घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 में क्या बदल गया और क्या इससे अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो पाए। इस बारे में विस्तार से बता
रहे हैं एस चंद्रशेखर
वर्ष 2024 के लोक सभा चुनाव परिणामों को लेकर एग्जिट पोल के अनुमान गलत साबित हुए। जब वास्तविक चुनाव नतीजे घोषित हो रहे थे तब टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में बैठे जनमत सर्वेक्षण कर्ता कितना असहज महसूस कर रहे होंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। चुनाव जनमत सर्वेक्षण कर्ताओं के अनुमान चारो खाने चित होने के पीछे जो कारण गिनाए गए उनमें सर्वेक्षण के दौरान मतदाताओं का व्यवहार भी एक था।
सर्वेक्षण में लोगों का व्यवहार भांपना अक्सर एक चुनौती रही है। इतना ही नहीं, जिन सीटों पर कांटे की टक्कर थी वहां विजेता का अनुमान लगाने में आ रही मुश्किलों का भी जिक्र किया गया। मैं इन जनमत सर्वेक्षणकर्ताओं की इस बात के लिए सराहना करता हूं कि उन्होंने मुंह नहीं छुपाया और टेलीविजन चैनलों पर मौजूद रहकर असहज सवालों के जवाब दिए।
सांख्यिकी प्रणाली के लिए सबक
इस पूरे मामले में भारतीय सांख्यिकी प्रणाली के लिए भी सबक छुपा है। सांख्यिकी प्रणाली की समय-समय पर काफी फजीहत हुई है।
सांख्यिकी प्रणाली को संवाद में आगे और केंद्रीय भूमिका में रहना चाहिए।
इसे अलग-अलग समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों से सीधा संवाद करना चाहिए। इसे समाचार माध्यम को पर्याप्त एवं उपयुक्त जानकारी देनी चाहिए। इसके साथ ही, मामलों की आधी-अधूरी समझ रखने वाले आलोचकों को खबरों पर हावी होने से भी रोकना चाहिए।
आंकड़ों पर होनी चाहिए बात
इस पर बहस शुरू करने के लिए इससे बेहतर समय कुछ और नहीं हो सकता है। यह समय इसलिए उपयुक्त है क्योंकि घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) 2022-23 के आंकड़े कुछ दिनों पहले ही सार्वजनिक हुए हैं। उम्मीद की जा रही है कि एचसीईएस 2023-24 के आंकड़े भी जून 2024 तक जुटा लिए जाएंगे और बिना देरी के जारी होंगे।
दो बिंदुओं पर ध्यान खींचना जरूरी
पहली बात, यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि सर्वेक्षण करना अपने आप में चुनौतीपूर्ण होता है। दुनियाभर में सर्वेक्षण में लोग अब जवाब देने से कतराने लगे हैं। मई 2018 में द इकनॉमिस्ट ने ‘प्लंजिंग रेस्पांस रेट्स टू हाउसहोल्ड सर्वेज वरी पॉलिसी मेकर्स’ (अर्थात सर्वेक्षण में जवाब देने की दर कम होने से बढ़ी नीति निर्धारकों की चिंता) शीर्षक से एक खबर प्रकाशित की थी।
इसी तरह जर्नल ऑफ इकनॉमिक पर्सपेक्टिव्स 2015 में ‘हाउसहोल्ड सर्वेज इन क्राइसिस’ शीर्षक से एक आलेख प्रकाशित किया गया था।दोनों ही आलेखों में विकसित देशों में सर्वेक्षणों पर चर्चा केंद्रित की गई और इनके शीर्षक निहित भाव स्पष्ट कर रहे हैं।
दूसरा बिंदु यह है कि लोग सवालों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त का जवाब देने से कतराते हैं और अगर जवाब देने के लिए राजी भी होते हैं तो उनकी गुणवत्ता खराब होती है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MOSPI) की आंतरिक पत्रिका ‘सर्वेक्षण’ में प्रकाशित एक आलेख में जवाब देने वाले लोगों की उकताहट एवं आंकड़ों की गुणवत्ता का मुद्दा उठा था।
जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकनॉमिक्स में हाल में प्रकाशित एक आलेख में दाहयोन जियोंग और सह-लेखकों ने पाया कि उपभोग व्यय के लंबे सर्वेक्षण में आइटम नॉनरेस्पांस (सर्वेक्षण में भाग लेने वाले किसी व्यक्ति द्वारा किसी सवाल का जवाब नहीं देना) 10 से 64 फीसदी कम हो जाता है। हालांकि उन्होंने यह भी पाया कि सर्वेक्षण एक घंटा अधिक लंबा खिंचने से खाद्य व्यय 25 फीसदी तक कम हो जाता है’।
क्या बदला एचसीईएस 2022-23 में और क्यों?
एचसीईएस 2022-23 की योजना बनाते समय इन दो चुनौतियों का समाधान कैसे किया गया, यह भी संवेदनशीलता का हिस्सा होना चाहिए। इससे यह वाजिब ठहराने का आधार भी मिलेगा कि एचसीईएस 2011-12 में इस्तेमाल हुई विधि से मिलता-जुलता सर्वेक्षण क्यों नहीं कराया गया। सबसे पहले, राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (NSC) ने सुझाव दिया था कि घरेलू सर्वेक्षण 45 मिनट से अधिक नहीं चलना चाहिए।
सवालों की सूची कम करना विकल्प नहीं था क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक तैयार करने के लिए विस्तृत जानकारियों की आवश्यकता होती है। लिहाजा, यह निर्णय लिया गया कि सर्वेक्षण के लिए क्यों न प्रत्येक घर के तीन फेरे लगाए जाएं।
एचसीईएस 2022-23 कार्यक्रम चार हिस्सों- एचसीक्यू (घरेलू व्यवहार), एफडीक्यू (खाद्य वस्तुएं), सीएसक्यू (खाने लायक वस्तु एवं सेवाएं) और डीजीक्यू (टिकाऊ उपभोक्ता वस्तु)- में विभाजित कर दिया गया। किसी परिवार में एक तिमाही के हरेक महीने एक बार जाना हुआ। पहले महीने एचसीक्यू और अन्य तीन हिस्सों में एक के आधार पर जानकारियां जुटाई गईं।
अगले दो महीनों में इसी तरह दो बार जानकारियां जुटाई गईं। पूर्वग्रह दूर रखने के लिए सभी संभावित छह क्रम एफडीक्यू, सीएसक्यू और डीजीक्यू विभिन्न परिवारों के बीच बेतरतीब ढंग से बांट दिए गए।
क्या थीं चिंता?
