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अर्थव्यवस्था के लिए सही लचीली विनिमय दर

लचीली और मजबूत अर्थव्यवस्था वही होती है जिसमें झटके सहन करने की शक्ति हो। जहां बुरी खबर से रुपये और शेयर कीमतों में गिरावट आए तथा अच्छी खबर से इसका उलटा हो।

Last Updated- May 15, 2024 | 10:11 PM IST
20 banks have opened special accounts for trading in rupees: DGFT

अर्थव्यवस्था को स्थिर और मजबूत बनाए रखने में लचीली विनिमय दर की अहम भूमिका होती है जो झटकों को बरदाश्त करने की काबिलियत रखती हो। बता रहे हैं अजय शाह

विनिमय दर का लचीलापन झटके को बरदाश्त करने में मददगार होता है। जब बाहरी या आंतरिक झटके लगते हैं तो इसका कुछ बोझ लचीली विनिमय दर भी वहन करती है। जब विनिमय दर का समायोजन नहीं होता है तो समायोजन का अधिक बोझ शेयर कीमतों, अचल संपत्ति की कीमतों और कंपनी की बुनियादी बातों पर पड़ता है।

अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपया 2022 के अंत से कहीं अधिक नियंत्रित है। इससे हमें यह समझ बनाने में मदद मिलती है कि भविष्य में किस प्रकार के झटके देखने को मिल सकते हैं।

भारत दूसरे विश्व युद्ध के समय से ही सीमा पार गतिविधियों को सीमित रखता आया है। आम जन से लेकर अर्थशास्त्र के विद्वानों और आय कर अधिकारियों तक ने आर्थिक आजादी और आत्मनिर्भरता को ही आधार बनाया। सन 1990 के दशक में जब पूंजी पर नियंत्रण कम होने लगा तो कई लोगों का प्राथमिक डर यही था कि पूंजी की आवक तो ठीक है लेकिन अगर सभी संस्थागत विदेशी निवेशक (एफआईआई) एक दिन बिकवाली करके चले गए तो क्या होगा?
न तो भारतीय और न ही एफआईआई कोई ऐसा समूह हैं जो अकेले दम पर कदम उठाएं।

बाजार में हजारों कारोबारी हैं और एक ही समय में कई लोग खरीदने और बेचने का काम कर रहे होते हैं। जब बुरी खबरें आती हैं फिर चाहे वे भारत में हों या विदेश में, तो शेयर कीमतें या अचल संपत्ति की कीमतों में कमी आती है।

परिसंपत्ति कीमतों की यह गिरावट खरीदारों को अपनी ओर आकर्षित करती है। आर्थिक समुदाय ने वर्षों के दौरान धीरे-धीरे इन सवालों को लेकर भरोसा हासिल किया और यह भय समाप्त हुआ कि विदेशी निवेशक एक दिन अचानक अपना निवेश निकाल लेंगे।

उसके बाद विनिमय दर की बात आती है। मान लेते हैं कि विदेशी निवेशक भारतीय परिसंपत्तियों की विशुद्ध रूप से बिकवाली करते हैं। उनकी प्राप्तियां रुपये में होती हैं और वे उन्हें अमेरिकी डॉलर में बदलने के लिए मुद्रा बाजार जाते हैं।

अल्पावधि के पूंजी प्रवाह के लिए कमजोर रुपये की आवश्यकता होती है। वह विदेशी मुद्रा बाहर जा रहे विदेशियों को दे दी जाती है। भारत से बाहर जाने वाले विदेशियों को तब दो स्तरों पर नुकसान उठाना पड़ता है: भारतीय परिसंपत्तियां कम कीमतों पर बिकती हैं और मुद्रा बाजार में भी कमजोर कीमत मिलती है।

अगर रुपये को कृत्रिम ढंग से स्थिर रखी जाए तो क्या होगा। अगर रुपया संकट के इस दौर में उछले नहीं तो क्या होगा? यह ऐसा होगा मानो भारतीय परिसंपत्तियों से बाहर जाने वाले विदेशियों के लिए लाल गलीचा बिछाया जा रहा हो। यह समझना मुश्किल है कि क्यों भारतीय राज्य को ऐसी जोखिम प्रबंधन सेवा विदेशियों को देनी चाहिए।

कीमतों का लचीलापन (शेयर कीमतें, बॉन्ड कीमतें, अचल संपत्ति कीमतें, विनिमय दर) वित्तीय व्यवस्था में झटके कम करता है। जब बुरी खबर आती है तो ये कीमतें प्रतिक्रिया देती हैं।

