facebookmetapixel
Yearender 2025: टैरिफ और वैश्विक दबाव के बीच भारत ने दिखाई ताकतक्रेडिट कार्ड यूजर्स के लिए जरूरी अपडेट! नए साल से होंगे कई बड़े बदलाव लागू, जानें डीटेल्सAadhaar यूजर्स के लिए सुरक्षा अपडेट! मिनटों में लगाएं बायोमेट्रिक लॉक और बचाएं पहचानFDI में नई छलांग की तैयारी, 2026 में टूट सकता है रिकॉर्ड!न्यू ईयर ईव पर ऑनलाइन फूड ऑर्डर पर संकट, डिलिवरी कर्मी हड़ताल परमहत्त्वपूर्ण खनिजों पर चीन का प्रभुत्व बना हुआ: WEF रिपोर्टCorona के बाद नया खतरा! Air Pollution से फेफड़े हो रहे बर्बाद, बढ़ रहा सांस का संकटअगले 2 साल में जीवन बीमा उद्योग की वृद्धि 8-11% रहने की संभावनाबैंकिंग सेक्टर में नकदी की कमी, ऋण और जमा में अंतर बढ़ापीएनबी ने दर्ज की 2,000 करोड़ की धोखाधड़ी, आरबीआई को दी जानकारी

साप्ताहिक मंथन: टिकाऊ वृद्धि दर

Last Updated- May 19, 2023 | 8:17 PM IST
Core Sector Growth
BS

पिछले चार दशकों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में नाटकीय बदलाव आए हैं। वर्ष 1980-81 में भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 38 प्रतिशत से कम होकर 21 प्रतिशत रह गई थी, जबकि सेवा क्षेत्र का हिस्सा 37 प्रतिशत से बढ़कर 53 प्रतिशत तक पहुंच गया। उद्योग जगत (निर्माण सहित) की हिस्सेदारी कमोबेश 26 प्रतिशत के स्तर पर अपरिवर्तित रही। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में सबसे धीमी गति से बढ़ने वाला कृषि क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों की तुलना में अधिक सिकुड़ा है, जबकि सर्वाधिक तेजी से बढ़ता सेवा क्षेत्र शीर्ष पर पहुंच गया है।

संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए इस संरचनात्मक बदलाव का क्या महत्त्व है? यह मान लिया जाए कि क्षेत्रवार वृद्धि दर में कोई बदलाव हुआ है तो त्वरित गति से बढ़ते सेवा क्षेत्र के महत्त्व का यह अभिप्राय है कि आर्थिक वृद्धि में तेजी आनी चाहिए थी। इन तीनों क्षेत्रों की हिस्सेदारी में बदलाव को देखते हुए 1980 के दशक में दर्ज 5.5 प्रतिशत वृद्धि दर अब बढ़कर कम से कम 6.3 प्रतिशत रहनी चाहिए थी।

अब दूसरे कारक जैसे जीवन प्रत्याशा पर विचार करते हैं। जीवन प्रत्याशा 1980 के दशक में 54 वर्ष थी जो अब बढ़कर 70 वर्ष तक हो गई है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाए तो औसत भारतीय अपने काम करने की उम्र में नहीं मरते हैं। इससे उत्पादकता बढ़नी चाहिए थी। इसके साथ ही शिक्षा का भी विस्तार हुआ है और विद्यालय स्तर के बाद प्राप्त की जाने वाली शिक्षा के लिए नामांकन काफी बढ़ा है।

परंतु शिक्षा की गुणवत्ता एक प्रमुख मुद्दा जरूर है। इन बातों के साथ नियत पूंजी निवेश की दर (1980-81 में यह दर सकल घरेलू उत्पाद का 19.7 प्रतिशत थी जो कोविड महामारी से पहले तक बढ़कर 28.6 प्रतिशत हो गई) भी बढ़ी है और देश में डिजिटलीकरण भी वृहद स्तर पर हुआ है।

