भारत के वैश्विक आर्थिक मंदी से बेहतर ढंग से निपटने की संभावनाओं को लेकर एक वजह यह बताई जा रही है कि बीते कुछ वर्षों के दौरान हमारे बैंकों की बैलेंस शीट में काफी सुधार हुआ है। यह इसलिए संभव हुआ कि नियामकीय निगरानी अपेक्षाकृत सख्त रही और बैकों ने भी अपनी बैलेंस शीट को साफ-सुथरा रखने के लिए काफी मेहनत की तथा पूंजी जुटाई।
बहरहाल, बैंकों के लिए जहां यह प्रक्रिया कारगर साबित हुई, वहीं ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रक्रिया के दौरान शायद कुछ कर्जदारों के साथ उचित व्यवहार नहीं हुआ। यह बात इस सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठ के महत्त्वपूर्ण निर्णय में भी सामने आई। इस पीठ में देश के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली शामिल थीं। न्यायालय ने कहा कि बैंकों द्वारा किसी खाते को धोखाधाड़ी वाला घोषित करने के पहले कर्जदार को सुनवाई का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। न्यायालय भारतीय स्टेट बैंक तथा अन्य की अपील की सुनवाई कर रहा था।
भारतीय रिजर्व बैंक ने 2016 में वाणिज्यिक बैंकों और चुनिंदा वित्तीय संस्थानों के लिए जो मास्टर डाइरेक्शंस ऑन फ्रॉड्स-क्लासिफिकेशंस ऐंड रिपोर्टिंग जारी की थी उसमें बैंकों से उम्मीद की गई है कि वे धोखाधड़ी के बारे में समयबद्ध ढंग से जानकारी देंगे। इस परिपत्र को विभिन्न उच्च न्यायालयों में इस आधार पर चुनौती दी गई कि खातों को धोखाधड़ी वाले खातों के रूप में वर्गीकृत करने के पहले कर्जदारों को अपनी स्थिति साफ करने का मौका नहीं दिया गया।
इस संदर्भ में तेलंगाना उच्च न्यायालय ने कहा था कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को रिजर्व बैंक के परिपत्र के प्रावधानों में पढ़ा जाना चाहिए। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसे बरकरार रखा है। उसने कहा कि प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत जो कहता है कि किसी व्यक्ति को बिना सुनवाई के दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, उसे रिजर्व बैंक द्वारा खातों को धोखाधड़ी वाले खातों के रूप में वर्गीकृत करने के मामलों में भी लागू किया जाना चाहिए।
उसने यह भी कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का तकाजा है कि कर्जदार को एक नोटिस मिलना चाहिए और उसे यह मौका दिया जाना चाहिए कि वह अपनी बात सामने रखे।
दिलचस्प बात यह है कि बैंकों की ओर से सुनवाई के लिए पेश हो रहे वकीलों ने दलील दी है कि कर्जदाताओं ने धोखाधड़ी को चिह्नित करने और जांचने के लिए एक व्यवस्था बनाई है। वे प्रवर्तन एजेंसियों के साथ शिकायत करते हैं जो जांच को पूरा करते हैं।
धोखाधड़ी को लेकर अंतिम निर्णय एक सक्षम न्यायालय द्वारा घोषित किया जाता है। ऐसे में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत आपराधिक विधि की प्रक्रिया आरंभ करते समय लागू नहीं होते। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय मानता है कि मास्टर डाइरेक्शंस कर्जदारों के लिए बहुत गंभीर परिणाम लाने वाले साबित होते हैं। बैंक उन्हें भरोसेमंद नहीं मानते। इसके अलावा भी कई असर होते हैं।
इस फैसले ने कर्जदारों को बहुप्रतीक्षित राहत प्रदान की है और एक हद तक कर्जदारों और कर्जदाताओं के रिश्तों को संतुलित किया है। बीते दशक में जब फंसे हुए कर्ज में इजाफा होने लगा और इसके व्यापक वृहद आर्थिक और राजनीतिक परिणाम सामने आने लगे तो यह दबाव बढ़ने लगा कि बैंकिंग व्यवस्था को यथाशीघ्र ठीक किया जाए।
रिजर्व बैंक ने फंसे हुए कर्ज का समय पर पता लगाने के लिए कई नियमन तैयार किए। यह ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता के आगमन के पहले किया गया। इस बात में कोई विवाद नहीं है कि बैंकों को ऋण वसूलने का पूरा अधिकार है, वहीं उन्हें व्यापक असर वाले दंडात्मक कदम उठाने के पहले कर्जदारों को एक और मौका देना चाहिए।
यह संभव है कि बैंक शायद कई मामलों में अपने निर्णय न बदले लेकिन प्रभावित कर्जदारों के पास मौका होगा कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकें। बैंकों के लिए धोखाधड़ी वाले खातों से बचने का सबसे अच्छा तरीका यही होगा कि ऋण के मानकों में सुधार किया जाए। उन्हें हकीकत से कोसों दूर अनुमान वाली परियोजनाओं और बड़ी संख्या में अव्यवहार्य कंपनियों को कर्ज देने से बचना चाहिए।