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देश में अव्वल मगर दुनिया के आगे फिसड्डी: क्यों नहीं उभर पाईं भारत से ग्लोबल कंपनियां?

ट्रंप टैरिफ के बाद भारत में यह बहस भी छिड़ गई है कि देश वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिए क्या कदम उठा सकता है। बता रहे हैं प्रसेनजित दत्ता

Last Updated- September 17, 2025 | 10:43 PM IST
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अमेरिका द्वारा भारत पर लगाए गए शुल्क विश्व व्यापार संगठन के वैश्विक व्यापार सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं। मगर इन शुल्कों के बाद भारत में यह बहस भी छिड़ गई है कि देश वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिए क्या कदम उठा सकता है। औद्योगिक संगठनों, कंपनियों के शीर्ष अधिकारियों और वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों ने भूमि अधिग्रहण, बिजली क्षेत्र, कर, अनुपालन संबंधित प्रक्रियाओं और श्रम कानूनों सहित विभिन्न क्षेत्रों में अगले चरण के सुधार करने का अनुरोध किया है। ये सुधार कारोबार संचालन आसान बनाने के साथ ही भारतीय कंपनियों की प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने की बुनियादी क्षमता भी बढ़ाएंगे।

इस बीच, नीति-निर्माताओं के कुछ अपने विचार हैं। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि भारत का 1.4 अरब लोगों का मजबूत घरेलू बाजार एक सहज एवं आरामदेह क्षेत्र बन गया है और भारतीय उद्योग जगत को मोटा मुनाफा भी दे रहा है इसलिए उन्हें दुनिया में अवसरों की तलाश में निकलने की जरूरत महसूस नहीं होती है। गोयल की टिप्पणी केवल उनकी नाराजगी या तंज बता कर खारिज नहीं की जा सकती। काफी हद तक यह सच है कि बड़े भारतीय विनिर्माण आधारित औद्योगिक घराने निर्यात बढ़ाने के जोरदार प्रयास करने के बजाय कई तरह के उद्योगों में उतरने और घरेलू बाजार में विस्तार में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं।

कई भारतीय ब्रांड की दुनिया में अच्छी खासी पहचान है मगर वे दुनिया की नामी कंपनियों की फेहरिस्त में शुमार नहीं हैं। कुछ मायनों में इसका संबंध 1991 के आर्थिक सुधारों से पूर्व की व्यावसायिक नीतियों से है। तब सरकार सभी व्यावहारिक उद्देश्यों से यह तय करती थी कि कोई कंपनी कितना उत्पादन कर सकती है। प्रतिकूल परिस्थितियों के दौरान सरकार यह भी तय करती थी कि कोई कंपनी किस क्षेत्र में कारोबार करने के लिए उतर सकती है, उसमें कितनी इकाइयां हो सकती हैं। सरकार यह भी तय करने से पीछे नहीं हटती थी कि कंपनियां किस कीमत पर बाजार में अपने उत्पाद बेच सकती हैं।

हालांकि, ऐसे दौर भी आए जब सरकार की तरफ से अधिक हस्तक्षेप नहीं हो रहे थे मगर भारतीय औद्योगिक घरानों को तब तक लाइसेंस का प्रबंधन करने की आदत लग चुकी थी। वे जो भी उत्पादन करते थे वे उपभोक्ताओं के पास अधिक विकल्प नहीं होने के कारण हाथोंहाथ बिक जाते थे। यह बात कुछ हद तक स्पष्ट करती है कि हमारे पास एक या दो क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाली विशाल कंपनियों के बजाय इतने सारे भारतीय कंपनी समूह क्यों हैं। जनरल मोटर्स या फोर्ड ने कार एवं इनसे संबंधित उपकरण बनाकर अपनी एक खास पहचान बनाई। उन्होंने शायद ही कभी किसी दूसरे अलग क्षेत्रों में प्रवेश करने की कोशिश की। निश्चित रूप से वे शुरू में अमेरिका में बड़े औद्योगिक समूह माने जाते थे मगर वे ज्यादातर क्षेत्रों में अधिक देर तक नहीं टिक पाए।

दूसरी ओर भारत में बड़े समूहों का उदय हुआ जिनमें टाटा, बिड़ला, गोदरेज, महिंद्रा एवं अन्य शामिल थे। जो समूह शुरू में अपना कारोबार एवं आकार बढ़ाने के लिए एक क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे, मगर उन्हें भी दूसरे भिन्न क्षेत्रों में विस्तार करने में सहजता महसूस हुई। ऐसा लगता है कि अभी भी स्थिति उनके लिए ऐसी ही है। यह बात रिलायंस और अदाणी समूह की विस्तार योजनाओं में आराम से दिख जाती है। हालांकि, अदाणी समूह कम से कम बंदरगाह क्षेत्र में एक बड़ी वैश्विक कंपनी बनने की जरूर कोशिश कर रहा है।

