किसी पब में डांस हो रहा हो, घर में कोई पार्टी हो या देश में कहीं भी शादी समारोह हो, आपको उसमें 80-90 के दशक से लेकर 2019 तक के गाने सुनने को मिलते हैं। किसी कार्यक्रम में 1998 में आई फिल्म ‘दिल से’ का गीत ‘छैंया छैंया’ बजते ही आधे लोग शाहरुख खान की तरह नाचने की मुद्रा में आ जाते हैं। दो वर्ष पहले केरल के कोवलम में मेरे समेत 150 लोग ‘चुरा के दिल मेरा’ (मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी, 1994) से लेकर ‘लुंगी डांस’ (चेन्नई एक्सप्रेस, 2013) तक के गानों पर भोर तक नाचते रहे। यह तब था जबकि डीजे को बताया भी नहीं गया था कि इस मराठी-मलयाली शादी में कौन से गाने बजाने हैं।
यह लोकप्रियता की हमारी सामूहिक स्मृति है जो पूरे अनुभव को मजेदार बनाती है। यह बात फिल्मों और टीवी शो के लिए भी सही है। ‘बुनियाद’, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ या ‘तिरुमति सेल्वम’ आदि को लाखों लोगों ने देखा और अगले दिन घरों और दफ्तरों में इनकी चर्चा की। यही बात ‘शोले’ (1975), ‘दलपति’ (1991) या ‘दंगल’ (2016) जैसी अन्य फिल्मों के बारे में भी कहा जा सकता है।
खूब लोकप्रिय हो जाने वाली फिल्में और गाने पॉपुलर कल्चर का हिस्सा बन जाते हैं। उन्हें दोस्तों बीच, किसी महफिल में और सोशल मीडिया में आसानी से पाया जा सकता है। ‘पुष्पा, आई हेट टियर्स’ (अमर प्रेम, 1972) से लेकर ‘कितने आदमी थे?’(शोले, 1975) और ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी’(दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, 1995) तक पॉपुलर कल्चर की भाषा हमेशा फिल्मों, संगीत और टेलीविजन से निकली है।
ये हर लिहाज से मास मीडिया यानी जनसंचार का उदाहरण हैं। गत 24 अक्टूबर को पीयूष पांडेय के निधन और दो नवंबर को शाहरुख खान के जन्मदिन ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित किया। शाहरुख खान का जन्मदिन एक राष्ट्रीय घटनाक्रम बन गया है। हजारों लोग उनके घर के बाहर उनकी एक झलक के लिए इंतजार करते हैं। विज्ञापनों से लेकर पूरा मीडिया उनके जन्मदिन के जश्न में शामिल हो जाता है। इसका अधिकांश हिस्सा उस मनोरंजन का प्रतिबिंब है जो उनके सिनेमा ने दिया है।
उनकी लगभग 100 फिल्मों में से ‘कभी हां कभी ना’, ‘चक दे इंडिया’, ‘कल हो ना हो’ जैसी कई केवल ब्लॉकबस्टर ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने यह भी परिभाषित किया कि हम प्रेम, दोस्ती, परिवार, देश और अन्य चीजों के बारे में कैसे सोचते हैं। आईएमडीबी रिपोर्ट के अनुसार पिछले 25 वर्षों में भारत की 130 सबसे बड़ी हिट फिल्मों में से 20 खान की हैं। उनका प्रशंसक वर्ग, जिसका अनुमान वैश्विक स्तर पर 3.5 अरब लोगों का है, जर्मनी, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया सहित कई देशों के दर्शकों तक फैला हुआ है।
खान को सुपरस्टारों की श्रृंखला में आखिरी माना जाता है और यह सही भी है। अब किसी के लिए भी सुपरस्टार बनना लगभग नामुमकिन है। इसलिए नहीं क्योंकि उनमें प्रतिभा की कमी है बल्कि इसलिए क्योंकि अब मास मीडिया नहीं है। मीडिया अब लाखों अलग-अलग रील्स और इन्फ्लुएंशर्स में बंट चुका है जिसका नियंत्रण चुनिंदा प्लेटफॉर्म्स मसलन गूगल, मेटा या एमेजॉन के हाथों में रहता है। अब सामूहिक मनोरंजन का दौर खत्म सा हो चला है। अब हमारा स्क्रीन को देखने का समय रील्स, मीम्स, मैसेज और वेब सिरीज में बंट चुका है। यह सब भी ज्यादातर फोन पर देखा जाता है। यानी हमारा मनोरंजन व्यक्तिगत हो चुका है।