वास्तविक अर्थव्यवस्था की बात करें तो हम पाते हैं कि विनिमय दर में उतारचढ़ाव की दूसरी परत झटके सहने का काम करती है। जब बुरी खबर आती है तो रुपये का अवमूल्यन होता है। इससे भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और निर्यात कंपनियों के कारोबार का आकार भी बढ़ता है।

आयात महंगा होता है जिससे उन कंपनियों को मदद मिलती है जिन्हें आयात प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। वैश्वीकृत उत्पादों की कीमत कमजोर विनिमय दर के साथ ऊपर जाती है। इससे उन उत्पादों को बनाने वाली कंपनियों की कारोबारी हालत सुधरती है। मूल्य व्यवस्था में विनिमय दर सबसे अहम है। इसमें लचीलापन स्थिर अर्थव्यवस्था के लिए अहम है।

जब हमारे पास लचीली विनिमय दर नहीं होती है तब ये सारे विचार उलटे साबित होते हैं। जब भारत सरकार खबरों को रोज विनिमय दर को आकार देने से रोकती है। जब बुरी खबरों के बीच वास्तविक अर्थव्यवस्था को कंपनियों के बेहतर प्रदर्शन का साथ नहीं मिलता है।

जब मुश्किल खबरों के बीच स्थिर विनिमय दर लाल गलीचे की तरह व्यवहार करती है और विदेशी निवेशकों को अपनी प्रतिभूतियों या अचल संपत्ति की बिकवाली करते समय लाभ होता है। यह बात वित्तीय बाजार कीमतों पर समायोजन का दबाव डालती है जो सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होते हैं। मिसाल के तौर पर अचल संपत्ति या प्रतिभूति में बड़ी गिरावट आती है।

अक्टूबर 2022 के आरंभ में अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपया 82.8 तक पहुंच गया और तब से इसमें खास परिवर्तन नहीं आया है। हम डॉलर और रुपये की तयशुदा विनिमय दर के नए दौर में हैं। यह विनिमय दर व्यवस्था में एक अहम बदलाव था। उस समय इस निर्णय या इसके पीछे के तर्क को लेकर कोई सार्वजनिक घोषणा नहीं की गई थी। यह पता नहीं है कि मौद्रिक नीति समिति को इस बारे में बताया गया था अथवा नहीं।

किसी अर्थव्यवस्था में पूरी तरह घरेलू चीजों पर केंद्रित मौद्रिक नीति, विनिमय दर नियंत्रण और खुले पूंजी खाते के रूप में तीनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं। इन तीनों को साथ लाने की कोशिश एक वृहद आर्थिक मुश्किल पैदा करती है। बीते 20 महीनों में कई नीतिगत कदम एक्सचेंज ट्रेडेड डेरिवेटिव के लिए हेजिंग अथवा एलआरएस पर रोक आदि रणनीतिक कदम उठाए गए हैं।

इसी प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था द्वारा झटका सहन करने का एक उपाय गंवा देने का विचार हमें बीते 20 महीनों को समझने में मदद करता है। इस अवधि में मजबूत डॉलर के कारण रुपये में कुछ अवमूल्यन होता जिससे निर्यात क्षेत्र को मदद मिलती। विनिमय दर तमाम घरेलू और अंतरराष्ट्रीय झटकों से राहत दिलाती है।

उदारहण के लिए शायद लाल सागर के मार्ग से व्यापार में कठिनाई के कारण लचीली विनिमय दर में मु्द्रा का अवमूल्यन हो सकता था लेकिन ऐसा नहीं होने दिया गया। महामारी के बाद निर्यात में नाटकीय वृद्धि हुई लेकिन 2022 में उसका बढ़ना भी बंद हो गया। 2022 के बाद से प्रति माह करीब 55 अरब डॉलर का निर्यात हो रहा है। इसमें गैर तेल, गैर स्वर्ण वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात शामिल है।

कई बार चुनाव नतीजों ने भी परिसंपत्ति कीमतों को गति प्रदान की है। उदाहरण के लिए जब 2004 में कांग्रेस को जीत मिली थी तब शेयर कीमतों में गिरावट आई थी और 2009 में जब दोबारा पार्टी जीती तो बाजार में उछाल नजर आई। जब तक विनिमय दर ऐसी घटनाओं के समय स्थिर रहेगी, शेयर बाजार की अस्थिरता तेज रहेगी।

लचीली और मजबूत अर्थव्यवस्था वही होती है जिसमें झटके सहन करने की शक्ति हो। जहां बुरी खबर से रुपये और शेयर कीमतों में गिरावट आए तथा अच्छी खबर से इसका उलटा हो।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published - May 15, 2024 | 9:51 PM IST

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