अधिकरण (ट्रिब्यूनल) और उसकी प्रासंगिकता को लेकर होने वाली बहस फिर से लौट आई है। कुछ अधिकरणों को बंद करने और उनका अपील न्याय-क्षेत्र उच्च न्यायालयों के सुपुर्द करने वाले एक मसौदा कानून की चर्चा है। बदलाव का यह दौर कहीं अधिक बारीक एवं संश्लिष्ट नीतिगत सुधारों का एक बेहतरीन मौका भी है। नब्बे के दशक से ही अपील अधिकरणों का प्रसार होता रहा है जो असल में नियामकों का ही प्रसार है। इसके पीछे सिद्धांत यह रहा है कि जहां भी बाजार दिखे, वहां पर एक नियामक बना दो। और जहां भी नियामक हो वहां पर एक अपील अधिकरण बनाओ। वैसे नब्बे के दशक में गठित कुछ अधिकरणों ने उल्लेखनीय काम किया है। प्रतिभूति बाजार में गठित प्रतिभूति अपील अधिकरण (एसएटी) और दूरसंचार क्षेत्र में बना दूरसंचार विवाद निपटान अपील अधिकरण (टीडीसैट) कुछ शानदार उदाहरण हैं।
सैट के न्यायाधिकार का विस्तार समय के साथ वित्तीय क्षेत्र में व्यापक क्षेत्र तक हो चुका है। अब यह बीमा एवं पेंशन क्षेत्रों के नियामकों के फैसलों के लिए एक अपील अधिकरण बन चुका है। टीडीसैट सेवा प्रदाताओं के बीच भी खड़े होने वाले विवादों के समाधान का एक कारगर प्लेटफॉर्म है। वैधानिक अधिकार के तौर पर कानून से जुड़े मसलों पर इन अधिकरणों के फैसलों के खिलाफ अपील अमूमन सर्वोच्च न्यायालय में की जाती है।
कुछ साल पहले उठाए गए एक कदम के तहत विभिन्न अपील अधिकरणों को दूसरे अधिकरणों में मिला दिया गया था। मसलन, प्रतिस्पद्र्धा अपील अधिकरण का विलय राष्ट्रीय कंपनी कानून अपील अधिकरण में कर दिया गया था। लेकिन अजीब बात यह है कि जिस अधिकरण का विलय किया गया, उसके सदस्यों को अंतरित अधिकरण में शामिल नहीं किया गया।
अब फिर से चार अधिकरणों को खत्म किया जा रहा है और उनके अपील अधिकारों को उच्च न्यायालयों के सुपुर्द किया जा रहा है। कानून में एक अपील न्यायाधिकार को बनाए रखना और वह भी उच्च न्यायालयों के भीतर अपने आप में एक बढिय़ा कदम है। यह महत्त्वपूर्ण है कि उच्च न्यायालय नियामकों के स्तर से उपजे मुकदमे संभालते हैं। आज किसी भी तरह के नियामकीय मुकदमे को देखे बगैर उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश का समूचा न्यायिक करियर बीत सकता है लेकिन उन्हें ही सर्वोच्च न्यायालय में जाने पर ऐसे मुकदमों का निपटारा करना होता है।
जहां अधिकरणों का न्यायक्षेत्र उच्च न्यायालयों में समाहित हो सकता है लेकिन एक और समानांतर बुनियादी सुधार काफी अहम है। अधिकरण अभी तक अपील निकाय बने रहे हैं। टिप्पणीकार उनकी सक्षमता पर टिप्पणी करते रहते हैं लेकिन वे इन विवादों की शुरुआती सुनवाई करने वाली ‘अदालतों’ यानी नियामकों की खराब क्षमता को नहीं देखते हैं।
हमारे नियामकों का ढांचा ऐसा बना है कि उसमें राज्य की शक्तियों का उदार सम्मिलन होता है-कानून निर्माण (विधायी), प्रशासन (कार्यपालिका) और अद्र्ध-न्यायिक क्रियाकलाप (न्यायपालिका)। नियामक बनाने वाले हरेक कानून ने नियामकों को एक दीवानी अदालत की शक्तियां दी हुई हैं लेकिन दशकों के अनुभव के बावजूद वे अपने आचरण में न्यायिक होने से चूक जाते हैं।
आप किसी पुलिस अधिकारी से एक असरदार मजिस्ट्रेट भी होने की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। न्यायिक क्रियाकलाप कार्यपालिका पर नियंत्रण एवं संतुलन रखने का काम है। अगर उसी संगठन से दोनों ही भूमिकाएं निभाने की अपेक्षा की जाती है तो फिर शक्तियों के पृथक्करण का मूल सिद्धांत ही धराशायी हो जाता है। एक ऐसे खेल की कल्पना करें जिसमें एक ही शख्स खिलाड़ी और अंपायर दोनों है। यह अनुचित होने के साथ बेहद बोझिल भी होगा। अगर अधिकरणों को पहले स्तर की अदालत बना दिया जाता है और उनकी अपील शक्तियों को उच्च न्यायालयों के सुपुर्द किया जाता है तो फिर एक दूरगामी नियामकीय आदर्श पहुंच के भीतर आ जाएगा। ऐसा कदम पहली नजर में अद्र्ध-न्यायिक निर्णय के दूषित तरीके को साफ करेगा। एक ही संगठन अभियोजक, जांचकर्ता और न्यायाधीश बनकर रह जाएंगे। अगर एक नियामक को अधिकरणों में सुनवाई करनी है और एक काबिल जज को जरूरी दखल की गुणवत्ता के बारे में संतुष्ट करना है तो इससे जांच एवं नियामकीय प्रवर्तन की गुणवत्ता तेजी से सुधरेगी। ब्रिटेन में यही मॉडल लागू है जिसमें ‘ऊपरी अधिकरण’ एक सुनवाई अदालत है, न कि एक अपील अदालत।
शक्तियों का वास्तविक पृथक्करण अधिकरणों को सही मायनों में नियंत्रण एवं संतुलन का माध्यम बनाएगा। आज नियंत्रण एवं संतुलन एक अपील की शक्ल में होने से नियामकों की कृपा पर निर्भर करता है और इसकी सफाई में अधिकरणों को अपना समय एवं ऊर्जा लगानी पड़ती है। ऐसी स्थिति में पैसा एवं सामथ्र्य रखने वाले लोग ही अपील कर सकते हैं। इससे न्यायशास्त्र का विकास प्रभावित हो सकता है। अगर एक नियामक को किसी स्वतंत्र न्यायाधीश को प्रथम दृष्टया किसी मामले में संतुष्ट करना हो तो कार्य की गुणवत्ता नाटकीय रूप से बेहतर होगी।
कानून एवं तथ्य से जुड़े सवालों पर अधिकरणों के खिलाफ अपील उच्च न्यायालयों में की जा सकती है। उच्च न्यायालयों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का कोई भी वैधानिक अधिकार देने की जरूरत नहीं है। संवैधानिक कानून से जुड़े मसले के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के किसी भी फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका स्वीकार कर सकता है। पहला नियामकीय हस्तक्षेप किसी कार्यकारी नियामक के हाथों सौंपे जाने के बजाय खुद ही एक न्यायिक निकाय की पहल पर होगा, लिहाजा इसके नतीजे अधिक संतोषजनक होंगे और उसकी अधिक संजीदगी भी होगी।
लेकिन लागू करने के लिहाज से यह सबसे मुश्किल सुधार होगा क्योंकि इसके लिए नियामकों को अपनी जमीन गंवाने के लिए तैयार होना होगा।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
