देश का बैंकिंग क्षेत्र अपनी बदकिस्मती को दूर कर पाने में नाकाम नजर आ रहा है। वर्षों तक प्रदर्शन में सुधार से जो बेहतरी हासिल होती है वह किसी न किसी बाहरी झटके से नष्ट होती नजर आती है। सुधार के बाद के दौर में यानी सन 1996-97 में इस क्षेत्र का फंसा हुआ कर्ज 16 फीसदी था। आज जब विश्लेषक बैंकिंग क्षेत्र को लेकर भविष्यसूचक ढंग से बात करते हैं तो इस आंकड़े को ध्यान में रखना भी आवश्यक है। तेज आर्थिक वृद्धि और सरकारी बैंकों में अपनाए गए सुधारों ने इस क्षेत्र की हालत सुधारने में मदद की। एक दशक बाद सन 2007 में फंसे हुए कर्ज का स्तर घटकर 2.6 फीसदी रह गया। इसके बाद वैश्विक वित्तीय संकट का आगमन हुआ। मानो इतना ही काफी न था कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को लेकर अदालतों से नकारात्मक निर्णय आने शुरू हो गए और परिसंपत्ति गुणवत्ता की समीक्षा होने लगी। सन 2017-18 तक फंसे हुए कर्ज का स्तर दोबारा बढ़कर 11 फीसदी पहुंच गया। यह अपने आप में बैंकिंग क्षेत्र के लिए संकट का संकेत था।
फंसे कर्ज की पहचान और उसके निस्तारण को लेकर किए गए प्रतिबद्ध प्रयासों की बदौलत सन 2019-20 में इसका स्तर एक बार पुन: घटकर 8.5 फीसदी रह गया। महामारी ने अर्थव्यवस्था को नए सिरे से झटका दिया है और भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (जुलाई 2020) के मुताबिक यह एक बार फिर बढ़कर 12.5 फीसदी से 14.7 फीसदी पहुंच सकता है।
ऋण पुनर्गठन का ताजा प्रयास इन आशंकाओं को ही दूर करने का प्रयास है। इसके तहत फंसे हुए कर्ज से निपटने के व्यापक प्रयासों में बदलाव देखने को मिला। महामारी के आगमन के पहले पूरा ध्यान फंसे हुए कर्ज की पहचान और उसका ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के जरिये निस्तारण करने तथा बैंकों का आवश्यकतानुसार पुनर्पूंजीकरण करने पर केंद्रित था।
शक्तिकांत दास के आरबीआई गवर्नर बनने के बाद आरबीआई के रुख में बदलाव आने लगा। जनवरी 2019 में आरबीआई ने सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) के लिए एकबारगी पुनर्गठन योजना की शुरुआत की जो 31 मार्च, 2020 तक वैध थी। बाद में इस योजना को 31 दिसंबर, 2020 तक बढ़ा दिया गया।
महामारी के बाद आईबीसी की प्रक्रिया को एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया गया। बैंकों के नेतृत्व में पुनर्गठन की प्रक्रिया की वापसी हो चुकी है। ऐसा गत अगस्त में रिजर्व बैंक की नई योजना के तहत हुआ जो 7 जून, 2019 के पुनर्गठन दिशानिर्देशों पर आधारित है। ये दिशानिर्देश 24 फरवरी, 2018 के उस परिपत्र का संशोधित रूप हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था।
अगस्त में पेश की गई योजना में कई शर्तें हैं। यह योजना केवल उन फर्म पर लागू होती है जो महामारी से प्रभावित हैं। योजना उन कंपनियों पर लागू नहीं होगी जो 31 मार्च, 2020 की तिथि से 30 दिन से ज्यादा पहले डिफॉल्ट हुई होंगी। 100 करोड़ रुपये मूल्य से अधिक के सभी प्रस्तावों को एक स्वतंत्र एजेंसी की पुष्टि की आवश्यकता होगी जबकि 1,500 करोड़ रुपये से अधिक के प्रस्ताव आरबीआई द्वारा गठित केवी कामत समिति की जांच से गुजरना होगा।
