शहद का उत्पादन अब लाभ का व्यवसाय बनता जा रहा है। मधुमक्खी पालकों की आय का बड़ा स्रोत मधुमक्खियां बन रही हैं।
इसका प्रमुख कारण यह है कि औषधि और घरेलू क्षेत्र में शहद की जबरदस्त मांग है। मधुमक्खियां परागण में भी अहम भूमिका निभाती हैं। वे नर पुष्पों से पराग को मादा तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाती हैं। परागण की इस प्रक्रिया का भी व्यापक महत्त्व है, क्योंकि अच्छे परागण से बीज और फलों की गुणवत्ता में सुधार आता है और इससे फसल का उत्पादन बढ़ता है।
व्यावसायिक रूप से मधुमक्खी पालन (इसे एपीकल्चर भी कहते हैं) से शहद के अलावा अन्य अतिरिक्त उत्पाद भी प्राप्त होते हैं। इसमें मधुमक्खी का मोम, प्रोपोलिस (मधुमक्खियों द्वारा कलियों से लाया हुआ मोम, जिसे अपने छत्ते के छेद बंद करने के लिए वे प्रयोग में लाती हैं), पराग और रॉयल जेली आदि का व्यापक प्रयोग होता है।
इसका प्रयोग फार्मास्यूटिकल्स क्षेत्र में भी होता है। कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद (कृषि जीडीपी) में मधुमक्खियों का कितना योगदान है, यह तो अनुमान लगा पाना संभव ही नहीं है क्योंकि परागण की प्रक्रिया से कृषि उपज में जबरदस्त बढ़त होती है।
वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि भिन्न-भिन्न फसलों में परागण के चलते 10 प्रतिशत से लेकर 200 प्रतिशत से ज्यादा उपज में बढ़ोतरी होती है। खासकर यह बढ़त तिलहन और फलों में होती है, क्योंकि मधुमक्खियों द्वारा परागण की प्रक्रिया से गुणवत्ता में सुधार आता है।
इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) के असिस्टेंट डॉयरेक्टर जनरल टीपी राजेंद्रन का कहना है, ‘अगर परागण की प्रक्रिया के सभी तरीकों पर गौर करें तो निश्चित रूप से मधुमक्खियों द्वारा परागण सभी तरीकों में सबसे बेहतर है।’
इसके साथ ही उनका कहना है, ‘विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि इससे फसलों की उपज में बढ़ोतरी तो होती ही है, इसके साथ ही मधुमक्खियां बीज और फलों की गुणवत्ता को सुधारने में भी अहम भूमिका अदा करती हैं।’
इसके साथ ही मधुमक्खी पालन अब बहुत बड़े पैमाने पर व्यावसायिक रूप ले रहा है। पहले यह किसानों के लिए अपने काम के साथ आय के अतिरिक्त जरिये के रूप में ही था, जिसमें किसान अपने खेती के काम के साथ ही शहद का काम करके अतिरिक्त आमदनी करते थे।
अब जो नए तरीके के उद्यमशीलता बन रही है, वे पश्चिमी और यूरोपीय बिजनेस मॉडल ‘माइग्रेटरी बी-कीपिंग’ को अपना रहे हैं। इसमें उनकी मधुमक्खियां अपनी कॉलोनी से निकलकर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाती हैं और किसानों की फसलों का परागण करती हैं।
इसके लिए मधुमक्खी पालक किसानों से पैसे लेते हैं। दक्षिणी भारत के राज्य, जिसमें केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश शामिल हैं, इस व्यवसाय में बढ़त बना रहे हैं।
राजेंद्रन के मुताबिक, माइग्रेटरी बी कीपर्स के चाहने वाले उत्तरी केरल या दक्षिणी कर्नाटक में फरवरी माह में रबर के रोपण से शुरुआत करते हैं और उसके बाद इलायची, इमली और कॉफी के पौधों का रोपण करते हैं जो व्यवसाय कम से कम साल भर में 7 महीने तक चलता है।