वर्ष 1991 के बाद स्थितियां बेहतर जरूर हुईं मगर कई मुश्किलें बनी रहीं। सख्त नियमों और कम लागत पर पूंजी तक पहुंच आसान नहीं होने से केवल कुछ चुनिंदा उद्योग ही आगे बढ़ पाए क्योंकि वे तत्कालीन परिस्थितियों में आगे बढ़ना जानते थे जबकि कई अन्य उद्यम प्रतिस्पर्द्धा में टिक नहीं पाने के कारण छोटे और गैर प्रतिस्पर्धी बने रहे। कुछ क्षेत्रों ने तमाम मुश्किलों से मुकाबला कर आगे बढ़ने में सफलता हासिल की। वाहन सहायक उपकरण और जेनेरिक फार्मा इसके उदाहरण हैं लेकिन इनमें भी वैश्विक स्तर पर दमखम रखने वाली कंपनियां उभर कर नहीं आई हैं। पूर्व में और अब भी कुछ सम्मानजनक प्रयास हुए हैं।

उदाहरण के लिए रॉयल एनफील्ड क्लासिक मोटरसाइकलों में एक वैश्विक ब्रांड बनाने की कोशिश कर रही है। कुछ दोष बड़े भारतीय उद्योग समूहों पर लगाए जा सकते हैं जिन्होंने अपने आकार और संसाधनों के बावजूद वैश्विक स्तर पर धाक जमाने का लक्ष्य साधने के बजाय घरेलू प्रणाली का प्रबंधन करना पसंद किया। मगर सरकार को भी इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि उसकी नीतियां कहां गलत साबित हो गईं।

श्रम, अनुपालन, भूमि अधिग्रहण और अन्य समस्याओं पर काफी कुछ लिखा जाता है। ये सभी वास्तविक हैं मगर अक्सर जिस बात को दबा दिया जाता है वह यह है कि किसी भी सरकार ने घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्द्धा और गुणवत्ता बढ़ाने या उपभोक्ताओं के लिए लागत कम करने का कोई प्रयास नहीं किया। जिन देशों को हम निर्यात करते हैं वहां बेची जाने वाले उत्पादों की गुणवत्ता अक्सर अधिक होती है जबकि भारतीय उपभोक्ता घर पर उसी उत्पाद के लिए अधिक भुगतान करते हैं और गुणवत्ता भी उतनी अधिक नहीं होती है। इस्पात से लेकर सीमेंट, वाहन से लेकर पैकेट बंद खाद्य पदार्थ तक सभी के मामले में भारतीय उपभोक्ताओं का ख्याल नहीं रखा जाता है। यह स्थिति एक विकृत प्रोत्साहन को बढ़ावा देती है। भारत में काम करने वाली वैश्विक कंपनियां भी अक्सर विदेश में और घरेलू बाजार में जो सामान बेचती हैं उनकी गुणवत्ता में फर्क रखती हैं।

1980 के दशक में जब चीन अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार कर रहा था तो उसे इस समस्या का अनुभव क्यों नहीं हुआ? इसका एक कारण यह है कि चीन ने जबरदस्त घरेलू प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दिया और गुणवत्ता का स्तर भी बढ़ाता रहा। इससे चीन में उन कंपनियों को बढ़ावा मिला जो वाकई मजबूत थीं। उत्पादन लागत कम रखने पर ध्यान केंद्रित करने के उपायों के साथ वैश्विक स्तर की गुणवत्ता निखर कर सामने आई। सरकार ने घरेलू कंपनियों के हितों की रक्षा और प्रोत्साहन के लिए कुछ नीतियों के साथ उनकी मदद की लेकिन उन्हें वैश्विक और घरेलू स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिए भी विवश किया।

शायद भारतीय नीति निर्माताओं को इस मुद्दे पर भी बहस करनी चाहिए। क्या एक ऐसा माहौल, जो उपभोक्ताओं (चाहे वे घरेलू हों या वैश्विक) पर ध्यान केंद्रित करते हुए कम लागत पर जोर देता है और उच्च स्तर की घरेलू प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है, वह कुछ राष्ट्रीय नामी कंपनियों की तुलना में बेहतर कारगर होगा? ये नामी कंपनियां कई क्षेत्रों पर हावी हैं लेकिन वे शायद ही अपने क्षेत्रों में वैश्विक पहचान हासिल कर पाई हैं।


(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजेक व्यू के संस्थापक हैं)

First Published - September 17, 2025 | 10:39 PM IST

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