निस्तारण ढांचे के अधीन ऋण की अवधि को दो वर्ष से अधिक आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। बैंकों को निस्तारण अर्हता तय करने के लिए 31 दिसंबर, 2020 तक का समय दिया गया है। व्यक्तिगत और एमएसएमई ऋण 31 मार्च, 2021 तक निस्तारित करने होंगे और कॉर्पोरेट ऋण 30 जून, 2021 तक। कामत समिति ने यह स्पष्ट किया है कि निस्तारण योजनाएं 26 विशिष्ट क्षेत्रों से संबंधित होनी चाहिए।
हालांकि इस पर शंका करने वालों का कहना है कि तमाम सतर्कताओं के बावजूद ताजा निस्तारण योजना की परिणति भी पहले जैसी होगी। उनमें मौजूदा हालात की दो अहम हकीकतों पर ध्यान नहीं दिया गया है। पहला, बैंकों का प्रॉविजन कवरेज अनुपात (पीसीआर) हाल के वर्षों में बढ़ा और वह 2018 के 48 फीसदी से बढ़कर 2020 में 65 फीसदी हो गया। कुछ सरकारी बैंकों में पीसीआर काफी अधिक है। स्टेट बैंक में यह 82 फीसदी और बैंक ऑफ बड़ौदा में 81 फीसदी है।
दूसरी बात, ऋण पुनर्गठन के पिछले अनुभव के बाद बाजार भी अधिक पुनर्गठित ऋण वाले बैंकों को लेकर मद्धम नजरिया रखेगा। जो बैंक अपने मूल्यांकन पर असर नहीं चाहते वे पुनर्गठित ऋण को अपने खातों के 5 फीसदी के भीतर रखना चाहेंगे।
पुनर्गठन के लिए यह बात भी मायने रखती है कि कोई अर्थव्यवस्था उसके बाद कितनी जल्दी दुरुस्त होती है। वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी में 23.9 फीसदी की गिरावट के बाद अधिकांश विश्लेषक मान रहे हैं कि पूरे वर्ष की जीडीपी दो अंक में नकारात्मक रहेगी।
आर्थिक मामलों के मंत्रालय ने अगस्त में आर्थिक हालात पर जो रिपोर्ट दी वह बताती है कि सुधार पहले लगाए अनुमान से बेहतर हो सकता है। एक हालिया प्रपत्र में सी रंगराजन और डीके श्रीवास्तव ने सुझाव दिया है कि वर्ष 2020-21 में अर्थव्यवस्था में मामूली सुधार संभव है। हालांकि हमें अभी इस बारे में कोई अंदाजा नहीं है कि जीडीपी महामारी के पहले के स्तर से ऊपर कब पहुंचेगी 2021-22 में या 2022-23 में।
पुनर्गठन की आवश्यकता का आकलन कैसे किया जाएगा? एक तरीका तो यह है कि निस्तारण योजना केवल उन कर्जदारों के लिए चलाई जाए जिनके लिए डिफॉल्ट आसन्न हो। दूसरा तरीका है कर्जदारों के साथ समझौता करना जिसके तहत यदि सुधार योजना में प्रस्तुत अनुमान से मजबूत साबित हुआ तो पहले पुनर्भुगतान किया जाएगा।
ऋण स्थगन अवधि के दौरान ऋण पर ब्याज वसूली का मसला सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है। यह भी ऋण पुनर्गठन को प्रभावित करेगा। कर्जदार चाहते हैं कि इस अवधि का ब्याज माफ किया जाए न कि उसे बकाया मूलधन में जोड़ा जाए। सुनवाई के दौरान भारतीय बैंक महासंघ ने पेशकश की थी कि 31 अगस्त को ऋण स्थगन समाप्त होने पहले यदि किसी खाते को एनपीए घोषित किया जाता है तो उसे दो महीने का स्थगन मिलेगा। यदि इसे स्वीकार किया जाता है तो किसी खाते को एनपीए घोषित करने की अवधि न्यायालय के अधीन 90 दिन से बढ़कर 150 दिन हो जाएगी।
नतीजा चाहे जो भी हो यहां राजनीतिक अर्थशास्त्र के लिए एक अहम सबक है। आरबीआई ने हाल के वर्षों में नियामकीय मानकों में शिथिलता की मुखालफत की है। इसमें फंसे कर्ज के मानक शामिल हैं। शायद अब वक्त आ गया है कि इस बात को पहचाना जाए कि नियामकीय मामलों में बड़ी व्यवस्था की बात एक तरह से या दूसरी तरह से सुननी होगी।
(लेखक आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर हैं)