कोविड-19 संक्रमण के मामलों में कमी के साथ ही आर्थिक गतिविधियों में अब सुधार देखा जा रहा है। हाल में नोमूरा इंडिया बिजनेस रीजम्पशन इंडेक्स पहली बार कोविड महामारी के पूर्व का स्तर पार कर गया। इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर रहा है कि महामारी का खतरा पूरी तरह टला नहीं है, खासकर टीकाकरण की सुस्त रफ्तार चिंता बढ़ाने वाली है मगर इस संकट से निपटने के लिए किए गए राहत उपाय अब धीरे-धीरे वापस लिए जाने का समय आ गया है। हाल में मौद्रिक नीति समीक्षा में मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने नीतिगत दरें यथावत रखीं और आवश्यकता महसूस होने तक उदारवादी रवैया जारी रखने की घोषणा की थी।
हालांकि एमपीसी के सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद अब उभरने लगे हैं। उदाहरण के लिए समिति के बाहरी सदस्य जयंत वर्मा ने कहा कि मौद्रिक नीति लक्षित राहत उपाय देने में अधिक प्रभावी नहीं है और मौजूदा रुख से परिसंपत्ति कीमतों में इजाफा हो रहा है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर ने भी एमपीसी के लिए चिंता बढ़ा दी है।
चालू वर्ष के लिए अनुमानित महंगाई दर 5.7 प्रतिशत से थोड़ी भी ऊपर गई तो लगातार दूसरी तिमाही में औसत महंगाई दर 6 प्रतिशत से अधिक रह सकती है। जैसा कि प्रोफेसर वर्मा ने कहा कि यह मान लेना कि एमपीसी फिलहाल आर्थिक वृद्धि की गति बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रही है, महंगाई का लक्ष्य साधने की प्राथमिकता पीछे छूट सकती है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का मानना है कि ऊंची महंगाई दर अस्थायी है और आपूर्ति संबंधी बाधाओं से इसमें तेजी आई है। यह सच है कि मांग अब भी कमजोर है लेकिन महंगाई लगातार ऊंचे स्तर पर रही तो इसका अलग नुकसान हो सकता है।
भारत एक मात्र ऐसा देश नहीं है जिसे अपने नीतिगत रुख की समीक्षा की जरूरत है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की बैठक से निकली बातों से लग रहा है कि वह परिसंपत्ति खरीदारी की चाल अब सुस्त करना चाहता है। मगर फेडरल रिजर्व के चेयरमैन जेरोम पॉवेल ने भी यही कहा है कि महंगाई दर में तेजी अस्थायी है।
अतीत और वर्तमान: दुनिया के बड़े केंद्रीय बैंकों के प्रमुखों के रुख को इतिहास का भी समर्थन हासिल है। कोविड-19 महामारी की तुलना युद्ध के दौरान उत्पन्न होने वाली त्रासदी से की जा रही है। गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्रियों ने हाल में अपने एक अध्ययन में सन 1300 से लेकर अब तक के आंकड़ों पर विचार करने के बाद यह बताने का प्रयास किया कि महंगाई और बॉन्ड प्रतिफल ने किस तरह 12 सबसे भयानक युद्ध और महामारी के बाद प्रतिक्रिया दिखाई है।
इस अध्ययन में फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड, इटली, स्पेन, ब्रिटेन, अमेरिका और जापान जैसे देशों का अध्ययन किया गया। आशंका के अनुरूप युद्ध से महंगाई और बॉन्ड प्रतिफल में तेजी दर्ज हुई। हालांकि महामारी के दौरान महंगाई दर कमजोर रही। महामारी खत्म होने के बाद 9 वर्षों तक माध्य महंगाई दर शून्य के इर्द-गिर्द रही।
नीदरलैंड्स के केंद्रीय बैंकों के अर्थशास्त्रियों ने भी यूरोपीय देशों का अध्ययन किया जिसका नतीजा भी ऐसा ही रहा। करीब एक दशक तक रुझान दर (एक लंबी अवधि के दौरान दर्ज औसत दर) कम होकर शुरुआती स्तर के नीचे रही। महामारी से पूर्व के स्तर पर आने में रुझान महंगाई दर को करीब दो दशक लग गए। इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि महामारी से आर्थिक गतिविधि और कीमतों पर काफी असर रहा है।
