अमेरिका की मौद्रिक नीति भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में एक है। अमेरिका में खुदरा महंगाई 6.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है। यह पिछले 40 वर्षों के उच्चतम स्तर पर है और महंगाई 2 प्रतिशत तक सीमित करने के लक्ष्य से काफी अधिक है। अब इन हालात में अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के समक्ष कठिन चुनौती है। अमेरिका में अल्प अवधि की ब्याज दर और आने वाले समय में फेडरल रिजर्व के कदमों के संदर्भ में तीन संभावित परिस्थितियों पर विचार किया जा सकता है।
वृहद आर्थिक नीति प्राय: हिचकिचाहट भरी होती है और विलंब से उठाई जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि वृहद अर्थव्यवस्था में हालात की समीक्षा वास्तविक समय में कर पाना आसान नहीं होता है। हालांकि इस निष्कर्ष के साथ दो अपवाद भी थे। इनमें एक था 2008 का वैश्विक आर्थिक संकट जब लीमन ब्रदर्स दिवालिया हो गया था। उस समय यह स्पष्ट हो गया था कि वैश्विक अर्थव्यवस्था चरमराने जा रही है। दूसरा अपवाद कोविड-19 महामारी है। फरवरी 2020 तक यह सबकी समझ में आग या था कि इस वैश्विक महामारी की वजह से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होंगी। 2020 में अमेरिका में हालात से निपटने के लिए युद्ध स्तर पर उपाय शुरू हो गए।
अब 2021 के अंत में अमेरिका की वृहद आर्थिक नीति ऊंची महंगाई की समस्या से जूझ रही है। यह स्थिति महंगाई दर सालाना 2 प्रतिशत रखने के फेडरल रिजर्व के लक्ष्य और वर्तमान 6.8 प्रतिशत महंगाई दर के बीच सीधे टकराव का कारण बन रही है। दिसंबर 2021 में दुनिया में एक अत्यधिक आर्थिक अनिश्चितता में फंस गई है। यह स्थिति सितंबर 2008 या फरवरी 2008 से बिल्कुल अलग है जब वृहद स्तर पर आर्थिक नीतिगत निर्णय लेना तुलनात्मक रूप से आसान था। इस संदर्भ में तीन परिदृश्यों पर विचार किया जा सकता है।
पहले परिदृश्य में फेडरल रिजर्व बैंक का वह रुख सही साबित होगा कि आने वाले समय में महंगाई तेजी से कम होगी और इसमें अमेरिकी राजकोषीय मजबूती का भी आंशिक योगदान रहेगा। कोविड महामारी कमजोर पडऩे से आपूर्ति व्यवस्था सामान्य होगी और लोग वस्तुओं की खरीदारी संतुलित कर दोबारा सेवाओं का लाभ उठाने में जुट जाएंगे। वर्ष 2020 में मौद्रिक नीति में मामूली सुधार के साथ भी पूरे वर्ष सालाना आधार पर महंगाई दर धीरे-धीरे कम होती जाएगी। महंगाई से जुड़ी धारणाएं असंतुलित नहीं होगी और कंपनियां और कर्मचारी अपना रुख तय करने के लिए 2 प्रतिशत महंगाई दर को मानदंड बनाएंगे। इस परिस्थिति में अमेरिका में ऊंची महंगाई वैश्विक अर्थव्यवस्था में गति आने तक ही रहेगी और एक बार इसके सुधरने से महंगाई चिंता का विषय नहीं रहेगी।
अमेरिकी केंद्रीय बैंक अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए महंगाई नियंत्रित करने के लिए 2022 और 2023 में मौद्रिक नीति कड़ी करने का संकेत दे चुका है। यह दूसरी परिस्थिति होगी। आधुनिक आर्थिक संस्थानों में एक कहावत अक्सर सुनी जाती है, ‘आप जो कर पाएंगे वही कहें और जो कहा है वह कर के दिखाएं।’
तीसरी परिस्थिति में अमेरिकी केंद्रीय बैंक यह आशावादी दृष्टिकोण रख सकता है कि पहली परिस्थिति ही वास्तविकता होगी। मगर महंगाई दर ऊंचे स्तर पर रही और इसे लेकर लोगों एवं कंपनियों में चिंताएं बढ़ीं तो फेडरल रिजर्व हालात नियंत्रित करने के लिए तेजी से कदम उठाएगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर होगा। वैश्विक अर्थशास्त्र में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इनमें कौन सी परिस्थिति वास्तव में बनेगी? यह अत्यंत अनिश्चितताओं का समय है और कोई नहीं जानता कि क्या होगा।
