क्या केबल टेलीविजन में कमी आने से भारत में वीडियो का बोलबाला बढ़ेगा? ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016 में भारत में 18.3 करोड़ टीवी वाले घर थे जो 2020 में 21 करोड़ घर हो गए। इस वृद्धि का अधिकांश हिस्सा अन्य वितरण तकनीक-डीटीएच, डीडी फ्रीडिश या एयरटेल और जियो जैसे ब्रॉडबैंड प्रदाताओं के खाते में चला गया है। केबल टीवी वाले घरों की संख्या 11.5 करोड़ से घटकर 10 करोड़ से भी कम रह गई है। कुल राजस्व में इसका हिस्सा आधा हो गया है और यहां तक कि टीवी कारोबार 29,700 करोड़ रुपये से बढ़कर 68,500 करोड़ रुपये हो गया है।
आप 89.2 करोड़ टीवी दर्शकों में 46.8 करोड़ ओटीटी दर्शकों को जोड़ सकते हैं। इन आंकड़ों में काफी दोहराव भी है। अहम बात यह है कि टीवी, मोबाइल या अन्य उपकरणों पर वीडियो की दुनिया काफी बड़ी है। इसका विस्तार जारी रहेगा और इससे गुणवत्ता वाले ब्रॉडबैंड इंटरनेट की मांग भी बढ़ेगी। हालांकि चुनिंदा कंपनियों को ही इससे फायदा होगा, यानी मुख्य रूप से एयरटेल और जियो को।
वैश्विक स्तर पर, केबल, दोतरफा इंटरनेट ब्रॉडबैंड के लिए सबसे बेहतर माध्यम में से एक बना हुआ है। करीब 104 अरब डॉलर की हैसियत वाली एक केबल कंपनी, कॉमकास्ट अमेरिका में सबसे बड़ी ब्रॉडबैंड सेवा प्रदाताओं में से एक है। कॉमकास्ट कनेक्शन पर ही अमेरिका के कई लोग नेटफ्लिक्स, एमेजॉन प्राइम वीडियो पर देखते हैं। भारत में केबल इंटरनेट वाले घर अनुमानत: 2.1 करोड़ हैं और लोगों की तादाद 8-9 करोड़ है। वीडियो देखने के तरीके में बदलाव आने से इंटरनेट की पेशकश के जरिये केबल को प्रासंगिक और लाभदायक बनाए रखना सबसे अच्छा तरीका है। केवल केबल के बजाय यह 2.3 गुना औसत राजस्व की पेशकश करता है। आखिर केबल डिजिटल वीडियो में उभार का फायदा लेने में सफल क्यों नहीं रहा? इसकी वजह नियमन का बोझ और उद्योग की एक विकृत संरचना है। करीब 95 प्रतिशत से अधिक केबल वाले घरों में 155,000 स्थानीय केबल परिचालकों की पहुंच है। दशकों तक अगर एक परिचालक के पास 1,000 घर थे तब मान लीजिए कि उसे साल भर में 500 के लिए ही भुगतान करना था और यह आंकड़ा बातचीत के आधार पर हर साल बढ़ जाएगा। जब तक सदस्यता शुल्क मिल रहा है तब तक प्रसारकों को इस बात की परवाह नहीं है कि कितने घरों में केबल की पहुंच है। मल्टी सिस्टम ऑपरेटर (एमएसओ) अपनी राजस्व हिस्सेदार चाहते थे। वहीं स्थानीय परिचालकों ने कर बचाकर पैसा कमाया। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने 2004 में मूल्य नियंत्रण की शुरुआत की। इससे अपना हिस्सा पाने की मानसिकता को प्रोत्साहन मिला। इसलिए समस्या के समाधान और पारदर्शिता की कमी जैसी संरचनात्मक खामी को बनाए रखने के लिए सभी दोषी थे। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीसदी विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति मिलने पर भी कोई केबल में निवेश नहीं करना चाहता था।
