भारत में सामाजिक लोकतंत्र है या लोकतांत्रिक समाजवाद? यह शब्दों की बाजीगरी प्रतीत होती है लेकिन दोनों में काफी अंतर है। पहली व्यवस्था लोकतांत्रिक है, यह काफी हद तक विनियमित पूंजीवादी ढांचे में काम करती है। ऐसी व्यवस्था में सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों के वित्त पोषण के लिए बजट अहम है। ये प्रावधान अमीरों की तुलना में गरीबों के अधिक काम आते हैं। मिसाल के तौर पर बुजुर्ग, शासकीय विद्यालय, सरकारी स्वास्थ्य सुविधा और बेरोजगारों के लिए लाभ। लोकतांत्रिक समाजवाद लोकतांत्रिक राजनीति के अधीन सरकारी स्वामित्व या उत्पादन पर सरकारी नियंत्रण रखने की बात पर जोर देता है। इस प्रकार यह कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था से भी अलग होता है जो स्वयं को ‘पीपुल्स रिपब्लिक’ कहते हैं।
फ्रांस दोनों को अपनाता है। वहां राष्ट्रीयकरण की लहर के चलते व्यापक शासकीय क्षेत्र भी है और उदार सामाजिक लाभ भी। वहां यह व्यवस्था कारगर साबित हुई है। भारत इन दो राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्थाओं में उलझा हुआ है। हमारे देश में एक बड़ा सरकारी क्षेत्र है जो करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल करता है। जबकि इस बीच हमने समाज कल्याण व्यवस्था के रूप में व्यय का एक और रास्ता तैयार किया है। उदाहरण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का अधिकार, नकद भुगतान और नि:शुल्क चिकित्सा बीमा। सरकारी विद्यालय और चिकित्सा योजनाएं तो लंबे समय से विद्यमान हैं ही। इस पैकेज का धीरे-धीरे विस्तार भी हुआ है और अब तो यह प्रस्ताव तक सामने आ चुका है कि सरकार को सार्वभौमिक बुनियादी आय मुहैया करानी चाहिए। ऐसा तब है जबकि पश्चिमी यूरोप के सामाजिक लोकतांत्रिक देशों को अपने कल्याण पैकेज अव्यावहारिक नजर आ रहे हैं और वे उन्हें नियंत्रित करने में लगे हैं। राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों के अधीन फ्रांस भी ऐसा ही कर रहा है।
हमारे यहां अभी भी व्यवहार्यता पर बहस नहीं है। यह सही है कि कुछ सरकारी उपक्रम व्यवस्थित ताकत वाले और लाभदायक साबित हुए हैं: भारतीय स्टेट बैंक, इंडियन ऑयल और जीवन बीमा निगम आदि कुछ ऐसे ही उपक्रम हैं, हालांकि इन्हें भी निजी प्रतिस्पर्धा के सामने जूझना पड़ा है। असल समस्या थी इंदिरा गांधी की यह धारणा कि यदि आप किसी बाजार को सही ढंग से नहीं संचालित कर सकते तो उसका अधिग्रहण कर लीजिए। खाद्यान्न की सरकारी खरीद, आयात के लिए अनिवार्य सरकारी कारोबार आदि इसका उदाहरण हैं। उनका यह सोचना भी गलत था कि छोटे से संगठित क्षेत्र के रोजगार बचाना दुर्लभ पूंजी के किफायती इस्तेमाल से अधिक अहम है। इन्हीं वजहों से सैकड़ों टेक्सटाइल, इंजीनियरिंग और अन्य कंपनियों का अधिग्रहण किया गया। ये वे कंपनियां थीं जो स्वामित्व में बदलाव के बावजूद या उसके कारण अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रहींं। एयर इंडिया, दो संकटग्रस्त दूरसंचार कंपनियां और राष्ट्रीयकृत बैंकों में नकदी लगती रही।
चयन बिल्कुल स्पष्ट है: यदि किसी मामूली लेकिन बढ़ते समाज कल्याण पैकेज को व्यवहार्य बनाए रखना है तो सरकारी क्षेत्र को बेहतर प्रदर्शन करना होगा। यदि ऐसा नहीं हो तो सरकार को उन्हें भंग कर देना चाहिए ताकि एक मोर्चे पर तो बचत हो सके। असल परीक्षा वह है जिसे अर्थशास्त्री बजट बाधा कहकर पुकारते हैं। बैंकों या विमानन कंपनियों को आसानी से उबारने की प्रक्रिया रोकी जानी चाहिए। एक समुचित सामाजिक लोकतंत्र को उच्च कर-जीडीपी अनुपात की जरूरत भी होती है। भारत के स्तर की प्रति व्यक्ति आय वाले देश के लिए मुश्किल है। यह किसी स्थिति में समाज कल्याण की बड़ी फंडिंग के अनुरूप नहीं है। जीएसटी और आय कर वंचना इस समस्या के मूल में है। देश में 80 लाख से अधिक लोगों की कर पूर्व आय एक लाख रुपये प्रतिमाह से अधिक है लेकिन इनमें से एक तिहाई ही अपना आय कर चुकाते हैं।
समता की बात करें तो फ्रांस में इसका अहसास कहीं अधिक है। उसने 18वीं सदी में ही कुलीनता को तिलांजलि दे दी थी। ब्रिटेन में 19वीं सदी के आखिर में भी 11,000 से कम परिवार दो तिहाई भूमि पर काबिज थे। भारत में एक फ्रांसीसी ऊर्जा कंपनी के मुख्य कार्याधिकारी ने एक बार कहा था कि यदि फ्रांस में आप ऐसी कार खरीद लें जो दूसरों की कार से जुदा दिखे तो कोई न कोई आप की कार पर एक लंबी खरोंच लगा देगा ताकि आप तक संदेश पहुंचे। भारत जो एक निर्वाचक लोकतंत्र से अधिक व्यवस्था का मान रखने वाला गणराज्य है, वह समाजवाद के पहले वाले ब्रिटेन की दिशा में बढ़ रहा है और शक्तिशाली अरबपति देश में अपना नियंत्रण बढ़ा रहे हैं।
यही वजह है कि बजट की तैयारी के वक्त कुछ बुनियादी चुनौतियां पैदा होती हैं। यदि भारत को सक्रिय सामाजिक लोकतंत्र रहना है तो उसे सरकारी पूंजीवाद पर अमल रोकने और अनुशासित कर प्रणाली तैयार करते हुए कंपनियों की ताकत पर लगाम लगानी होगी।