दूसरी एवं तीसरी परिस्थितियों में फेडरल रिजर्व की कड़ी मौद्रिक नीति से वैश्विक वित्तीय प्रणाली में उथल-पुथल मच जाएगी।
अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे के बाद वहां से बाहर के बाजारों में जोखिम भरी परिसंपत्तियों से पूंजी निकलने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इससे तेजी से उभरते बाजारों की जोखिम भरी परिसंपत्तियों जैसे रियल एस्टेट आदि से निवेशक निकलन शुरू कर देंगे।
अमेरिका के भीतर महंगाई दरों पर पैनी नजर रखने वाले लोगों का कहना है कि फेडरल रिजर्व को दूसरी परिस्थिति से निपटने की तैयारी करनी चाहिए। कुछ दूसरे लोगों का मानना है कि पहला परिदृश्य अंतत: सही साबित होगा। अगर केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाने के संकेत देने के बावजूद रुख नरम रखता है और दूसरे परिदृश्य पर विचार नहीं करता है तो इस बात पर बहस छिड़ जाएगी कि क्या कंपनियां और वहां के लोग 2 प्रतिशत महंगाई दर के अनुरूप अपनी गतिविधियां तय करेंगे या नहीं।
प्राय: ऐसे कई मौके सामने आए हैं जब अमेरिका में मौद्रिक नीति कड़ी होने से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर पड़ा है। अमेरिका में जब दरें शून्य के करीब रहती हैं तो वहां उधार लेना और दुनिया के दूसरे देशों मेंं ऊंचे प्रतिफल देने वाली परिसंपत्तियों में निवेश करना आसान हो जाता है। अमेरिका में जब दरें कम होती हैं तो कई संस्थागत निवेशकों के पास अधिक प्रतिफल की चाह में अमेरिका छोडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है। इसके उलट वहां ब्याज दरें ऊंचे स्तर पर रहने से निवेशकों की कतार लग जाती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूंजी महंगी हो जाती है जिसेस भारतीय शेयरों का वर्तमान शुद्ध मौजूदा मूल्य भी कम हो जाता है। अमेरिकी मौद्रिक नीति कड़ी होने पर कई फर्जी योजनाएं तितर-बितर हो जाती हैं। 2008 से 2013 के बीच भारत में हुए वित्तीय फर्जीवाड़े इसका उदाहरण हैं।
इसके अलावा एक दूसरा आयाम भी है। यह मौद्रिक नीति की स्वायत्तता से संबंधित है। सामान्य परिस्थितियों में तेजी से उभरते बाजारों से पूंजी निकलने से इन देशों की मुद्रा कमजेार हो जानी चाहिए। जब किसी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का केंद्रीय बैंक घरेलू स्तर पर महंगाई लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करता है तो यह बखूबी काम करता है। मगर जब यही केंद्रीय बैंक अपनी मुद्रा में गिरावट थामना चाहता है तो यह दुखदायकसाबित हो जाता है। मुद्रा में गिरावट रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ानी पड़ती है मगर यह स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए प्राय: नुकसानदेह होता है। उदाहरण के लिए 2013 में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने रुपये में गिरावट थामने के लिए नीतितगत दरों में 440 आधार अंक का इजाफा कर दिया था। यह निर्णय उतना लाभकारी नहीं रहा है।
2013 की तुलना में भारत अच्छी स्थिति में है क्योंकि अब एक औपचारिक महंगाई लक्ष्य मौजूद है। यह इस बात की संभावना बढ़ा देता है कि आरबीआई समय-समय पर अल्प अवधि की दरों में बदलाव करता रहेगा ताकि देश की खुदरा महंगाई 4 प्रतिशत के स्तर पर बनी रहे। हालांकि हम अब भी आरंभिक चरण में है। महंगाई लक्ष्य तय करने का सिलसिला भारत में 20 फरवरी, 2015 से शुरू हुआ।
आर्थिक कारक आरबीआई की तरफ काफी तत्परता से देख रहे हैं और यह समझने की कोशिश कर रहे हैं किस हद तक यह अपनी बातों पर खरा उतरेगा। अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपये की विनिमय दर में अनिश्चितता इस समय सालाना आधार पर 5.1 प्रतिशत है। यह स्थिति एक लचीली विनिमय दर से मेल नहीं खाती है।
(लेखक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं)
