इस चुनावी माहौल में बेरोजगारी को लेकर खूब गर्मागर्म चर्चा हुई, खासतौर पर इस बात को लेकर कि कैसे युवा रोजगार के अभाव में अवसाद से घिरे हुए हैं।
एक दिलचस्प सवाल यह उठता है कि बेरोजगारी से सबसे ज्यादा प्रभावित युवा अपनी जिंदगी और दुनिया के नजरिये से रोजगार की स्थिति को किस तरह देखते हैं। वे इसके बारे में क्या सोचते और महसूस करते हैं? क्या उनमें गुस्सा और कुढ़न है? क्या वे खुद को थके और हारे हुए महसूस करते हैं? क्या वे चिंतित हैं? या इनमें से कोई भाव नहीं है?
पिछले महीने भी हमने अपने इस स्तंभ में ‘दुनिया और चुनाव के बारे में युवाओं की सोच’ शीर्षक वाले लेख में देश के युवाओं से जुड़े ‘ड्राइवर्स ऑफ डेस्टिनी’ नाम के शोध के कुछ निष्कर्षों का ब्योरा साझा किया गया था।
अनुसंधान में शामिल युवाओं के समूह को ‘अग्रणी’, ‘मध्य भारत’ का प्रतिनिधि माना गया है यानी, ये कॉलेज शिक्षित (विभिन्न कॉलेज और कोर्स वाले), शहरी (भारत के बड़े और छोटे शहरों के रहने वाले), निम्न मध्यम और मध्यम आय वर्ग के (इसे ‘मध्यम वर्ग’ न समझें, जो वास्तव में भारतीय घरों के सबसे संपन्न 40 प्रतिशत तबके को दर्शाता है) हैं, जिनमें से कई अपने परिवार में कॉलेज जाने वाली पहली पीढ़ी के हैं।
यह ‘उभरता हुआ भारत’ और ‘महत्त्वाकांक्षी भारत’ है और खुदरा क्षेत्र के उद्यमी किशोर बियाणी के मशहूर 1-2-3 फ्रेमवर्क (मार्केटिंग ढांचा जिसमें तीन स्तर के ग्राहक शामिल हैं जिनमें उच्च आय वाला वर्ग, मध्यम आय वाला वर्ग और निम्न आय वाला वर्ग) का इस्तेमाल करते हुए यह देखा जाता है कि इस वर्ग, मध्यम आमदनी वर्ग यानी भारत 2 में पूरी तरह शामिल नहीं है लेकिन वे यहां तक लगभग पहुंच चुके हैं, हालांकि उन्हें भारत 1 नेटवर्क तक पहुंचने का विशेषाधिकार हासिल नहीं है। लेकिन वे इतने भी गरीब नहीं है कि वे वहां के अवसरों से अनजान हो या उन्हें पाने का प्रयास न कर सकें।
इसमें मुख्य बात यह है कि युवा भारत का यह समूह न तो अधिक परेशान है और न ही रोजगार की कमी के चलते बेहद गुस्से में या निराशा में है। ऐसा महसूस होता है कि मौजूदा भारत, 1970 के दशक की बॉलीवुड फिल्मों में अभिताभ बच्चन द्वारा ‘ऐंग्री यंग मैन’ के तौर पर युवाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले और ‘मेरे अपने’ में नौकरी मिलने के इंतजार में अपनी जिंदगी बरबाद करने युवाओं तुलना में यह बिल्कुल अलग भारत है।
स्वनियोजित लोग वास्तव में अंशकालिक तौर पर काम करने वाली आबादी (गिग वर्कर) में तब्दील होते जा रहे हैं और वे जिस शब्द का इस्तेमाल करते हैं वह शब्द ‘नौकरी’ नहीं बल्कि ‘काम’ है। वे इस बात को साफतौर पर समझते हैं कि काम ढूंढना मुश्किल है और बिना प्रयास के आसानी से काम नहीं मिलता है। वे लगातार काम की तलाश करने का प्रयास कर रहे हैं और यह उनके जीवन का एक बड़ा मुद्दा है। वे यह भी कहते हैं कि वे बहुत कोशिश कर रहे हैं और यह मुश्किल भी है, लेकिन काम करना जरूरी है।
हालांकि, दिलचस्प यह है कि एथनोग्राफर (लोगों के बीच रहकर उन पर शोध करने वाले शोधार्थी) ने इसे ‘समस्या’ के रूप में नहीं सुना। आम तौर पर काम करने वालों के पास करने के लिए कई तरह के काम होते हैं और इन कामों में लगातार बदलाव होता रहता है और आगे किस तरह के काम मिल सकते हैं यह इस पर भी निर्भर करता है (इससे अंदाजा मिलता है कि इसी के चलते कई क्षेत्रों में लोग जल्दी से नौकरी छोड़ देते थे)।