हालांकि मध्यम अवधि में तथ्य इस बार कई कारणों से अलग रह सकते हैं। वैश्विक स्तर पर कोविड महामारी से निपटने के लिए दुनिया के देशों ने अभूतपूर्व कदम उठाए हैं। एक अनुमान के अनुसार दुनिया के केंद्रीय बैंक पिछले 18 महीनों से प्रत्येक घंटे वित्तीय तंत्र में 80 करोड़ डॉलर से अधिक रकम झोंक रहे हैं और निकट भविष्य में भी यह सिलसिला जारी रह सकता है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस बार कम से कम समय में टीके उपलब्ध हुए हैं जिससे हालात तेजी से सामान्य होने में मदद मिलेगी। तीसरी बात यह है कि तकनीक की मदद से महामारी एवं इसके प्रभाव को अधिक बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली है और कुछ क्षेत्रों को छोड़कर गतिविधियां सामान्य होने में मदद मिली है। तकनीक की मदद से लोग कार्यालयों से दूर रह कर भी काम करते रहे जिससे आर्थिक गतिविधियों और आय में गिरावट थामना संभव हो पाया है।
अगला कदम: महामारी इतनी जल्दी समाप्त होने वाली नहीं है लेकिन इसका आर्थिक गतिविधियों पर प्रभाव धीरे-धीरे खत्म होता जाएगा। उसी अनुसार आर्थिक नीति समायोजित करनी होगी। विभिन्न अर्थव्यवस्था में इस बदलाव की गति अलग-अलग होगी इसलिए इसके अलग-अलग नतीजे भी दिखेंगे। हालांकि आरबीआई के सामने अलग चुनौतियां होंगी।
उम्मीदों से उलट औसतन महंगाई दर कोविड महामारी फैलने के बाद से 4 प्रतिशत से कहीं ऊपर रही है। कमजोर मांग के बीच लंबे समय तक कीमतें ऊंची रहने से केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता पर दाग लग सकता है। वर्ष 2020 में प्रकाशित विश्व बैंक की एक रिपोर्ट (इन्फ्लेशन टारगेटिंग इन इंडिया: एन इंटरिम असेसमेंट) में अर्थशास्त्री बैरी आइशनग्रीन एवं अन्य ने लिखा, ‘….प्रतिकूल हालात अस्थायी रहने के बावजूद महंगाई लक्ष्य के ऊपर रहने से महंगाई नियंत्रण का लक्ष्य प्रभावित हो सकता है। लोग मौजूदा महंगाई दर को इस बात के संकेत के रूप में देखेंगे कि केंद्रीय बैंक महंगाई नियंत्रित करने में असफल साबित हो रहा है। अगर मौद्रिक नीति में विश्वसनीयता का अभाव होगा तो महामारी से निपटने के लिए किए गए मौद्रिक उपायों की एक बड़ी कीमत चुकानी होगी।’
यह कोई नहीं कह रहा है कि एमपीसी को नीतिगत दरें बढ़ाने का सिलसिला शुरू कर देना चाहिए मगर एमपीसी से इतर आरबीआई द्वारा किए गए राहत उपायों समीक्षा जरूर की जा सकती है। आरबीआई ने नीतिगत उपायों का दायरा बढ़ाने के लिए मार्च 2020 में रिवर्स रीपो रेट असाधारण रूप से बढ़ाया था और वित्तीय तंत्र में रकम का प्रवाह बढ़ा दिया थ। इससे बाजार दरें और कम हो गईं। प्रोफेसर वर्मा ने पॉलिसी कॉरिडोर (रीपो रेट और रिवर्स रीपो रेट के बीच अंतर) सामान्य बनाने के पक्ष में तर्क दिया है, यद्यपि एमपीसी रिवर्स रीपो रेट में बदलाव नहीं कर सकती है। रिपोर्ट ऑन करेंसी ऐंड फाइनैंस, 2020-21 में कहा गया है कि रिवर्स रीपो रेट और मार्जिनल स्टैंडिंग फैसिलिटी रेट (सीमांत स्थायी सुविधा दर) में बदलाव से जुड़े निर्णय एवं इनकी घोषणा एमपीसी के दायरे से हटा दिए जाएं।
इसके उलट पॉलिसी कॉरिडोर या नीतिगत दरों से जुड़े सभी निर्णय एमपीसी के अधिकार क्षेत्र में लाए जाने चाहिए और आरबीआई को वेटेज एवरेज कॉल रेट (नकदी प्रबंधन से जुड़ा उपाय) नीतिगत दायरे में रखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मगर इसके लिए कानून में संशोधन की जरूरत होगी। आरबीआई को इससे केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता बढ़ाने में मदद मिलेगी। आरबीआई अगर पॉलिसी कॉरिडोर में बदलाव करता है तो इससे एमपीसी के अधिकारों का अतिक्रमण होगा। विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि महंगाई को लक्ष्य कर तैयार किया गया ढांचा महंगाई बेहतर ढंग से नियंत्रण करने में कारगर रहा है और लोगों की अवधारणा के उलट नीतिगत दरों में कमी आई है। भारतीय नीति निर्धारक संस्थानों को मेहनत से अर्जित इन सफलताओं को सहेज कर रखना चाहिए।