राजेश खन्ना, रजनीकांत या अमिताभ बच्चन सुपरस्टार इसलिए बने क्योंकि हम मास मीडिया के युग में जी रहे थे। खान ने नब्बे के दशक के आरंभ में फिल्मों में काम करना शुरू किया, जब सामूहिक अनुभव ही सफलता को परिभाषित करता था। यही बात पीयूष पांडेय पर भी लागू होती है। जब वे ओगिल्वी में आगे बढ़े, तब टेलीविजन उभार पर था। साल 2019 में अपने चरम पर, टीवी ने 90 करोड़ भारतीयों तक पहुंच बनाई। जो कुछ हम देखते थे, वह चर्चा का विषय बनता था, जिसमें विज्ञापन भी शामिल थे। इसने ‘फेविकोल का जोड़’ से लेकर ‘हर घर कुछ कहता है’ और अन्य स्थायी टैगलाइन ने ब्रांड संदेशों को प्रदर्शित करने और दोहराने में मदद की।
जब पांडेय का निधन हुआ, तो फेविकोल, अमूल और एशियन पेंट्स ने बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिये श्रद्धांजलि दी। सोचिए, क्या आज कोई एक विज्ञापन-व्यक्तित्व है जो जोमैटो या मिंत्रा जैसे हजारों बड़े विज्ञापनदाताओं के बीच विज्ञापनों का चेहरा बन सके। अब अधिकांश कंपनियां ब्रांड-निर्माण से बचती हैं और ‘परफॉर्मेंस मार्केटिंग’ को प्राथमिकता देती हैं, जो तात्कालिक परिणामों जैसे क्लिक-थ्रू या बिक्री पर केंद्रित होती है। यह बदलाव इस बात का प्रतिबिंब है कि उपभोक्ता किस दिशा में जा रहे हैं।
टीवी की पहुंच घट रही है। फिलहाल करीब 65 करोड़ लोग टीवी से जुड़े हैं और 52.2 करोड़ लोग ऑनलाइन रहते हैं। उनमें से अधिकांश लोग टीवी पर अलग-अलग चीजें देखते हैं। इसलिए उसका वही समान प्रभाव नहीं पैदा होता। अपने बेहतरीन दिनों में बड़े टीवी शो 15 से 30 करोड़ लोगों तक पहुंचते थे। बड़ी से बड़ी फिल्म थिएटर के जरिये 3 से 10 करोड़ लोगों तक पहुंचती है। टीवी या स्ट्रीमिंग के दर्शक जोड़ दें तो एक हिट फिल्म के लिए यह संख्या 30 करोड़ तक पहुंच सकती है।
एक इन्फ्लुएंसर या क्रिएटर जिसके कुछ लाख फॉलोअर्स हों, वह सोने पर सुहागा है। ऐसे लाखों लोग हैं। उन्हें अपने ब्रांड के अनुरूप जोड़ना ही असली खेल है। अब किसी अभिनेता, फिल्म, विज्ञापन या गीत पर सामूहिक आह नहीं निकलती। यही कारण है कि हम पुरानी साझा स्मृतियों से जुड़ी चीजों में आनंद पाते हैं। शहरी भारत के लिए यह बात खासतौर पर सही है। ग्रामीण भारत पर अभी मास मीडिया का प्रभाव है क्योंकि वहां इंटरनेट की पहुंच कम है और दूरदर्शन अभी भी चल रहा है।
भारतीय बाजार के बाकी हिस्सों में, जहां सामूहिक प्रभाव की कमी है, दोहराई जाने वाली कोई भी चीज बेहद कीमती है। आईपीएल के मीडिया अधिकारों की कीमत पिछले दो सीजनों में तीन गुना हो गई है क्योंकि प्रसारक और टेक कंपनियां उन 30-40 करोड़ लोगों तक पहुंचने के लिए भारी रकम चुकाने को तैयार हैं। दूसरी ओर, लाइव इवेंट्स तेज़ी से बढ़ रहे हैं। शहरी उपभोक्ता साझा अनुभव का एहसास पाने के लिए अच्छा-खासा पैसा खर्च कर रहे हैं। चाहे वह जाकिर खान के किस्सों पर हंसना हो या कोल्डप्ले का कॉन्सर्ट देखना। मीडिया में मास यानी जन की तलाश जारी है।