राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के लिए यह जरूरी है कि देश की राजकोषीय स्थिति की व्यापक समीक्षा करते हुए भविष्य की राह तलाश की जाए। बता रहे हैं राजेश कुमार
केंद्रीय बजट से संबंधित टिप्पणियां आमतौर पर इस बात पर केंद्रित रहती हैं कि आर्थिक और वित्तीय बाजारों पर इसका क्या संभावित असर होगा। चूंकि अर्थव्यवस्था एक ऐसे असाधारण झटके से उबरी ही है जिसने सार्वजनिक वित्त को तगड़ा झटका दिया तो ऐसे में मध्यम अवधि में सरकारी वित्त की संभावनाओं और उनके असर का आकलन करना महत्त्वपूर्ण है।
यह इसलिए भी अहम है कि सरकार ने निरंतर जारी वैश्विक अनिश्चितता के बीच मध्यम अवधि का राजकोषीय अनुमान सामने नहीं रखा। सरकार ने स्वयं को यह लक्ष्य दिया है कि 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को कम करके जीडीपी के 4.5 फीसदी तक के स्तर पर लाना है।
फिलहाल जो हालात हैं उनके मुताबिक तो सरकार के सामने चुनौतीपूर्ण राजकोषीय हालात हैं और उसे राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम के तय लक्ष्यों को हासिल करने में कई वर्ष का समय लग सकता है। पहले विचार करते हैं जीडीपी के 4.5 फीसदी के लक्ष्य के बारे में।
2023-24 के लिए लक्ष्य है राजकोषीय घाटे को कम करके जीडीपी के 5.9 फीसदी के स्तर पर लाना। इस वर्ष यह 6.4 फीसदी है यानी इसमें 0.5 फीसदी की कमी लानी होगी। अगले दो वर्षों का लक्ष्य है राजकोषीय घाटे में 1.4 फीसदी की कमी लाना यानी सालाना 0.7 फीसदी की कमी।
ऐसा करना आसान नहीं होगा। इसकी तीन वजह हैं। पहली वजह, वृद्धि में धीमापन आने की उम्मीद है। सरकार का अनुमान है कि अगले वित्त वर्ष में 10.5 फीसदी की नॉमिनल वृद्धि दर हासिल होगी जो सही प्रतीत होता है। हालांकि कुछ विश्लेषकों का अनुमान है कि यह इससे कम हो सकती है। धीमी वृद्धि कर संग्रह को प्रभावित करती है और घाटे का प्रबंधन करना और मुश्किल हो जाता है। चूंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था के धीमी गति से विकसित होने की उम्मीद है इसलिए भारत में भी आने वाले वर्षों में वृद्धि प्रभावित होगी।
दूसरी बात, चुनावी वर्ष (2024-25) में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की गति तेज होना मुश्किल है। सुदृढ़ीकरण को लेकर प्रतिबद्धता के बावजूद सत्ताधारी दल को लोकसभा चुनाव के पहले अन्य राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले वादों का मुकाबला करना होगा। 2024-25 में तथा उसके बाद राजकोषीय स्थिति इस बात पर निर्भर करेगी कि चुनाव के नतीजे क्या रहते हैं।
तीसरी बात यह कि हालिया इतिहास भी अनुकूल नहीं है। 2004 में एफआरबीएम अधिनियम लागू होने के बाद से अब तक केंद्र सरकार केवल चार बार ही घाटे को 0.7 फीसदी या उससे अधिक कम कर सकी है। 2021-22 में भी ऐसा हुआ था जब सरकार ने घाटे में 2.46 फीसदी की कमी की थी, हालांकि ऐसा कोविड वर्ष के कारण उच्च आधार रहने की वजह से हुआ था।
ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार कभी भी लगातार दो सालों तक 0.7 फीसदी या उससे अधिक की कमी कर पाने में कामयाब नहीं हो सकी है। ऐसे में उचित यही है कि उच्च वृद्धि के दौर में सुदृढ़ीकरण हासिल किया जाए या उन वर्षों में ऐसा किया जाए जब सुधार हो रहा हो।