दक्षिण भारत में नारियल की खेती प्रचुर मात्रा में होती है, कम पैदावार के समय में मधुमक्खियों का समर्थन काफी प्रभावी होता है। व्यक्तिगत उद्यमशीलता के अलावा इस क्षेत्र में स्वयं सहायता समूह और किसान भी काम कर रहे हैं। ये पहल करके माइग्रेटरी बी-कीपिंग को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे फसलों की पैदावार और आमदनी में बढ़ोतरी हो।
जम्मू कश्मीर में व्यावसायिक माइग्रेटरी बी-कीपिंग, सेब के उत्पादन वाले इलाकों में जोर पकड़ रहा है। इससे फलों की गुणवत्ता में सुधार होता है और उसका बढ़िया दाम मिलता है। सेब के उत्पादक 500 रुपये प्रति एकड़ की दर से मधुमक्खी पालकों को देने के लिए तैयार रहते हैं, जिससे उनकी फल वाटिका में बेहतर ढंग से परागण की क्रिया हो सके।
वास्तव में देखें तो मधुमक्खी पालन इस समय बागवानी से संबंधित अन्य परियोजनाओं के विकास की अपेक्षा अलग रूप ले रहा है, जिसको विभिन्न सरकारी संगठनों- नेशनल हॉर्टीकल्चर बोर्ड, नेशनल हॉर्टीकल्चर मिशन और केंद्र तथा राज्य सरकारों के बागवानी विभागों से मदद मिल रही है।
खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी), जो खासकर परंपरागत तरीकों से रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने वाले उद्यमों को मदद देता है, वह भी माइग्रेटरी बी-कीपिंग को विभिन्न बागवानी क्षेत्रों में बढ़ावा दे रहा है। आईसीएआर इस काम के लिए शोध और विकास से संबंधित मदद दे रहा है।
मधुमक्खियों और परागण में अहम भूमिका निभाने वाले अन्य कीटों के महत्त्व को महसूस करते हुए आईसीएआर ने परियोजना का विस्तार करते हुए अपनी मधुमक्खियों के लिए अखिल भारतीय शोध परियोजना को विस्तार देते हुए उसका नाम ‘मधुमक्खियों और परागण कीटों की अखिल भारतीय समन्वित शोध परियोजना’ रखा है, जिसकी कृषि क्षेत्र के उपज को बढ़ाने में अहम भूमिका है।
इसके अंतर्गत माइग्रेटरी बी-कीपिंग के साथ साथ मधुमक्खीपालन (एपीकल्चर) के अन्य पहलुओं पर भी शोध कार्य पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। इसमें कृषि के क्षेत्रफल के आधार पर मधुमक्खी पालन के कॉलोनी का क्षेत्रफल, कीटनाशकों जैसे अन्य तत्वों के बुरे प्रभाव से बचाने और इसके कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव आदि का अध्ययन किया जाएगा।
अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में करीब 1,75,000 लोगों को इस समय रोजगार मिला हुआ है, जो 14 लाख मधुमक्खी के बक्सों की देखभाल करते हैं। अन्य उत्पादकों के अलावा ये हर साल करीब 52,000 टन शहद का उत्पादन करते हैं।
हालांकि इस क्षेत्र में जितनी क्षमता है, उसकी तुलना में ये आंकड़े बहुत ही कम हैं। इस क्षेत्र के विस्तार से फसलों के परागण में विस्तार होगा, जिसकी बीजों और फलों की गुणवत्ता के सुधार के लिए बहुत ज्यादा जरूरत है।
देश भर में कम से कम 150 लाख मधुमक्खी कालोनियां आसानी से बनाई जा सकती हैं, जिससे करीब 16 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। इससे शहद के उत्पादन में कई गुना बढ़ोतरी होगी और इससे भी अहम यह है कि यह कृषि के उत्पादन और उत्पादन क्षमता में उल्लेखनीय भूमिका निभाएगा।
इसके लिए जरूरी है कि मधुमक्खी पालन के लिए आधारभूत ढांचा उपलब्ध कराया जाए। इसके साथ ही इसके लिए उचित नीतियां बनाए जाने की जरूरत है, जिससे इस क्षेत्र में मौजूद अपार क्षमता को विस्तार दिया जा सके।