इनमें कुछ कारकों से क्षेत्रवार हिस्सेदारी में बदलाव हुए होंगे। इसे दिमाग में रखते हुए यह तर्क दिया जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सालाना वृद्धि क्षमता कम से कम 7 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचनी चाहिए थी। वृद्धि दर इस स्तर से ऊपर जाती है तो माना जाता है कि अर्थव्यवस्था तेज गति से आगे बढ़ रही है। वास्तव में कोविड महामारी से दो दशक पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था कई उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरने के बावजूद सालाना औसत वृद्धि दर 7 प्रतिशत से बहुत पीछे नहीं रही।

Also Read: पीएलआई आवंटन बढ़ाना काफी नहीं

ऐसे में यह ध्यान देने योग्य (मगर हैरानी की बात नहीं है) है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को लगता है भारत की संभावित वृद्धि दर पर असर हुआ है। आईएमएफ के अनुसार आंशिक रूप से कोविड महामारी सहित दूसरे कारक इसके लिए जिम्मेदार हैं।

इस वैश्विक संस्था के मुख्य अर्थशास्त्री पीयरे-ओलिवियर-गोरिंचस ने पिछले महीने वैश्विक आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं पर कहा कि चालू वर्ष में भारत की वृद्धि दर इसकी क्षमता की सीमा के करीब थी और वास्तविक और संभावित वृद्धि में ‘उत्पादन अंतर’ नहीं था। गोरिंचस के शब्द कोई सार्वभौम सत्य नहीं हैं।

सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इस साल वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से अधिक रहने का अनुमान जताया है। मगर नीति निर्धारकों को उस वृद्धि दर को लेकर गंभीरता दिखानी चाहिए जिस पर ‘उत्पादन अंतर’ नहीं दिखेगा। क्या यह दर वास्तव में 6 प्रतिशत है जो दो दशकों के दौरान अर्जित दर से भी काफी कम है?

इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए कोविड महामारी के मध्यम अवधि में हुए असर को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। बड़ी संख्या में लोग फिर जीवन-यापन के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर होते जा रहे हैं और कुल आबादी और काम करने वाले लोगों का अनुपात कम हो रहा है।

इसके अलावा लघु एवं मझोले उद्यमों को नुकसान हुआ है और इन बातों की कारण उपभोग एवं निवेश की मांग कम हो गई है। वर्तमान में सार्वजनिक ऋण का बढ़ा स्तर भी विचारणीय है। राजकोषीय घाटा इसका कारण है क्योंकि सरकार ने निजी क्षेत्र से व्यय में कमी की भरपाई अपने उपलब्ध संसाधनों से करने का प्रयास किया है। सुस्त वैश्विक वृद्धि दर और व्यापार भी इसके कारण हैं।

Also Read: तकनीक से आसान होगा सूचना युद्ध से निपटना

पर्यावरण को हुए नुकसान का भी असर हुआ है और परिवहन आधारभूत ढांचे में बड़े निवेश की आवश्यकता के समय पूंजी व्यय पर निर्भर वृद्धि दर भी अपना असर छोड़ रहे हैं। नीतिगत मोर्चे पर सरकार से हुईं गलतियां (क्षेत्रीय व्यापार समझौते से अलग रहने का निर्णय आदि) और युद्ध और इसके परिणाम भी अर्थव्यवस्था की राह में चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं।

इन सभी बिंदुओं पर विचार करने के बाद देश की टिकाऊ वृद्धि दर को लेकर अनुमान में कमी की बात स्वीकार करनी होगी। यह अच्छी बात है कि भारत दुनिया में सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है मगर यह केवल तुलनात्मक अध्ययन है। जो मानक वाकई मायने रखता है वह यह है कि क्या देश की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल कर पाएगी?

मगर यह प्रतीत हो रहा है कि भारत इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहा है। यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि टिकाऊ वृद्धि दर 7 प्रतिशत से कम रहती है या 6 प्रतिशत से अधिक मगर एक बात तो स्पष्ट है कि सरकार को सृजनात्मक वृद्धि एवं रोजगार के लिए देश की क्षमता बढ़ानी होगी।

First Published - May 19, 2023 | 8:17 PM IST

संबंधित पोस्ट