निश्चित तौर पर सरकार ने तेज राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का लक्ष्य तय नहीं किया हो, आंशिक तौर पर इसलिए कि वह पूंजीगत व्यय पर जोर दे रही है। यह सही है कि भारत को बुनियादी ढांचे में भारी भरकम निवेश की आवश्यकता है लेकिन सरकार को कम से कम दो वजहों से राजकोषीय सुदृढ़ीकरण को प्राथमिकता देनी चाहिए। पहली, भारी कर्ज लेकर किया जाने वाला अधोसंरचना व्यय शायद वांछित असर न डाले। वह भी ऐसे समय पर जबकि अर्थव्यवस्था अपनी लगभग पूरी क्षमता से प्रदर्शन कर रही है।
दूसरी बात, उसे पूंजीगत व्यय में कमी करनी होगी ताकि आने वाले वर्षों में वांछित स्तर का सुदृढ़ीकरण हासिल किया जा सके। ऐसा इसलिए कि राजस्व व्यय को सीमित करने की अपनी सीमा है।
इतना ही नहीं 4.5 फीसदी के स्तर पर पहुंचने के बाद भी सरकार को सुदृढ़ीकरण की राह पर बने रहना होगा। ऐसा करना दो कारणों से जरूरी है। पहला, समग्र ऋण कम करने के लिए यह आवश्यक है कि उधारी में कमी की जाए। अनुमान था कि 2021-22 में यह जीडीपी के 90 फीसदी के बराबर रही।
हकीकत में केंद्र सरकार का कर्ज 2023-24 में भी आंशिक रूप से बढ़ने की उम्मीद है। अगर कर्ज कम हुआ तो सरकार को ब्याज लागत बचाने में मदद मिलेगी। फिलहाल केंद्र सरकार के कुल विशुद्ध कर राजस्व का 45 फीसदी ब्याज चुकाने में जा रहा है। अगर कम ब्याज चुकाना होगा तो सरकार विकास कार्यों पर अधिक व्यय कर सकेगी।
दूसरा, सरकारी उधारी के अधिक होने से निजी क्षेत्र बाहर हो जाता है। यह बात ध्यान देने लायक है कि आम धारणा के उलट एफआरबीएम अनियमों के अधीन राजकोषीय घाटा लक्ष्य प्रभावी तौर पर अर्थव्यवस्था की उपलब्ध बचत पर आधारित रहा।
छह फीसदी के संयुक्त राजकोषीय घाटे को केंद्र और राज्यों के बीच बराबरी से बंटने का अनुमान जीडीपी के 12 फीसदी के बराबर बचत अनुमान, आम परिवारों की 10 फीसदी बचत तथा जीडीपी के दो फीसदी तक के चालू खाते के घाटे के अनुमान पर केंद्रित था। उपलब्ध बचत को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में बराबर-बराबर बांटा गया।
उपलब्ध पारिवारिक बचत में गिरावट को देखते हुए एफआरबीएम समीक्षा समिति (2017) ने जीडीपी के 5 फीसदी के बराबर के संयुक्त राजकोषीय घाटे की बात कही जिसे केंद्र और राज्य के बीच बराबरी से बंटना था।
चूंकि निकट भविष्य में सरकार का घाटा काफी ऊंचा रहने की उम्मीद है इसलिए वह निजी क्षेत्र में विस्तार को रोकेगी और यह बात दीर्घावधि में वृद्धि की संभावनाओं पर असर डाल सकती है।
निजी क्षेत्र के निवेश में सुधार आयातित पूंजी पर निर्भर करेगा जो बाहरी संतुलन को प्रभावित करेगा और वित्तीय स्थिरता के जोखिम को बढ़ाएगा। ऐसे में राजकोषीय घाटे को समुचित दायरे में रखना जरूरी है। इस लक्ष्य को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा होगी 10-11 फीसदी पर ठहरा हुआ केंद्र का कर-जीडीपी अनुपात।
व्यय को निरंतर सीमित रखना वैसे भी कठिन है और यह भी वृद्धि को प्रभावित कर सकता है। चूंकि कुछ बड़े सुधार मसलन वस्तु एवं सेवा कर सुधार तथा कॉर्पोरेशन कर को तार्किक बनाना आदि पहले ही किए जा चुके हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कर-जीडीपी अनुपात में सुधार कैसे किया जाएगा। अब वक्त आ गया है कि हम देश की राजकोषीय स्थिति की व्यापक समीक्षा करें।