लेकिन भले ही काम के बारे में उनका नजरिया अल्पकालिक है लेकिन फिर भी उम्मीद है कि उनके लिए चीजें बेहतर होंगी। ये आत्मविश्वास हर तरफ से मिल रही जानकारियों से मिलती है खासतौर पर वे जिस माहौल में रहते हैं और वे सिर्फ वही चुनते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, दूसरी तरफ, वे चीजों को नजरअंदाज भी कर देते हैं।
पिछले लेख में हमने बताया था कि वे दुनिया को अपने आसपास और अपने जीवन के सीमित दायरे से ही देखते हैं। इस नजरिये से उन्हें लगता है कि ‘मैं ठीक हूं, मैं ये कर सकता हूं।’
मुश्किलों का सामना करने की हिम्मत और नई चीजें सीखने की इच्छा भी उनमें काफी होती है। उनका सोचना होता है कि ‘मैं कोशिश तो करूंगा, अगर सफल ना हो पाए तब भी कोई बात नहीं, मैं कुछ और कोशिश करूंगा।’
उनका जीवन इंटरनेट और सोशल मीडिया से जुड़ी सूचनाओं से भरा रहता है। सफल कैसे बनें (यूट्यूब पर इस विषय पर वीडियो की भरमार है), जैसे विषय से जुड़े विमर्श में भी उनकी व्यस्तता है और सोशल मीडिया उन लोगों को रोल मॉडल दिखाने में बहुत प्रभावशाली भूमिका निभाता है जिन्होंने अपने जुनून को आमदनी के स्रोत में बदल दिया है। यह सब उनके अंदर बहुत अधिक अराजकता जैसी स्थिति पैदा करता है और लगातार काम की तलाश करने से शारीरिक और मानसिक थकान भी होती है।
हालांकि ये लोग दुखी नहीं हैं और सरकारी नौकरी से उन्हें वाकई खुशी मिल सकती है। उनके लिए ये स्थिरता, सामाजिक प्रतिष्ठा और ‘सेट हो जाने’ वाली जिंदगी का प्रतीक है। उनका लक्ष्य यूपीएससी, आरबीआई, राज्य सरकार की प्रतियोगी परीक्षाएं, के इर्द-गिर्द केंद्रित है। ये परीक्षाएं योग्यता के आधार पर मिलने वाले अवसरों (हालांकि यह आसान नहीं) का भी प्रतीक हैं। वहीं दूसरी ओर, कुछ लोग जो बहुत जोखिम लेने के लिए तैयार रहते हैं, उनका मानना है कि वे शेयर बाजार में खूब कमाई कर सकते हैं।
यहां एक दिलचस्प बात सामने आई कि उन्हें इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है कि उन्हें नौकरियां कैसे मिलती हैं। उन्हें नहीं लगता कि ये किसी की जिम्मेदारी हो सकती है कि उनके लिए रोजगार के मौके तैयार किए जाएं। वे नौकरियों को ‘बाजार’ का नतीजा मानते हैं जो किसी अदृश्य शक्ति (हमारे शब्द, उनके नहीं) द्वारा बनाई गई है। इस ‘बाजार’ के नजरिये से देखा जाए तो नौकरी मिलना मुश्किल है लेकिन इसके लिए कोई दोषी भी नहीं है।
यह कहानी, जबरदस्त जज्बे (अपने आसपास को प्रभावित करने की व्यक्तिगत क्षमता) का मुकाबला एक बेहद मुश्किल माहौल (सीमित चयन वाली परिस्थितियों) से होने से जुड़ा है। हालांकि उनके पास जो क्षमता और जज्बा है वह फिलहाल हमारी उम्मीद है। ये कहानी हमें जल्द से जल्द अलग तरह की संरचनात्मक मदद देने के बारे में सोचने के लिए भी प्रेरित करती है।
शायद ये मदद मध्यम वर्ग तक वित्तीय सुविधाओं की समान रूप से पहुंच, बेहतर बाजारों और अंशकालिक काम करने वाले गिग कामगारों की जिंदगी को कम थकाऊ और मुश्किल बनाने के बेहतर बुनियादी ढांचे के रूप में हो सकती है।
(लेखिका ग्राहकों से जुड़ी व्यापार रणनीति के क्षेत्र में कारोबार सलाहकार हैं)