पिछले दिनों खबर प्रकाशित हुई थी कि भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने फोन टैप करने का अधिकार दिए जाने की मांग रखी थी लेकिन सरकार ने उसे नकार दिया। यह मामला एक नियामक की अपनी वैधानिक शक्ति के विस्तार की ही कोशिश लगती है जबकि उसने पहले से हासिल शक्ति का पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया है।
जब भी कोई अपराध होता है तो भारतीय कानून प्रवर्तक इकाइयां और भी अधिकारों की मांग करने लगती हैं और अक्सर उन्हें ये मिल भी जाते हैं। भारत में यह स्थापित धारणा है कि अपराध पर लगाम लगाने के लिए बुनियादी बाधा कानूनों का अभाव है, न कि पहले से ही हासिल व्यापक शक्ति का इस्तेमाल कर पाने में सरकार की नाकामी इसके लिए जिम्मेदार है। जब एक जघन्य यौन वारदात होती है तो हम मृत्युदंड की अनुमति देने वाले सख्त कानून बनाने में लग जाते हैं। इसके पीछे हमारी सहज सोच यही होती है कि मौत के डर से ऐसे अपराध करने वालों पर अंकुश लगाया जा सकता है। लेकिन हम यह नहीं सोचते हैं कि ऐसे मामलों में मौत की सजा का प्रावधान करने से पीडि़त को वारदात के दौरान मार दिए जाने की आशंका बढ़ जाएगी और घटना का ब्योरा देने के लिए उसके जिंदा बचे रहने की संभावना भी कम हो जाएगी। आर्थिक अपराधों के मामलों में भी नीतिगत दृष्टिकोण कुछ अलग नहीं होता है।
सेबी दुनिया के सबसे ताकतवर बाजार नियामकों में से एक है। भारतीय नियमन व्यवस्था का अनूठा स्वरूप होने से यहां के नियामक अद्र्ध-राज्य जैसी हैसियत में होते हैं और उन्हें तमाम कानूनी, कार्यकारी एवं न्यायिक अधिकार मिले होते हैं। इन नियामकों का संचालन एक निदेशक मंडल के पास होता है जिस पर कंपनी शासन जैसे सख्त प्रावधान नहीं लागू होते हैं। नियामकीय अधिकारियों के निर्दिष्ट प्रदर्शन आकलन मानक नहीं होते हैं और न ही उनके दायित्व ही स्पष्ट रूप से निर्धारित होते हैं। इसके अलावा कामकाज के आधार पर अधिकारियों को प्रोत्साहित या हतोत्साहित करने की संस्थागत प्रणाली का भी अभाव है। हालांकि बड़े संस्थागत स्वरूप के लिए उसको भी किनारे रख दिया जाता है।
अपनी शक्ति में वृद्धि की लगातार मांग करते रहना नियामकीय संस्थाओं का एक अभिन्न चरित्र है। यह सच है कि सेबी 1990 के दशक में किसी कंपनी पर अधिकतम 5 लाख रुपये का जुर्माना ही लगा सकता था लेकिन अब वह बात बहुत पुरानी हो चुकी है। अब तो नियमों के उल्लंघन पर दोषी कंपनियों पर अधिकतम 25 करोड़ रुपये या निहित राशि के तिगुने तक का अर्थदंड लगाने का अधिकार सेबी को मिल चुका है। इसके साथ ही उसे 10 साल तक का कारावास देने और बाजार के हित में निर्देश जारी करने की शक्ति भी मिली हुई है। सजा की मात्रा के बारे में विचार को परे भी रख दें तो मामले की जांच करने और किसी नियम के उल्लंघन के आकलन के लिए दी गई शक्ति के बारे में थोड़ा गौर करना वाजिब होगा।
यह अजीब है कि सेबी ने फोन टैप करने का अधिकार मांगा है जबकि उसे कॉल रिकॉर्ड हासिल करने और उसके विश्लेषण का अधिकार कई वर्षों से मिला हुआ है। यह अलग बात है कि सेबी ने इस ताकत का इस्तेमाल अभी तक स्थगित किया हुआ है। जब किसी नियामक को कॉल डेटा रिकॉर्ड हासिल करने का अधिकार मिला हुआ है और संबंधित व्यक्ति उसे सहयोग करने के लिए कानूनन बाध्य है तो सेबी आसानी से पता कर सकता है कि क्या अमुक व्यक्ति ने एक खास अवधि के भीतर दूसरे संदिग्ध को फोन किया। इस तरह वह नियामक पता कर सकता है कि गड़बड़ी की तारीख के आसपास दोनों व्यक्तियों के बीच कितनी बार बातचीत हुई। किसी अपराध को साबित करने में इस तरह की जानकारी एक सशक्त परिस्थितिजन्य साक्ष्य हो सकती है। बहरहाल सेबी संदिग्ध भेदिया कारोबार के मामलों में मुश्किल से ही कॉल रिकॉर्ड के विश्लेषण को आधार बनाता है। सेबी तो भेदिया कारोबार में लिप्त संदिग्धों के बीच दूर का संबंध भी स्थापित करने की कोशिश नहीं करता है। हालांकि किसी अपराध को साबित करने के लिए अधिक प्रयास करने में यह जोखिम भी होता है कि कहीं उस कृत्य के वाकई में अपराध होने पर भी संशय न पैदा हो जाए। बचाव पक्ष के वकीलों की तरह नियामकों में भी अपनी बात को सही ठहराने वाले तथ्य तलाशने की प्रवृत्ति होती है।
सेबी ने पहले से ही मिली इस शक्ति का इस्तेमाल किए बगैर फोन पर होने वाली बातचीत को टैप करने का अधिकार मांगकर नियामकीय प्रवर्तन को अधिक गहरा करने की कोशिश की है। दिलचस्प है कि भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग ने कॉल रिकॉर्ड का इस्तेमाल कहीं बेहतर तरीके से किया है। आयोग ने किसी निविदा के लिए बोली लगाने के दौरान दो प्रतिस्पद्र्धियों के संपर्क में होने को स्थापित करने के लिए कॉल रिकॉर्ड का इस्तेमाल किया है ताकि निविदा की गड़बड़ी को साबित किया जा सके। इसका इस्तेमाल प्रतिभूति बाजार में किए जाने की अपार संभावनाएं हैं। एक समय था जब सेबी एक ही जगह पर कई लोगों की मौजूदगी स्थापित करने के लिए एक ही मोबाइल टावर से उनके फोन पर मिलने वाले सिग्नल को आधार बनाता था। इस तरह सेबी उन लोगों की मुलाकात एवं मिलजुलकर काम करने को साबित करने का परिस्थितिजन्य साक्ष्य जुटाया करता था। उस रवैये को अदालतों का भी साथ मिला था।
अब समय आ गया है कि नियामकीय संस्थाओं के निदेशक मंडल इसकी समीक्षा करें कि उन्हें पहले से ही मिली शक्ति का पूरी तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। समीक्षा के बाद ही उन्हें और अधिकारों की मांग करनी चाहिए। लगातार अधिकारों की मांग करते रहने में एक जोखिम यह होता है कि उनका दुरुपयोग भी हो सकता है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)