गुण नहीं है लेकिन न्यायाधीशों द्वारा न्यायिक नियुक्तियों पर निर्णय करना बुनियादी गुण है। निजता मूल अधिकार है जबकि लाखों भारतीय अपने अधिकार बड़ी तकनीकी कंपनियों को सौंप रहे हैं। जेल नहीं बल्कि जमानत मानक होना चाहिए लेकिन निचली अदालतें किसी भी शक्तिशाली नेता की निंदा करने वाले की गिरफ्तारी पर मुहर लगा देती हैं।
विधि आयोग ने सुझाव दिया है कि सर्वोच्च न्यायालय को दो हिस्सों में बांटा जाना चाहिए। दिल्ली में एक हिस्सा संवैधानिक अदालत हो जबकि दूसरा हिस्सा गैर संवैधानिक मामलों की अंतिम अपील अदालत हो। परंतु अब तक सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही सुधार में कोई रुचि नहीं दिखायी है। यदि वह स्वयं में सुधार के लिए तैयार नहीं हो सकता तो भला आम लोगों के लिए विधि का शासन कैसे सुनिश्चित करेगा?
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