इस दृष्टिकोण को लेकर कुछ चिंताएं थीं। पहली चिंता तो यह थी कि जिस परिवार या घर में पहली बार सर्वेक्षण हुआ था क्या वह दूसरी और तीसरी बार भी सवालों का जवाब देगा। दूसरी बात यह थी कि तीसरी बार जाने पर भी क्या वही व्यक्ति मौजूद रहेगा जिससे पहले और दूसरे चरण में सवालों के जवाब दिए थे।
तीसरी बात, जिस क्रम में एफडीक्यू, सीएसक्यू और डीजीक्यू इस्तेमाल किए गए थे उस आधार पर परिवारों में कोई अंतर दिखा था। चौथी बात, क्या अलग-अलग समय पर घरों में सर्वेक्षण के लिए जाने पर आइटम नॉनरेस्पांस रेट घटेगा?
क्या बदलाव उम्मीदों के अनुसार रहे?
मुझे पूरा विश्वास है कि सांख्यिकी से जुड़ी कवायद इस विषयों पर जरूर हुई होगी। इन पहलुओं पर मंत्रालय को ध्यान देना चाहिए था और जो नतीजे निकलेंगे वे तत्काल सार्वजनिक पटल पर जारी किए जा सकते हैं। एक दूसरे बिंदु को भी स्पष्ट किए जाने की आवश्यकता है। वह यह है कि संवेदीकरण प्रक्रिया हो या सरकारी कार्यक्रम, सर्वेक्षण के अनुमान प्रशासनिक अनुमानों के साथ मेल नहीं खाएंगे।
संपन्न समूहों एवं परिवारों से नमूने
एक महत्त्वपूर्ण बदलाव के रूप में ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र के संपन्न परिवारों को शामिल करने का प्रयास किया गया। इनमें नमूनों के तौर पर ऐसे लोगों का चयन हुआ जिनके पास जमीन और कार या एसयूवी थी। शहर से 5 किलोमीटर के दायरे में आने वाले घरों का भी चयन किया गया। क्या इससे कोई फायदा हुआ?
शीर्ष 5 फीसदी और सबसे पिछड़े 5 फीसदी परिवारों का औसत उपभोग का अनुपात ग्रामीण क्षेत्र में 7.6 और शहरी क्षेत्र में 10.4 रहा है। यह अनुपात ठीक लग रहा है। मगर शीर्ष 5 फीसदी शहरी और 5 फीसदी ग्रामीण परिवारों का औसत मात्र 2 है, जो कमजोर प्रतीत हो रहा है। परिवारों के उपभोग प्रारूपों की तुलना करने के लिए शहरी क्षेत्रों में व्यक्तिगत जानकारियों का इस्तेमाल करने से स्थिति और स्पष्ट हो सकती है।
सर्वेक्षण और राष्ट्रीय लेखा खाता अनुमानों में अंतर सामान्य बात
आगे जो एक प्रमुख समस्या है उसकी पहचान किए जाने की आवश्यकता है। एक सर्वेक्षण से प्राप्त औसत उपभोग के अनुमान राष्ट्रीय लेखा से मेल खाते हैं या नहीं यह मामला केवल भारत से ही जुड़ा नहीं है। रिव्यू ऑफ इनकम ऐंड वेल्थ पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख में एस्पन बीयर प्राइड्ज और सह लेखकों ने 166 देशों से 2,095 परिवारों से सर्वेक्षण माध्य एकत्र किया।
उन्होंने इनका मिलान राष्ट्रीय खातों के योग के माध्य से कराया। ऐसा करने के बाद उन्होंने पाया कि इन देशों में परिवारों के सर्वेक्षणों का औसत प्रति उपभोग राष्ट्रीय खातों की तुलना में 20 फीसदी कम है।
सकल घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति 50 फीसदी अधिक था। भारतीय संदर्भ में 2011-12 और 2022-23 में तुलना यह संकेत देता है कि उपभोग से जुड़े सर्वेक्षण के अनुमान और राष्ट्रीय खातों के अनुमान में अंतर कम हुआ है, मगर यह पर्याप्त नहीं है।
सर्वेक्षण प्रारूप में किए गए बदलावों का उठाए गए कदमों पर एनएससी की रिपोर्ट और एमओएसपीआई की सालाना रिपोर्ट में जिक्र नहीं मिलता है। कोई भी बात गोपनीय नहीं थी। इन बदलावों की जानकारी मीडिया में दी गई। हालांकि यह जानकारी टुकड़ों-टुकड़ों में थी। अब भारत में सर्वेक्षण की रूपरेखा पर व्यापक बातचीत करने का समय आ गया है।
(लेखक एचसीईएस 2022-23 की कार्यशील समूह के सदस्य थे। ये उनके निजी विचार हैं और कार्यशील समूह के विचारों को किसी भी रूप में परिलक्षित नहीं करते हैं। )