इसके बाद 2019 में नया पेचीदा शुल्क आदेश आया। इसकी वजह से केबल को प्री-पेड वाली डीटीएच (डाइरेक्ट टू होम) व्यवस्था में आने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि, डीटीएच की तरह कोई कॉल सेंटर या सॉफ्टवेयर आदि का प्रबंधन नहीं था जिनकी मदद से सिंगल चैनलों को चुनने या उन्हें छोडऩे के साथ-साथ अग्रिम तौर पर पैसा जुटाने में मदद मिलती। ऐसे में ग्राहकों ने डीडी के फ्रीडिश या आखिर में डीटीएच/ओटीटी को ही अपनाने का फैसला कर लिया।
कुछ एमएसओ जो इंटरनेट के क्षेत्र में कदम रखने लगे थे उन्हें दूरसंचार विभाग के आदेश के मुताबिक न केवल इंटरनेट राजस्व बल्कि कुल कमाई पर लगाई जाने वाली लाइसेंस फीस के जरिये रोका गया। इसे इस साल अक्टूबर में बदल दिया गया था।
केबल में गिरावट की एक प्रमुख वजह लोभपूर्ण तंत्र है जहां किसी ने भी प्रौद्योगिकी में निवेश नहीं किया है, वहीं नियामक भी इसके लिए जिम्मेदार है जिसका मानना है कि मूल्य नियंत्रण का इस्तेमाल ही एक उपाय है जिसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। लगभग 16 वर्षों से डिजिटलीकरण को छोड़कर, एक मुद्दे पर ट्राई बहुत सक्रिय रहा है और वह मूल्य नियंत्रण का मुद्दा है।
अगर केबल में गिरावट की वजह से ट्राई सिफारिशें पेश करने से पहले प्रभाव का विश्लेषण करे तो इससे उम्मीद जग सकती है। हैरानी की बात यह है कि इसने केबल सेवाओं में बाजार संरचना/प्रतिस्पर्धा को लेकर एक पत्र जारी किया है। सवाल यह है कि क्या केबल टीवी सेवा में एकाधिकार या बाजार के दबदबे को विनियमित करने की आवश्यकता है? इस गिरावट वाले बंटे क्षेत्र को लेकर यह विचार क्यों शुरू हुआ, यह स्पष्ट नहीं है।
ब्रिटिश संचार नियामक ऑफकॉम एक विशेष निर्णय लेने या न लेने की लागत का विस्तार से विश्लेषण करता है। नए शुल्क आदेश से पहले एक साधारण प्रभाव विश्लेषण से केबल का करोड़ों रुपये का राजस्व बचाया जा सकता है और उपभोक्ताओं की मुश्किलें दूर हो सकती हैं।
क्या यह अनुभव प्रसारकों को बेहतर साझेदार बनाएगा क्योंकि वे अपने समानांतर और ओटीटी कारोबारों के लिए अन्य वितरण प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल करते हैं? ऐसा संभव है। ऐसा इसलिए नहीं कि वे अधिक जिम्मेदार हो गए हैं बल्कि इसलिए कि उनका जिन वितरकों से वास्ता पड़ता है मसलन टाटा-स्काई, एयरटेल, जियो या डीडी फ्रीडिश वे काफी बड़े हैं। इसके अलावा 1,700 से अधिक एमएसओ से भी निपटना है। अब केवल थोड़ी ही कंपनियां हैं जो उस माध्यम पर नियंत्रण करती हैं जिसे भारतीय अपने छोटे वीडियो, लंबे वीडियो, फिल्में, वेब सीरीज आदि के इस्तेमाल के लिए करते हैं। एक विवाद के साथ ही वे 1.5 से 2 करोड़ घरों से एक बार में ही बाहर हो सकते हैं जिससे विज्ञापन और भुगतान राजस्व दोनों पर ही असर पड़ सकता है।
